पवित्र प्रेम, सबसे प्रेम, एक जैसा प्रेम, जड़-चेतन से प्रेम, कण-कण से प्रेम ही तो सृष्टि से प्रीति है। मानव को सृष्टि ने पूर्ण प्रेम से तन्मय प्रेम से मनोमय प्रेम से गढ़ा है। क्योंकि सृष्टि यह जानती है कि मानव उसी की तो अनुकृति है जो उसी का छोटा-सा अणुरूप ही है। वह अपनी सत्ता को बोल बता नहीं सकती, सुना नहीं सकती जिसको जरूरत हो उसके लिए रुक नहीं सकती, इसीलिए उसने यह पुतला बनाया, मानव मूर्ति रचाई। जिसको अपने सभी गुण देकर धरती पर भेजा कि सृष्टि के सौंदर्य की मूर्तरूप में स्थापना हो सके।
एक सौंदर्यमय पूर्ण विकसित व्यक्तित्व वाले मानव को देख लोग सृष्टि के सौंदर्यमय, प्रेममय और सत्यमय अथाह सागर का आभास कर सकें। पर सृष्टि मानव को पूर्णता का रूप बनाने के चक्कर में बुद्धि से भी पूर्ण कर गई और वह बुद्धि मानव ने अपनी स्वार्थमय सोच से विवेकहीन कर ली।
जो विवेक, सृष्टि के रहस्यों को जानकर, उसे उजागर कर, पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए था उसे अपनी अहम् बुद्धि से भ्रष्टकर नरक का सामान जुटा लिया। जिस सृष्टि के प्रेम की उत्पत्ति मानव है उसी प्रेम का मोल भूल गया। प्रेम की रीति ही भूल गया। काम और स्वार्थ से उत्पन्न प्रेम ही जगत के प्रेम का मूल बन गया। यहाँ तक कि दुनिया वालों को सच्चे प्रेम का स्वाद ही भूल गया है। अगर किसी को प्रेम करो भी तो उसके दिमाग में घंटी बजने लगती है कि भई न जाने क्यों इतना प्यार उमड़ रहा है, क्या कारण है जरूर ही कोई न कोई मतलब होगा। यहाँ तक कि सच्चे प्रेम से लोग दूर ही रहते हैं जैसे शराब पीने वाले को शुद्ध पानी का स्वाद अच्छा नहीं मालूम होता।
इतना विकृत कर दिया प्रेम का स्वरूप कि प्रेम का स्वरूप ही चापलूसी में बदल गया। रामायण में तुलसीदास जी ने साफ कहा है कि जब मंत्री, वैद्य और गुरु ठकुरसुहाती अर्थात् मनभावन बातें करें, प्रिय चापलूसी वाले वचन बोलें तो राज्य, शरीर व धर्म तीनों का नाश अवश्यम्भावी है। इसमें एक और शब्द जोड़ लें और वह है-व्यापारी। जब व्यापारी भी यही करें तो देश की आर्थिक स्थिति का तो विनाश ही विनाश है। तो चापलूसी या प्रिय वचन प्रेम के द्योतक नहीं हैं।
मेरे तेरे तक सीमित कर, प्रेम के स्वच्छ पवित्र सदा बहने वाले झरने को गंदा तालाब बनाकर सड़ा दिया। माँ-बाप, अपनी संतान को बड़ा कर अपनी सेवा, अपना धन व अपना नाम संभालने के सपने देखते हैं। गुरु-शिष्यों को तैयार करते हैं, अपनी गद्दी संभालने को, अपने ही धर्म का ढिंढोरा पीटने को। राजनेता भी अपने ही नातेदारों को सब दांवपेंच सिखाते हैं, सत्ता हथियाने को ताकि उनकी पीढ़ियाँ राजसुख भोगें।
माँ-बाप स्वार्थयुक्त प्रेम में लिप्त, गुरु अपनी गुरुता के प्रेम में लिप्त, राजनेता अपनी कुर्सी के प्रेमजाल में आसक्त। सृष्टि के अपार विस्तार वाले प्रेम को अपने स्वार्थ से सीमित कर क्या पाठ पढ़ा रहे हैं हम अपनी भावी पीढ़ी को सब जानते हैं।
पर यह नहीं जानते कि जो किया है उसका फल कितने भयंकर रूप में हमारे सामने विनाश का राक्षस बनकर मुँह बाए खड़ा हो गया है। प्रेम-प्रेम, प्यार-प्यार इतना कहा बोला सुना जाता है कि इतना नहीं कहा गया कभी भी। पर उसकी सत्यमयी प्रकृति को कौन समझ कर जीता है।
सच्चे प्रेम का अर्थ है- बस देना ही देना सिर्फ देना, प्रकृति की तरह सृष्टि की तरह बिना इस भावना के कि इससे हमें क्या मिलता है या मिलेगा। पहले परिवार, फिर समाज, फिर देश और फिर सम्पूर्ण विश्व में सृष्टि के प्रेम-प्रसार व विस्तार के लिए ही तो सृष्टि ने हमें बनाया है। मगर प्रेमरहित मानव अपने परिवार के ही लेन-देन में लिप्त, जीवन को पहेली की तरह और उलझाकर, भ्रमित से, कुंठित से, पीड़ित से दुनिया से कूच कर जाते हैं।
सृष्टि माँ की सहनशीलता तो देखिए फिर भेजती है आपको धरती पर कि शायद इस बार कुछ अक्ल आए पर मानव यहाँ आकर फिर अपनी अहम् बुद्धि के फेर में पड़कर भूल जाता है और बार-बार जन्म-मरण का चक्कर चला लेता है। पर धन्य है सृष्टि का नियम वह समयानुसार कोई न कोई माध्यम तैयार कर ही लेती है। पर अन्य मानव ऐसे प्रेममय मानव को इसलिए कष्ट देते हैं कि वह उन जैसा क्यों नहीं सोचता? पर सृष्टि उसे राह भूलने नहीं देती। क्योंकि वह जानती है कि एक प्रेममयी सोच वाला मानव आशा की डोर थामे, सच्चे प्रेम का पाठ बार-बार पढ़ाएगा ही। क्योंकि यही सत्य सृष्टि के निरंतर निर्बाध गति से चलते रहने का आधार है।
जब-जब समय की माँग होती है तो समय ही सृष्टि की बुद्धि बनकर, समयानुसार धरती पर मानव बना ही लेता है जो समय के हिसाब से एकदम सामने आकर मानवता को प्रेम, कर्म व धर्म की सच्चाई बताकर समाज को आईना दिखा ही देता है। झूठ का घृणित कुत्सित मुखौटा उघाड़ ही देता है। मानव की सच्ची फितरत प्रेम ही तो है उसे नकारना सृष्टि की रीत को नकारना है।
अरे मानव! प्रेम कर ले, जी भरकर कर ले, अपने से, अपने देश से, अपने भेष से, अपनी सच्चाई से, सारी खुदाई से। जब ऐसा कर पाएगा तो तू ही खुदा होगा, खुदा का सही बंदा होगा।
- प्रणाम मीना ऊँ