गुरु

सही गुरु या जो आपका गुरु होगा सही मायनों में वो कभी आपका साथ नहींं छोड़ेगा क्योंकि यह युग-युगांतर का साथ है। यदि साथ छूट जाए तो वह आपका गुरु नहीं। पर इसका यह अर्थ नहीं की वह गुरू ही नहीं। कुछ गुरु समय-समय पर अपना-अपना काम कर आपसे बिछुड़ते जाते हैं पर उनका अपना योगदान होता है। उनका अपना महत्व होता है, क्योंकि वो उस सीढ़ी का एक पाया बन जाते हैं जो उत्थान की ओर जाती है। उनका धन्यवाद जैसे यदि पहली दूसरी कक्षाओं के गुरु न होते तो बच्चा ऊपरी कक्षाओं में कैसे आता। वैसे तो जीवन में जो आता है गुरु होता है कुछ न कुछ सिखा ही जाता है। सबका अपना-अपना गुरु अवश्य होता है। ऐसे ही सबका अपना-अपना शिष्य भी होता है जो अपने-अपने गुरु का कार्य आगे बढ़ाता है पर होता है यह सम्बन्ध अविनाशी। यह आवश्यक नहींं कि गुरु साकार ही हो।…

मैं कौन हूँ, कुछ भी नहीं

सारी सृष्टि प्रभु का आँगन, खेलूँ वही जो वो खिलवाए जब मैं था तो हरि नहीं अब तो हरि ही हरि हैं मैं कहाँ वो ही वो है सर्वत्र मेरी इच्छा उसकी इच्छा उसकी इच्छा मेरी इच्छा प्रभु कृपा महान एक ऐसा पोला बाँस बना दिया सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध स्थापन कराए बाँटूं जो वो बँटवाए जहाँ बँटवाए, जिसमें सभी देवी-देवता अवतार आवागमन आना-जाना रखते हैं समय की आवश्यकतानुसार या लेने वाला जो सामने माध्यम है उसी के अनुसार ज्ञान देवें प्रभु अब तो मेरा कुछ भी नहीं जो बुलवाता है बोल देती हूँ जो दिखाता है देखती हूँ सामने वाले को जो चाहिए ये वो ही जानता है मेरे द्वारा वो ही भेजता है। मेरा पूरा का पूरा शरीर उसी परम की सेवा में लगा लिया प्रभु ने की कृृपा महान शरीर मेरा रिमोट नियंत्रण प्रभु का। सामने वाले की ट्यूनिंग, समस्वरित है तो पकड़ ही लेगा सही तरंगें,…

अहम्

छोटे-छोटे अहम् पाल अपनी छवि से स्वयं संतप्त होता है मानव। छोटे-छोटे झूठ अहम् के ही रूप हैं। अपनी प्रत्येक कला को ज्ञान को इस सम्पूर्णता तक ले आना कि अहम् अहम्ब्रह्म हो जाए और फिर अहम् ब्रह्मास्मि वाली स्थिति तक पहुँचकर भी उस अहम् ब्रह्मास्मि में भी रमना ना हो। उसका भी अहम् त्यागकर प्रभुमय हो यह कामना करना कि सब जन कष्टरहित हों सुखी हों...ऊँ यही परम धर्म हैपरमानन्द है अपने सबसे बड़े शत्रु अहम् का नाश करने की शक्ति जगाने का जतन कर मानव!इस अहम् में ''मैं'' कहीं नहीं उसमें उसका ''मैं'' का कोई स्थान नहीं इस परम अहम् में सब वो ही वो है वो ही है सर्वशक्तिमान जो तू हैयही है अहम् का सत्यरूप प्रणाम मीना ऊँ

