रोना काहे का

जिनसे गलतियाँ होती हैं वह जानते हैं कि उन्होंने क्या किया है उसका जवाब सोच लेना ही उनका ध्यान 'मेडिटेशन' होता है उनसे कुछ भी कहो तो उनके पास ऐसे सधे उत्तर होते हैं कि आप अपने को एकदम बेवकूफ महसूस करते हैं उनसे बहस करने को उनके स्तर पर उतरना होता है और उस स्तर की भाषा व विद्या से अनभिज्ञ होने पर मुँह की खानी पड़ती है तो रोना काहे का यही तो सजा है यही सजा है छोड़कर स्तर अपना फँसना उनके बनाए चक्रव्यूह में मानो गुरु उनको जो लेते हैं परीक्षा आपकी बार-बार और तुम डिगते हो बार-बार अपनी स्थितप्रज्ञ एक निश्चय वाली स्थिति से शायद तुम्हारी ही दृढ़ता में रह जाती है कुछ कमी नमन प्रणाम इन सब गुरुओं को जो घसीटते हैं बार-बार तुम्हें अपने ही पोषित विषवमन को पर तुम्हें होता है अहसास बार-बार अपनी दृढ़ता की कमजोरी का उन्हीं के कर्मों द्वारा…

सत्यता बीज रूप की

सृष्टि की उत्पत्ति में लय होना उसके साथ उगना और उसकी मानसिक स्थिति को जानना ब्रह्म बोधि व ब्रह्म गति को प्राप्त होना बीज रूप से देखना अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को बीज जो कि सब गुण अपने आप में समाए हैं एक बीज से सैकड़ों-हज़ारों फल पाए जा सकते हैं पर हजारों फल धरती में दबा दो एक बीज पैदा नहीं कर सकते बीज आया कहाँ से कैसे सदियों के विविध विधान से बन गया सिर्फ प्रकृति जानती है या जानता है वह बीज यह बीज, ष्द्गद्यद्य, कोषाणु सारा का सारा रहस्य सारी की सारी सूचनाएँ अपने में समाए हुए है मीना बन गई है वह बीज प्रकृति का बीज स्वरूप पर प्रकृति से परे नहीं हूँ प्रकृति का मन बुद्धि कर्म आत्मा की पूर्ण अनुभूति अपने आपमें समाए हुए हूँ प्रकृति की अनुकम्पा से मिली वाणी संसार से मिला ज्ञान ताकि बता पाऊँ ऊँ इस अनुभूति को पर लोगों…

झूठ ही झूठ को मारेगा

कालचक्र महाकाली दुर्गा शक्ति हुई जागृत और अब काम नहीं रुकने वाला यही समय की कालचक्र की गति है जो मेरी कलम से बहती है समझेंगे नसीबों वाले जो मन में होता है वही विचार होता है वही लिखा जाता है वैसा ही कर्म होता है यही सत्य होता है वही सत्य होता है यही सत्य है देखूँ जानूँ समझूँ सत्य की शक्ति पूर्णता की भक्ति तो सिर्फ सत्य ही कर पाता है सत्य की शक्ति पूर्णता की भक्ति पूर्ण सत्यमयी ही कर सकती है पूर्ण सत्यमय प्राणी जीव ही कर सकता है यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

दर्द और इंतजार

इन्तजार जि़न्दगी बना प्यार बंदगी बना दर्द धड़कन बना जो तूने बनाया वही तो मैं बना तुझसे क्यों कहाँ क्या कहूँ मैं तो तू ही तू बना अब और क्या बाकी रहा कृष्ण था कृष्ण-कृष्ण ही रहा जो तूने सहा वही तो सहा जो कहलवाया वही तो कहा तभी तो गीता बना यही सत्य है कौन किसका स्थान बंदे भूला किस भ्रम में कि है जो स्थान तेरा देगा किसी और को डेरा किसका स्थान किसे देना है बन्दे स्थाणुमाल्या सब स्थान उसी के सब प्रणाम उसी के यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

सृष्टि की दीवाली

जीवन्त पटाखे रंग-बिरंगे रोज छोड़े रोज तोड़े धूमकेतु पुच्छल तारे छोटे मोटे ग्रह न्यारे-न्यारे यहाँ से वहाँ तक ब्रह्माण्ड के अनन्त छोर तक अपनी मर्जी के मालिक स्वच्छन्द नटखट पूर्णता के खेल में रमे न थके न बुझे यह तो केवल मानव ही है जो कहे धरती की दीवाली पर पटाखे उड़े मिटे चले जले बुझे-अनबुझे जो करते रहते हमारी ही मानसिकता को तृप्त उस अनन्त रचयिता के पटाखे करते अपने को ही संतुष्ट अपना ही गुन गुनें अपने में ही जलें-बुझें कोई निहारे या न निहारे कोई पुकारे या न पुकारे कोई छुटाए या न छुटाए कोई जलाए या न जलाए अपनी मन की मौज से ही जलते तड़पते दौड़ते डूबते सरकते घूमते चमकते रगड़ते बने सृष्टि का हिस्सा कह रहे उसी का किस्सा फिर क्यों मानव मन चाहे उसे कोई जलाए बुझाए घुमाए रिझाए क्यों नहीं जलता अपनी ही आग से बुझता अपनी ही प्यास से क्यों नहीं…

