स्वर्ग सम जीवन

हे मानव ! कहां ढूंढ़ता है तू स्वर्ग। बड़ी प्रबल है तेरी स्वर्ग की इच्छा चाहे मर के मिले बस पाना ही है। तेरे काल्पनिक स्वर्गसम जीवन से अपेक्षाओं की कमी नहीं। एक दिवास्वप्न जैसी भ्रमित करने वाली मृगमरीचिका। अरे प्रभु ने तुझे वह सब क्षमताएं प्रदान की हैं जिससे तू अपने व अपने सम्पर्क में आने वाले सभी जीवों के लिए स्वर्गसम वातावरण उत्पन्न कर सकता है। अपना स्वर्ग आप बना सकता है तो उठ अज्ञान की निद्रा से जाग पूरे पुरुषार्थ से कर्मरत हो जा। धरा को स्वर्ग बनाने की प्रक्रिया पहले अपने चारों ओर स्वर्ग बनाने से ही आरम्भ होगी। प्रणाम बताए स्वर्ग सम जीवन की साधना का विधान :-- सर्वोत्तम साधना : ध्यान योग व स्वाध्याय योग- शिक्षा व ज्ञान की सच्ची सेवा संस्कार दान व माँ शारदे की विभूतियों-सत्य कर्म व प्रकाश का प्रसार - सर्वोत्तम कर्म- प्रेममय प्राणों का विस्तार स्वर्गिक वातावरण की पहचान…

सुसंस्कारित होओ

हे मानव ! अपने को व अपने स्वभाव को जानकर अपने ऊपर काम करने की तपस्या कर यही सच्ची साधना है। बचपन से ही कुछ आदतें स्वभाव रूप में ढल जाती हैं और जाने-अनजाने ही मानव इसी स्वभाव के अनुसार अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ व्यवहार करता है। इसका प्रभाव क्या होगा इसका उसे तनिक भी भान नहीं हो पाता। अधिकतर इन आदतों और इन संस्कारों का कारण माता-पिता और सम्पर्क में आने वाले सम्बन्धी ही होते हैं। इन आदतों में प्रमुख हैं- - दूसरों का पक्ष न समझना no consideration - दूसरों के लिए विचारशील, संवेदनशील न होना no concern - दूसरों के लिए करुणा का अभाव no compassion - नखरे दिखाना snobbish - दूसरों से क्या लाभ मिल सकता है सदा यही सोचना selfish - दूसरों के लिए त्याग या प्रयत्न का नितांत अभाव! no effort for adjustment no sacrifice - किसी भी तरह दूसरों पर…

अज्ञान व अचेतनता की निद्रा से जाग

हे मानव !आत्म-मंथन कर महामंथन प्रारम्भ हो चुका है। सम्पूर्ण सृष्टि के महासागर में भयंकर उथल-पुथल मची है। मानव के रूपान्तरण का समय आ ही पहुँचा है। सच और झूठ की खोज में सदियों से भटक-भटक कर अब मानव इतना तो समझ ही गया है कि सत्य को उसे अपना अंतर्मन मथ-मथ कर ही खोजना है। सत्य की वास्तविकता तक पहुँचना है। जो प्रभुता का बीज तेरे अंदर सोया हुआ है जिसमें प्रभु होने की संभावना छुपी है उसे ही सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश की उर्वरा शक्ति देकर प्रस्फुटित करना है। इसके लिए बहु प्रचारित शब्दों सत्य प्रेम कर्म ज्ञान भक्ति मोक्ष निर्वाण आदि-आदि का सच्चा अर्थ सही संदर्भ में समझना होगा। विशेषकर सत्य प्रेम व कर्म का सही अर्थ समझकर साधना करनी होगी, अपने आप पर सत्यता से कर्म करना होगा। यही है समुद्र मंथन की प्रतीकात्मक कथा का सार तत्व। जब अरणि-सूखी लकड़ियों का घर्षण तीव्र वेग…

