पाओ ज्ञान करो कर्म प्रणाम बताए जीवन मर्म
सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है। जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टिï के…