हे माँ लक्ष्मी कर प्रकाश समृद्धि प्रेम वृद्धि का
जहाँ दीपावली पर्व श्रीगणेश की विघ्नहारी सूरत और महालक्ष्मी की भव्य मूरत मन में साकार करता है वहीं मन-मस्तिष्क में पचास वर्ष पुरानी दीवाली की कसक भी मन में जगाता है।
श्री लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों दीयों व खील-बताशों के अलावा कुछ भी बाजार से नहीं आता था। बरसात से बेरंग हुए घरों की लिपाई-पुताई महीनाभर पहले शुरू हो जाती थी। सफाई-सजावट सब घर के सदस्य मिलजुलकर करते। वो रोली, आलते व गेरू से दरो-दीवार पर कमल, शंख, सतिया व लक्ष्मीजी के चरण कमल आदि शुभ-चिह्नï बनाना। आँगन में तुलसी का चौबारा सजाना। छोटे-बड़े मिट्टी के कलशों को रंगों वजरी गोटे से सजाना। रंगीन कागज व पन्नियाँ काट-काटकर आटे की लेई से चिपकाकर झाड़-फानूस तोरण झंडियों की लहरियाँ बनाना। नए-नए पकवान बनाना सीखना पड़ोस की चाची, ताई व अम्मा से। नए-नए कपड़े बनाना- सब कुछ एक पवित्र पर्व के सौंदर्यमय भावपूर्ण आयोजन जैसा। सब कलाओं को पूर्णता देना, सब सुंदर और साफ-सुथरा करना श्री लक्ष्मी का कृपा-पात्र बनने के लिए।
दीपावली से कुछ दिन पहले घर की किसी एक दीवार पर खूब बड़ी सी सफेद चादर या कागज की बड़ी-सी शीट लगा दी जाती थी और पास ही कुछ प्राकृतिक रंग केसर, टेसू, गेरू आदि रख दिए जाते और घर के छोटे-बड़े सबको हिदायत दे दी जाती कि आते-जाते जब भी मन हो इस पर कुछ न कुछ अवश्य चित्रित करें जो दीवाली तक पूरा हो जाए। और दीवाली तक एक अति सुंदर, अनुपम भित्तिचित्र तैयार हो जाता था पूजा के लिए। एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात जो आज तक निभाने का आभार है, बचपन में हमें सिखाया गया कि अगर दीपावली की अमावस्या के दिन जो भी कलाएँ तुम जानते हो उनका थोड़ा-थोड़ा भी कर लो तो जीवनभर नहीं भूलेंगी। आपका साथ नहीं छोड़ेंगी। कलाओं में पूर्णता हो तो ऐश्वर्य दूर कहाँ।
श्री लक्ष्मी तो पूर्णता के प्रतीक श्री विष्णु के चरण दबाती हैं या यूँ कहें जब लक्ष्मी आए तो आपकी सेविका बने सिर पर सवार न हो। श्री लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। जिसने रातभर जाग-जागकर ज्ञान ग्रहण कर विकास की तपस्या की हो वो जहाँ कहीं भी जाए लक्ष्मी साथ होगी।
हर पर्व उसकी पूजा-विधि का एक सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व है। पहले नए कपड़े साल में दो बार होली दीवाली पर ही बनते थे। सालभर सादगी से रहना। न शापिंग का झगड़ा, न रोज नए कपड़े-जेवर पहनकर क्लबों व पार्टियों में फैशन परेड जैसा दिखावा। दीवाली पूजन के बाद छोटी-छोटी थालियों में खील-बताशे व हाथ की बनी शुद्ध मिठाई, घर के फूल-पत्ती कढ़े रूमाल या क्रोशिए से बने जालीदार कपड़े से ढके प्रसाद को आसपास नि:स्वार्थ प्रेम व शुभकामनाओं सहित देने जाने का आनन्द स्वर्गिक था। आज जिसे किसी से कुछ मतलब हो या बिज़नेस लिया हो उसी हिसाब से मिठाई के पैकेटों व भेंटों के डिब्बों का साइज घटता-बढ़ता है और एक रस्मी तौर पर यंत्रवत-सा ‘लैफड़ के अंदाज का हावभाव व हैपी दीवाली के बनावटी उद्गार सहित एक-दूसरे के यहाँ माल पटका जाता है। कुछ को तो इंतजार रहता है कि फलाने का इतना- उतना काम किया, देखें क्या लाता है दीवाली पर। दीवाली न हुई रिश्वतखोरी का बहाना हो गया।
कहां खो गई वह सादगी जब गणेश लक्ष्मी की मूर्तियां न होने पर भी दो पान के पत्ते दीवार पर लगाकर उस पर आटे से दो सिक्के चिपका कर लक्ष्मी गणेश पूज लिए जाते थे। रामायण पढ़ना, गए साल के दामों का विवरण लिखना घर के हिसाब का लेखा जोखा, घर के बच्चों को बज़ट बनाना सिखाना बही लिखना। यही सब विद्या ज्ञान, लक्ष्मी के रख-रखाव का, संस्कार दान का कारण होता था। दीपावली के शुभ दिनों में सात्विकता, शुचिता, उल्लास व शुभकामनाओं के विस्तार का समां बंध जाता था। ताश में जुए के नाम पर भी बादाम या बताशे दांव पर लगा कर सगुन कर लेते थे। मन में आता तो है कि एक वह थी दीवाली एक आज की दीवाली-उजड़ते हुए गुलशन रोते हुए माली। पर फिर भी एक आशा कि किरण अदम्य उमंग भर देती है। संस्कृति के सच्चे धरोहरों की तपस्या अवश्य रंग लाएगी। वो सुबह जरूर आएगी जब सुहानी मुस्कुराहटों के दीप जलेंगे। उस सुप्रभात की आशा में आओ मन का दीपक जलाएं इतना उजाला करें मन में कि चारों ओर प्रेम व सत्य का प्रकाश फैले यही है प्रणाम के प्रेरक लेखों का उद्देश्य।
!! यही सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