सब समस्याओं का मूल

हे मानव !सारी समस्याओं की जड़ है कलुषित, स्वार्थी मानसिकता और अकल्याणकारी अशुभ भाव। जुगाड़ व तकनीक से अपना स्वार्थ साधने की कला में पारंगत होने को ही मानव ने समझदारी व विवेक समझ लिया है। इस सबको सुधारने हेतु सत्यमय कर्मठ और ज्ञानमय विवेकी उदाहरण स्वरूप सही मानव का संग व दिशा निर्देश चाहिए न कि विकृत नेतागीरी, दंभपूर्ण लंबे-लंबे प्रवचन या धन दौलत के नशे में चूर, खरीदारों की भीड़ और बिकने वालों की लंबी-सूची! वैज्ञानिकों ने विज्ञान द्वारा समस्त सुविधाएं दीं पर उनके सदुपयोग की सही मानसिकता नहीं दी। दर्शनशास्त्रियों ने केवल ताॢकक बुद्धि और विकसित कर दी। दायित्व निभाने की कर्मठता नहीं समझाई। साहित्यकारों व लेखकों ने लेखन की समरसता व शब्द विलास की क्रीड़ा ही पाल ली क्रांति जगाने का पुरुषार्थ या दिशा निर्देश की प्रेरणा नहीं। प्रचार माध्यम ने भी व्यापारिकता को, सत्यकर्मों को सामने लाने की अपेक्षा अधिक महत्व दिया। वेदों पुराणों व…

सृष्टि की गणना

हे मानव !ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण व्यवस्था का सम्पूर्णता से संचालन प्रकृति के शाश्वत नियमों द्वारा ही हो रहा है। इन नियमों के विपरीत जाकर अपने कर्मों और भाग्य को दोष देना बन्द कर। सारी सृष्टि के साथ लयमान लयात्मक व गतिमान होने हेतु दिव्य प्रकृति के नियमानुसार चलना ही होगा। यही सच्चा धर्म है। जो दिव्यता और प्रभु की ओर ले जाएगा। प्रभु बना प्रभु से मिलाएगा। सृष्टि की गणना में ही पूर्ण ज्ञान समाया है। उसे ही तो जानना समझना गुनना व जीना है जो पूर्णता की ओर ले जाएगा। तब यह प्रश्न ही मिट जाएगा भगवान क्या है कौन है कहाँ है। सभी संशय व द्वंद्व मिट जाएँगे। मानव अस्तित्व का रहस्य उजागर हो जाएगा। ० शून्य- ब्रह्माण्डाकार सबका स्रोत अनन्य, पूर्णतया कर्ताभाव व अहंकार भाव रहित। 1. एक - एक केवल एक ही सत्य-सत्य। एक ओंकार एक ही परम शक्ति वान ईश्वरीय सत्ता एकात्मकता। 2. दो -…

प्रकृति का संविधान

हे मानव !ऊर्जा का सत्यमय खेल पहचान उसका ज्ञान विज्ञान व प्रभाव जानकर अपने ऊपर काम कर। सत्य पवित्र और शक्तिमान ऊर्जा की उसके आभामंडल की तो तुझे खूब पहचान हो गई है, पर उसके साथ न्याय कैसे करना है यह भी तो जान, इसका सटीक विधान भी तो समझ। ''ऊँ'' ब्रह्माण्डीय नाद से एकत्व का, ''गायत्री'' मंत्र का व ग्रहों नक्षत्रीय ऊर्जाओं व शक्तियों के आह्वान के मंत्रों के स्पन्दनों का वो महती तत्व जान जिनसे पोषित हों प्राण। जहाँ से ऊर्जा लेता है उसके गुणों का चिन्तन मनन व ध्यान भी तो कर। अपनी बुद्धि व प्रवृत्ति के कीटाणु मिलाने का मोह त्याग। परम से प्रवाहित नि:शब्द, नित्य निरन्तर प्रवाह के साथ-साथ बहना ही नियति है तेरी, उसी में छुपी है सद्गति तेरी। मनुर्भव : सही मानव बन सुमनाभव : सही मानसिकता जगा सरस्वन्तम हवामहे : समस्वरित हो एकत्व जगा मानवो मानवम पातु : मानव मानव को पोषित…

मुखरित हो मौन

अपने आप से कुछ बातहे मानव! प्रणाम में बहुत लोग आते हैं सुनते हैं गुनते हैं। कुछ लोग तो सालों से साथ हैं सीखते हैं समझते हैं बार-बार प्रश्न करते ही रहते हैं। बहुत अच्छा है। प्रणाम में उनका विश्वास भी है, आसपास रहते हैं, पूरी ऊर्जा लेते हैं। अपना काम सांसारी भी करते हैं, प्रणाम का भी कार्य करते रहते हैं। खूब ज्ञान-ध्यान लेते हैं बुद्धियों की तुष्टि, बुद्धि विलास में रमते ही रहते हैं। अपने अनुभव से प्रणाम का सच खूब समझते हैं प्रणाम को सही भी मानते हैं। अपने को जानकर अपना रूपान्तरण भी चाहते हैं, बहुत आदर मान भी दिखाते हैं, पर मन बहुत उदास सा हो जाता है कभी-कभी। मन का एक कोना बहुत रीता-रीता सा है मेरा। सबके बहुत से प्रश्न होते हैं-कभी भी ना खत्म होने वाले प्रश्न। जिनके उत्तर बस देते ही रहो। अपने पर काम करके जीकर उत्तर लेने का उद्यम…