मन तू है कहाँ

मन खोया-खोया सा है न यहाँ है न वहाँ है सब कुछ सोया-सोया सा है बहुत देर हुई अपने आपसे मिले मन की कली खिले सब लगे अपने ही मेलों में झमेलों में जि़न्दगी से जूझते से अपने को बूझते से वहीं वहीं घूम रहे अपने ही बनाए घेरों में कर्मों के फेरों में अपने ही बनाए मापदण्डों पर कभी खुश कभी रोए से पर कभी न माने न जाने कि वो तो है सचमुच खोए से यहाँ तो बस है अहसास हर समय है कोई आसपास अन्दर बैठा कोई ही उस कोई को देखता अपनी ही छवि का प्रतिबिम्ब प्रतिरूप प्रतिछाया जब मन करे विश्राम उदास-सी रात में तो छाया कहाँ होती है आसपास में उस विश्राम में भी रहता भान है कि छाया अब नहीं विद्यमान है दीखता नहीं उसका रूप तो क्या है नहीं उसका स्वरूप मन न तू उदास हो न सोया न खोया कब हुई…

आ, अब लौट चलें

यही कहे मन पुकारे मन दूर हूँ बहुत मगर हूँ तो तेरी ही डोर से बँधी तेरे ही प्रेम में बिंधी जब हो मन रीता तो गुने गीता बना गुनावतार रज तम सत का और भी कितने अवतार जिएँ इस मन में गिन ही न पाए मन पर मन ही मन मुस्कुराए मन मन की अनन्त क्षमता पर असार संसार की समता पर खेल रहे तीन ही गुनों में सब बने कठपुतली डोरी के लम्बाई की सीमा तक बस लटके से धरती को छूने का धरती पर होने का भ्रम पाले से मतिभ्रम अपने अहम् के मोह के श्रम में जीवन को घाले से और देख रहा मन अवतारों का चक्षु बना सा बस यही गुनता-सा क्या बचेगा क्या रहेगा इनमें से छँटकर छनकर जो आवेगा काम प्रकृति की कृति मानव को और सँवारने के उपक्रम में गुनातीत के पराक्रम में सृष्टि की अनन्त यात्रा में पल-पल बनते बिगड़ते उठते…

विष्णु की विडम्बना : भाग- 2

जीवन से तप-तप कर जीना अपनों से मिल-मिल कर बिछुड़ना काम निकल जाने पर मुँह मोड़ना आराम से एक क्षण में दिल तोड़ना सब सिखा गया वैराग्य की नीति कर्म की रीति अन्तरमन के ज्ञान की भक्ति मोह माया की सत्य प्रेम प्रकाश में परिणति कोमा में सोए लोग क्यों टिके रहते हैं चिता पर जलते शव क्यों चुप रहते हैं जिसे जीवन ही चिता बन जलाए तपाए सताए वो ही तो रज तम सत सबसे परे ही परे जा पाए ऐसा ही आत्मावान मानव गुणातीत हो बोलने वाला शव विष्णु कहाए सबसे बड़े अंतिम सत्य को पाकर ही तो मानव शव होता है पर इस सबसे बड़े सत्य को पाकर जो लीला कर पाए वही… वही लीला पुरुष तो पूर्ण अवतार होता है अपनी लीलाओं से वो सबका मनोरंजन तो कर पाता है पर उसके सत्य का मौन कौन सुन पाता है हाँ सुन पाता है वही कोई अर्जुन…

विष्णु की विडम्बना

भाग- 1 पूर्णता के अवतार प्रतीक विष्णु की विडम्बना विष्णु की विडम्बना जाने मीना क्यों आते हो तुम बार-बार शापित होने जबकि शाप देने की कला तो तुमको आती ही नहीं फिर तुम कहाँ के सर्वकला सम्पूर्ण ओ जगदीश्वर वरदान देना मुँह से तुमने जाना ही नहीं तभी तो तुम्हारे अहम्, अस्तित्व को किसी ने माना ही नहीं दूसरे देते रहे वरदान बोल-बोलकर तुम करो कर्म अन्दर ही अन्दर तोलकर ब्रह्माण्ड से भोला भंडारी शिव तक ऋषि-मुनि तपस्वी योगी मानव देते रहें श्राप अपनी-अपनी सिद्धियों के भान में महाज्ञानी होने के अभिमान में और तुम करते रहो तपस्या बनने की करुणानिधान भक्तवत्सल महान बार-बार आकर धरती के मैदान में रखते हो सदा मान ब्रह्माण्ड शिव के वरदानों का करते हो सदा ध्यान पूर्णता के विधानों का श्रापों को बनाकर सहारा वरदानों का पकड़ किनारा कर्म भुगतवाने का ढूँढ़ो बहाना सारे जोड़-जोड़ बिठाना श्रापों वरदानों दोनों को ही सजाना बने हुए…

दर्द का सलीब

मैंने सबका सलीब ढोया है मैंने सबका दर्द भोगा है पूरा का पूरा तुम लोगों ने तो टुकड़ों-टुकड़ों में भोगा है सिर्फ एक-दो तरह का मैंने हर तरह का दर्द भोगा है सबका सलीब ढोया है मैं तुम सबका दर्द जानती हूँ…हूँ न इसलिए कि जो ऊँ तुम्हारे अन्दर है वही तो मेरे अन्दर भी है तुमसे मिल गया है समा गया है समाहित होकर ही जाना जा सकता है कि तुम तो वही हो जो मैं हूँ और ना मैं हूँ न तुम हो… अब वो ही वो तो है वही तो है केवल सच सिर्फ सच मेरा तुम्हारा सबका सच प्यार से प्यारा सच बस सच ही सच जिसे सिर्फ शत-प्रतिशत पूर्णरूप से सच होकर ही जाना जा सकता है पाया जा सकता है ढूँढ़ना नहीं है ढूँढ़ना नहीं होता बस पाना होता है यही सत्य है - यहीं सत्य है !! प्रणाम मीना ऊँ