प्रभु दर्शन

जब एक प्रेम पूरित श्रद्धालु का हृदय चीत्कार कर उठता है घोर अन्याय के विरुद्ध। पर नितांत असहाय होने के कारण सिर्फ अश्रु ही बहा सकता है। यही अविरल अश्रुधारा प्रभु दर्शन करा देती है। अविरल अश्रुधारा गंगाधार के समान सब पाप धो देती है और पवित्र हुआ निर्मल मन प्रभु को पा लेता है। दर्शन बड़ा व्यापक और गूढ़ अर्थवादी शब्द है। ज्ञान त्याग और संयम की सत्यता स्थापित करने को अंतर्मन में प्रभु का प्रकाश फैल जाता है, धर्म की स्थापना होती है। संतों को जब कोई रास्ता सुझाई नहीं देता, कोई बाहरी सहायता की आस नहीं रहती, सब रास्ते बंद हो जाते हैं, घोर अंधकार ही अंधकार छा जाता है तो जागरण होता है। सही मार्ग पर चलने वाले को जब बाहरी तत्वों से असुरक्षा उत्पन्न हो जाती है तो सही, सत्य धर्म और नियम पर चलने वाले की आस्था को डगमगाने से बचाने के लिए स्वयं…

छवि

ये छवि क्या है ! अहम् से उत्पन्न व्यक्तित्व का प्रदर्शन। लोगों को औरों के सामने अपनी छवि की इतनी चिंता क्यों रहती है! अपने रिश्तेदारों के सामने अपने दोस्तों के सामने अपने कार्यक्षेत्र में सम्पर्क में आए लोगों के सामने। कोई क्या कहेगा छवि न खराब हो जाए, यही चिंता रहती है। जितना ही प्रयत्न करता है जितनी ही चिंता करता है मूर्ख मानव, उतनी ही छवि की चिंदी चिंदी उड़ जाती है। जब ज़रा सी बनावट से कसी जिंदगी में ढील आ जाती है तो… तो… तो क्या बचता है! कुंठाग्रस्त जीवन तनावपूर्ण जीवन रोगी जीवन-विषाद असंतुष्टि तनाव और जीवन को अजीर्ण करने वाली व्याधियाँ। यही सब कुछ छवि को बचाते-बचाते, दूसरों की कसौटी पर खरे उतरने की मूर्खतापूर्ण चेष्टाओं की भूलभुलैया में वास्तविक आनन्द से दूर बहुत दूर हो जाता है बनावट की जि़दगी उधार की जि़दगी दूसरों से मनवाई हुई जि़दगी जीते-जीते मूर्ख मानव ! अरे…

सुधार

किसी की आलोचना करने का आपको कोई अधिकार नहीं यदि सुधार करने की शक्ति या उपाय आपके पास नहीं है,या आपमें भी उस बुराई का कुछ अंश है। सदैव दूसरों की कमियाँ देखना बखानना अपनी असफलताओं के लिए कष्ट के लिए अपने व्यवहार के लिए दूसरों पर दोषारोपण करना आपके अपने अंत:करण में व्याप्त ग्रंथियों का ही परिणाम है। ऐसा व्यक्ति कई बार अपने जीवन में आई बसंती बहार सुधार की गंगाधार और उन्नत विचार से स्वत: ही अपने को दूर कर लेता है। पर चक्रव्यूह तोड़ने के चक्कर में और ही और फँसता ही जाता है। वह सोचता है चक्रव्यूह तोड़ना उसके वश में है पर नहीं, प्रत्येक व्यक्ति अपने वातावरण से पाए गए ज्ञान का ही प्रयोग करता है। परिणाम घुस तो गए निकल नहीं पाए अभिमन्यु की तरह। निकलना तो नियति के हाथ है। नियति! नीति सही नीति, सत्यमयी नीति, अंतरात्मा की नीति जो सत्यमयी प्रेममयी क्षमामयी…

