वाणी बने गीता

गीता को कहते हैं कि स्वयं भगवान के मुख से निकली वाणी है। यह सत्य इसलिए है कि उसमें न तो प्रवचन है न कोई उदाहरण है न कोई रुचिकर कहानियाँ। बस प्रश्नों के सीधे-सीधे सटीक उत्तर हैं जो श्रीकृष्ण ने जि़न्दगी से सीखकर बताए हैं। वो जि़न्दगी जो वेदों व उपनिषदों के ज्ञान पर आधारित थी। तो आज सबको समझना जरूरी है कि अगर गीता के अनुसार जीवन जिया जाए तभी तो कुछ और प्रश्न बनेंगे और उन्हीं के उत्तरों से गीता में भी कुछ जुड़ जाएगा आज की गीता बनने के लिए। अभी तो लोग पाँच हजार साल बाद भी गीता ही नहीं समझ पा रहे हैं और जो थोड़ा-बहुत समझे भी तो उसके अनुसार जी ही नहीं रहे तो बात आगे कैसे बढ़ेगी। गीता को पूरा समझने व जानने के बाद कुछ और समझने-बूझने को बाकी रह ही नहीं जाता। गीता तो सही जीवन जीने का विज्ञान…

अपने अस्तित्व का ज्ञान-2

हे मानव, अपने को जान। कैसे जानेगा यह तो तभी जान पाएगा जब यह समझेगा कि जानने योग्य क्या है। यही आन्तरिक यात्रा का आरम्भ है जिसका आधार केवल सही ध्यान ही है। अपने शारीरिक मानसिक व आत्मिक अस्तित्व केसत्य का ज्ञान, शारीरिक क्रियाओं मानसिक प्रक्रियाओं और आत्मिक उर्जाओं का ज्ञान, उनका आपसी सम्बन्ध, एक दूसरे पर प्रभाव, उनका ब्रह्माण्ड प्रकृति व वातावरण से सम्बन्ध। यही सब जानने योग्य है इसी हेतु मानव जन्म पाया। इन सबका सत्य जानने पर तो ही जान पाएगा कि तेरा ध्येय इस धरती पर क्या है? इस सृष्टि को तेरा योगदान क्या है? सीखे जाने व पढ़़े हुए ज्ञान का ज्ञान भी तो जानना होगा। पाए ज्ञान को जीकर अनुभव से उसका सार तत्व जानना उसका ज्ञान पा लेना ही ज्ञान का ज्ञान जानना है और जो उपरोक्त सभी विधाओं का कर्ताकारण है सब जानता देखता समझता है। पूर्ण व्यवस्था का संचालक है, पूर्ण…

अपने अस्तित्व का ज्ञान

मैं यहॉं क्यों हूँ क्यों आए हो तुम यहॉं क्यों हो तुम यहॉं यही तो जानना है यही जानने योग्य है सभी उस परम सत्ता-परम चैतन्य सत्ता के कर्ता कारण हैं। सभी उस परम की उर्जा शक्ति से संचालित हैं। उस परम शक्ति की बोधि - of supreme परम बोधि - supreme intelligence जो भली भॉंति जानते हैं कि तुम कितने पावर के बल्ब हो तो उसी हिसाब से उतना ही तुम्हें प्रदान करते हैं जितना तुम्हारे शरीर यंत्र के लिए ठीक है अपेक्षित है। अपने शरीर यंत्र की शुद्धि कर च्रकों का सन्तुलन कर उत्थान कर उसकी क्षमता बढ़ानी होती है यदि अधिक उर्जा का प्रवाह परम स्रोत से आकर्षित करना या खींचना है तो अपना शरीर यंत्र समस्वरित, tune, किए वगैर बाह्य उपकरणों उपायों या तकनीकों से परम उर्जा पवित्रता उर्जा खीचनें का प्रयत्न विनाशकारी भी हो सकता है। इसलिए अपना ज्ञान विज्ञान ही ठीक है जो तुम्हारी…