पर्यावरण संवर्धन

हे मानव !तू प्रकृति बचाने की, पर्यावरण संवर्धन की बड़ी-बड़ी बातें करता है। वातानुकूलित कमरों में अपार धन फूंककर गोष्ठियों और सभाओं का आयोजन करने का दिखावा खूब कर रहा है। इन सेमीनारों का प्रदूषण कौन सम्भालेगा! बौद्धिक कचरा, खाने-पीने की व्यवस्था का कूड़़ा और कितने ही कागज फू ल-मालाएँ, दुनियाभर का तामझाम और माइक्रोफोन का शोर-शराबा। जितनी बड़ी पद-पदवियाँ, जितनी ऊँची पहुँच उतना ही बड़ा सेमीनार। इन सबसेे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। जब तक तू अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति सही नहीं करेगा, अपना आन्तरिक प्रदूषण साफ नहीं करेगा, हर समस्या को सेमीनार और गोष्ठियों में सीमित कर अपना ही अहम् तुष्ट करने की नहीं सोचेगा, पहले स्वयं पर काम करने का उद्यम नहीं करेगा, बाहर से किसी भी समस्या का समाधान कभी भी पूर्णतया नहीं हो सकता तब तक मानव यह नहीं समझेगा कि बाहर जो कुछ भी घटित होता है उसका कारण, बीज उसके अन्दर…

ऊँ शान्ति शान्ति शान्ति ऊँ सम्पूर्ण विश्व शान्तिमय हो

हे मानव ! शान्ति वो नहीं है जो प्रमाद है आलस्य है अकर्मण्यता है या अज्ञान की वो निद्रा जिसमें अपना सत्य भुला दिया जाए। चारों ओर से बेखबर अचैतन्य, अपनी कर्महीनता में निमग्न, आत्मा की आवाज़ से अनजान, बेपरवाह और ढीठपन की हद तक सुस्ती-सी व्यापी रहे जिसे तुम भूल से मस्ती-सी भी मान लेते हो। सच्ची शान्ति वो है जो परमशक्ति का स्रोत है, आन्तरिक जागृति का प्रमाण है, अन्धकार की समस्त सीमाओं को लाँघकर परम प्रकाश का आलिंगन है। अनन्त व्योम शान्ति से योग-मिलन का सुखद प्रसाद है। इसी शान्ति तत्व को जानकर पहचानकर धारण करना होता है। हे मानव ! ऐसी ही परम शान्ति लाओ तन मन में शान्ति बिखेरो अपने अणु-अणु में शान्ति फैलाओ जग में पूर्ण शान्तिधारक ही शान्ति प्रसार का माध्यम बन सकता है। शान्ति और प्रकाश के स्तम्भ बन सत्य और प्रेम की किरणें विस्तीर्ण करने के लिए ही तो आया है…

अन्तरात्मा की आवाज सुन कर्मरत होओ

हरिओउम् तत्सत्हे मानव!अब समय आया है चैतन्यता एवं जागरूकता पर काम करने का। चैतन्यता की पहचान है अपने अन्दर झांककर बिल्कुल शून्य होकर आवाज सुनो बाह्य चैतन्यता से मुक्त होकर। अभी मन, बुद्घि, चैतन्यता की आवाज में अन्तर करना मानव भूल गया है। सदियों से सोई हुई आत्मा की आवाज (युग चेतना की आवाज) को जगाने की साधना का समय प्रारम्भ हो गया है। जब आप पूर्णतया शान्त हैं अर्थात निर्लिप्त होकर अर्न्ततम् स्थिति तक पहुंचते हैं तब जो प्रतिध्वनित हो वही आत्मा की आवाज है। फिर भी मानव यह नहीं समझ पाता कि यह मन बुद्घि की आवाज है या आत्मा की आवाज है। इसके लिए आरम्भ में कुछ कठिन साधना करनी होगी जब लगे आपके अन्दर से कुछ सन्देश व निर्देश उठे हैं तो उनको ब्रह्मवाक्य समझकर उनका पालन करो इस प्रकार पालन करने पर यदि वह विवेक जगाते हैं वातावरण शुद्घ व आनन्दमय बनाते हैं तथा आपको…