कर्म चक्र

कर्मचक्र पूरा करना ही होता है पूरा खाली होने के लिए, परमानन्द पाने के लिए सदा मन में ध्यान रहे- जो कुछ भी आप मन वाणी व कर्म द्वारा ब्रह्माण्ड में उछालते हैं वही हज़ार गुणा बढ़कर वापिस आएगा। यही प्रारब्ध है भाग्य है। जो व्यक्ति अपने कर्मफल से मुक्त हो चुका हो वही सच्चा माध्यम, हीलर हो सकता है औरों को कर्मों से मुक्त कराने, प्रेम करुणा और सेवा का सहयोग देकर। कर्म जो तुमने किया वह तो तुम्हें वापिस मिलेगा ही उसको सहने की झेलने की शक्ति सही माध्यम ही दे सकता है या फिर स्वयं तपस्या करके शक्ति पाकर सब कर्मों का फल भस्म कर देने का पूरा उद्यम किया जाए। यह बहुत लंबा व कठिन रास्ता है। तभी तो सत्संग का महत्व है और यह प्रभु की करुणा से ही होता है। जब पूरे मन से सहायता के लिए चीत्कार उठता है- सहायता आपके सामने सही…

प्रभु की अदालत

प्रभु की अदालत में कोई खरीदा हुआ वकील न होगा। अपनी बहस खुद ही करनी पड़ेगी। मन ही प्रभु है बुद्धि वकील, संसार कर्मभूमिझूठ को सच साबित करने वाला कोई भी किराए का वकील नहीं होता, इस अदालत में सच्चे दरबार में। मन की अदालत - झूठ का कोई काम नहीं वहाँ! प्रभु की अदालत - यहाँ सच्चा ही मुकदमा जीतता है यही सत्य है !! प्रणाम मीना ऊँ

अवचेतन मन

कितना अद्भुत असीम अपरिमित है यह अवचेतन मन - सब जानता है देखता है और एक कुशल पुस्तकालय वाचक की तरह सृष्टि के सारे के सारे रिकार्ड रखता है। सदा संभालकर रखता सारी विकृतियाँ सारी स्मृतियाँ विश्व की सबसे बड़ी और सबसे सूक्ष्म लाइब्रेरी यहीं तो है भण्डार चित्रों की घटनाओं का रंगों का, पाप पुण्य के लेखों काजन्मों का जन्मान्तरों का कुछ भी छुपा नहीं इससे सब अंकित है इस अवचेतन मन पर सम्पूर्ण जीवन व्यवहार क्रियाएँ प्रतिक्रियाएँ सभी परिणाम निर्भर इसी पर लेकिन चतुर वही चेतन मन चतुर वही चेतन मन जो सही क्षण पर सही संदर्भ का ज्ञान लेकर होता संभवामि युगे युगे यही है सत्य !! प्रणाम मीना ऊँ

दिव्यता

दिव्यता पाने की कोई तकनीक नहीं। सब अपने-अपने हिसाब से बाहर ढूँढ़ते हैं कोई ऐसी जादुई विद्या जो एकदम ऊपर पहुँचा दे पूर्ण ज्ञान दे दे पूर्णता दे दे पूर्ण आनन्द दे दे। जिन्होंने यह आनन्द पाया भी है, वो भी पूरा नहीं समझा सके और जैसे उन्होंने पाया अगर बता भी दिया तो वो उनका अपना ही तरीका है। जब तक पुस्तकें लिखी जाती हैं छपती हैं समय आगे बढ़ चुका होता है। पुस्तकों से तकनीकों से सत्यता की पुष्टि होती है सत्यता की मोहर लगती है बस, सत्य मिलता नहीं है। सत्य मिलता है अपने ही पुरुषार्थ से एक निश्चय वाली बुद्धि से सांसारिक उत्तरदायित्वोंं दुखों के और होते हुए भी स्पष्ट चेतना से किसी के ना कटघरे में होना ना ही कोई नकारात्मकता पूर्ण सकारात्मकता ही मार्ग है। यही सत्य है !! प्रणाम मीना ऊँ