आत्मिक उत्थान चाहने वालों का सत्य

जो आत्मिक उत्थान चाहता है 'एक निश्चय वाली बुद्धि से' वह कोई बिरला ही होता है, प्रकृति का चुनाव होता है। वरना तो सब अर्जुन की भांति अपने-अपने संसारी लक्ष्यों पर ध्यान लगाए किसी ऐसे गुरु की खोज में रहते हैं जो उनका दिल भी बहलाया करे खूब मनोरंजन करे और शान्ति भी दे। उससे कुछ विशेष अपेक्षा भी न रखे वो ही अपने गुरु से सब अपेक्षाएँ रखें। पहला, पुराना दिया हुआ गुण, पाठ जीकर याद न करने पर भी उन्हें उनके सारे प्रश्नों के उत्तर देता जाए उनका ज्ञानकोष बढ़ता जाए साथ-साथ ज्ञानी होने का दम्भ भी बढ़ता जाए । अर्जुन भी प्रश्न पर प्रश्न पूछता ही गया जब तक श्रीकृष्ण ने समस्त जीवन का सार न दे दिया। उसने भी बाद में गीता के अनुसार जीवन कहाँ जीया। जीत जाने के बाद न तो गीता को आत्मसात् कर जीवन में उतारा और न ही गीता के सत्य…

आत्मज्ञान मुक्ति का मर्म

आत्मिक शक्ति ही शान्ति का आधार है, सतत् साधना ही मुक्ति का द्वार है। एक सत्यमय आत्मवान अपनी युगानुसार प्राप्त दूरदृष्टि Vision, हेतु ही जीवन जीता है और समयानुसार मृत्यु का भी वरण कर लेता है। पर उसकी उस सत्यमयी दूरदृष्टि के उद्यम व पुरुषार्थ का उसके शरीर केसाथ अन्त नहीं हो जाता। उसके शरीरान्त के उपरांत वह दूरदृष्टि हज़ारों आकारों में अवतरित होती है और उसके द्वारा धारण ध्येय को आगे बढ़ाने हेतु यह क्रम चलता रहता है जब तक उसको पूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती। यही है सृष्टि का शाश्वत नियम कि उत्थान प्रक्रिया को सदा सत्य व पूर्णता की ओर उन्मुख करना और उसकी पूर्णता हेतु समयानुसार संयोग जुटाते रहना। सारे सांसारिक कर्मों का हिसाब-किताब तो शरीर केसाथ ही समाप्त हो जाता है। बचता है केवल, मानव ने जहाँ तक उन कर्मों के साथ अन्त तक प्रगति उन्नति या उत्थान किया, वही उत्थान वाला भाव बीज या…

अर्धनारीश्वर विपरीत ऊर्जाओं का सौन्दर्यमय समन्वय

इस अद्भुत सत्य को किस प्रकार विद्रूपता का आवरण डालकर गरमागरम बेचने योग्य पदार्थ बनाया जा सकता है, इसका प्रमाण मिला जब कुछ वर्ष पहले अर्धनारीश्वर रूप, Androgyne, पुस्तक विमोचन के बारे में व उस पुस्तक के कुछ उद्धृत अंशों को पढ़ा। जिससे पुस्तक का आशय समझा कुछ हद तक। ऐसा लगा कि भारत की सर्वोच्च वेद-संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाने में पाश्चात्य सभ्यता की कुछ कुरीतियों में आकंठ डूबे अधकचरे बुद्धिजीवी सतही व ओछे प्रचार के लोभ में किस हद तक पतन के गर्त में डूब सकते हैं। समलैंगिक विकृत लैंगिकता व अप्राकृतिक विधियों से इंद्रिय तृप्ति सुख लूटने की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए प्रतीकात्मक शक्तिरूपों के आत्मानुभूत ज्ञान को घृणित कामवासना के स्तर पर ला पटकते हैं। क्या स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं ये प्रचार के भूखे, अप्राकृतिक व अनैतिक नर-नारी सम्बन्धों को उत्कृष्ट मानव संरचना का ज्ञान देने वाली प्रतीकात्मकता के साथ जोड़कर। प्रत्येक दिव्य विभूतियों के…

आध्यात्मिक मानव और यांत्रिक समाज Spiritual Man and Digital Society

विज्ञान के उत्थान ने निसंदेह जीवन को अत्यंत सुविधाजनक बनाया है। सम्पर्कों, सूचनाओं और प्रसारों को नए-नए आयाम दिए हैं। बहुत से साधन जुटा दिए हैं पर साथ-साथ कुछ समस्याएं भी खड़ी कर दीं हैं। प्रत्येक वस्तु के विवेकशील उपयोग से सहायता मिलती है और अंधाधुंध विवेकहीन उपयोग से या अनुकरण से हानि की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती हैं। इसके लिए यह समझना बहुत जरूरी है कि केवल भौतिकता या भोगवाद ही मानव के सौंदर्यमय सहअस्तित्व के लिए पर्याप्त नहीं। कुछ मुख्य समस्याएं जो आज के मशीनी, याँत्रिक, समाज को ग्रसित कर रही है वह हैं:-निर्भरता : पुरुषार्थ की कमी, कर्महीनता, संवेदनशीलता की कमी, अपना ही सोचना, अपने बनाए हुए चक्रव्यूहों में ही घूमते रहना।असंतुलित स्वास्थ्य : शरीर के प्राकृतिक प्रवाह से छेड़छाड़। तनाव बेचैनी आंखें व त्वचा प्रभावित शरीर का त्रुटिपूर्ण झुकाव या मुड़ाव मानसिक द्वन्द आदि-आदि।भाषा व साहित्य के सौंदर्य में कमी : यहाँ तक कि सही व…

अप्राकृतिक जीवन प्रकृति को कदापि मान्य नहीं, अमान्य शरीर कर्म

आज के युग की समस्याओं से जूझने वाले जुझारू मानवों का नितान्त अभाव। सब ओर आरामतलबी और उदासीनता-सी छाई है कि हमें क्या हमारा काम हो जाए भाड़ में। केवल बौद्धिकता से उछाले शब्दों व वाद-विवाद से प्रत्येक विसंगति को उचित ठहराने में ही कुशलता मानी जा रही है। कलियुग में सबकी बुद्धियों का इतना विकास हो गया है कि समस्याएँ तो खूब गिना सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थान, NGO, बनाकर सेमीनार, Seminar, गोष्ठियाँ प्रदर्शन आदि कर धन समय और कागज तो खूब बरबाद कर सकते हैं पर सही समाधान जानकर उसे सही ढंग से लागू कर उचित मार्गदर्शन देने वाले न के बराबर हैं। और जो हैं भी उनकी सहायता को ना तो कोई आगे आता है और ना ही उनकी पूरी बात को कोई प्रचार माध्यम ही प्रसारित करता है। केवल चटपटी मसालेदार बातों का प्रचार ही प्रचार और उसमें भी व्यक्तिगत लाभ ही प्रमुख हो गया है। प्रत्येक…

अहम् जरूरतमंद है आत्मा नहीं

अहम् है जो तुम हो अपने को वही जानना और मानना तथा विश्वास भी करना। अहम् का उपयोग उत्थान के लिए आधारभूत शक्ति में करना है न कि कर्तापन के दम्भ व अहंकार में। जब प्रमाद आलस्य दुख संताप क्रोध विषाद हिंसा आदि स्थितियाँ हम पर हावी रहती हैैं तब हम अपनी स्वाभाविक स्थिति में नहीं रहते, कोई और स्व हमारे स्वयं के सत्य और दिव्यता के बीच होता है। यही कोई और स्व ही अहम् है। अहम् एक दुर्बलता है, उत्थान को सीमित करता है और रुकावटें पैदा करता है। अहम् सदा दूसरों की स्वीकृति चाहता है और इस प्रकार की अहम् तुष्टि में बहुत ऊर्जा व्यय होती है। जो मानव आत्मा के ही गुणों में रमक र आत्मा की ही विभूतियों के अनुसार जीता है वो केवल ब्रह्माण्डीय विस्तार के लिए जीता है और प्रकृति की तरह बदले में कुछ लेने की भावना से रहित हो अपने को…

क्यों आए हो तुम यहाँ सबको सत्य कर्म व प्रेम के प्रकाश से प्रकाशित करने

तुम यहाँ क्यों हो? मैं यहाँ क्यों हूँ? क्यों आए हो तुम यहाँ? यही तो जानना है जानने योग्य है। हम सभी उस परम चैतन्य सत्ता के कर्ता कारण हैं। सभी उसी परम की ऊर्जा शक्ति से संचालित हैं। उस परम शक्ति की परम बोधि, Supreme Intelligence, यह अच्छी तरह जानती है कि तुम कितनी पावर के बल्व हो इसलिए उतनी ही ऊर्जा तुम्हें प्रदान करती है जितनी तुम्हारे शरीर यंत्र के लिए ठीक है अपेक्षित है। अपने शरीर यंत्र की शुद्धि कर चक्रों का सन्तुलन कर उत्थान करकेउसकी क्षमता बढ़ानी होती है यदि अधिक ऊर्जा का प्रवाह परम स्रोत से आकर्षित करना है तो अपना शरीर यंत्र ट्यून tune, किए बगैर तकनीकों बाह्य उपकरणों या अन्य उपायों से परम ऊर्जा खींचने का प्रयत्न विनाशकारी भी हो सकता है। इसलिए अपरा ज्ञान, संसार से प्राप्त विज्ञान ही ठीक है जो तुम्हारी क्षमतानुसार ही कार्य कर पाता है। इसे ही वैज्ञानिक…