सृष्टि के तत्वों का ज्ञान सृष्टि का ध्यान एकत्व जगाए
हे मानव ! तेरे भीतर भी वही पाँचों तत्व
अरे समझ इनका सत्व
तेरे अन्तर का आकाश तत्व
चाहे सदा विचरण उन्मुक्त इधर-उधर डोलता-घूमता
निष्प्रयोजन सा दीखता
अनन्त प्रयोजन की सत्ता से संचालित
यही तो ब्रह्माण्ड की कला है
प्रकृति ने दिया तुझे ये मानव स्वरूप
इसी कला को प्रयोजन देने को
साथ में दिया ध्यान का वरदान
बनाया एक नक्षत्र शक्तिपुंज पूर्ण
पर डोलता-फिरता व्यर्थ ही
भटकता रहता समर्थ होकर भी
तभी तो नष्ट होता रहता अपनी ही ऊर्जा से
ओ मानव जानकर यह परम भेद
बन जा सूर्य-सा अडिग अपने ही संकल्प में दृढ़
जो सदा बँधा प्रकृति के नियम से
चले एक ही चाल सदियों से
करे सृजन देकर ऊर्जा चहुँओर
तपे अपनी ही ऊर्जा से नित नवीन भोर
सतत् निरन्तर निर्बाध गतिमान,
कभी भी न हो पथभ्रष्ट न ही हो विनष्ट
अपने ही ध्यान में मग्न पूर्ण कर्म में संलग्न
आकाश तत्व से अभिभूत
अपरिमित विस्तार का दूत
ध्यान की शक्ति से हो केन्द्रित
बना संकल्प सम्राट अद्वितीय अकूत अग्नि तत्व
हे मानव ! तेरे अन्तर का अग्नि तत्व
प्रगटाए सारे उद्वेगों को तीव्रता से
भयंकरता से तेजस्विता से
असंयमित ब्रह्माण्डीय अग्नि
बनकर प्रकृति का कोप प्रकोप
जला डाले बन गिरे बनकर तड़ित अबोध
उगले लावा तपते ज्वालामुखी से
कारण बने विनाश का हाहाकार का
पर वही लपट जब बने ध्यान
पूर्णता के विज्ञान से संयमित
हवन की अग्नि समान
जला डाले अपूर्णता महान
भस्म कर समस्त विकार करे शक्ति विस्तार
साधकर ब्रह्माण्डीय शक्तियों से सम्पर्क
बरसाए जल संतप्त हृदयों पर
धरणी धरा की कृतियों पर
करे प्रहार आसुरी प्रवृत्तियों पर
मन की सभी कुवृत्तियों पर
अग्नि-परीक्षा दाह-दीक्षा
वैतरणी का सत्व नचिकेता का सत्य
अग्नि तत्व ज्ञानाग्नि जलाए रखने का
अग्नि तत्व की अद्भुत क्षमता का
रखे सदा उसे देदीप्यमान
जो धरे यही ध्यान जल तत्व
हे मानव ! तेरे अंतर का जल तत्व
अपने प्राकृतिक असंतुलित रूप में बहाए….
सब सौन्दर्य उजाड़े माँ का आंचल
पर जब हो ध्यान से बद्ध
तो बने झील और सागर दे अपार अंबार ज्ञान मोतियों का
दे शीतलता का वरदान जीवन प्राण करुणा दया महान
चिन्तन-मनन से जब जाए मथा
तो दे चौदह रत्नों का भंडार
सागर-सी कृपा अपार कल्पवृक्ष से सुदर्शन चक्र तक
शिव कल्याणी विष से कामधेनु तक
ऐरावत से विश्वमोहनी सौन्दर्य तक
सबकुछ बाँधे ध्यान ही लक्ष्य देवे ध्यान ही
संकल्प देवे ध्यान ही
ब्रह्माण्डीय ध्यान से जोड़े तेरा ध्यान ही
उद्दंड प्रकृति को आकार दे ध्यान ही तो
चन्द्रकला से उद्वेलित करे कला विस्तार
कल्पना साकार वायु तत्व
हे मानव ! तेरे अन्तर का वायु तत्व
हवा देता तेरे ही अहम को
प्राकृतिक रूप में जब बने आँधी
कुछ न छोड़े बिना मोड़े
यहाँ से वहाँ तक बिखराव ही बिखराव
अस्त-व्यस्त ध्वस्त करे जो भी अटकाए राह में रोड़े
पर जब ध्यान की गरिमा से हो सम्पन्न
तो बने बवंडर शक्ति स्वरूप
चुटकी से उखाड़े अपूर्णता को
फेंके ब्रह्माण्ड की अनन्तता में
परम प्रकृति की ही शरण में
फिर से नया रचने को
नया स्वरूप धरने को आकार बदलने को
तेरे अन्तर का वायु तत्व
कुरूपता उगल करता नवीनता धारण
घुमाता कालचक्र बन प्राणवायु पृथ्वी तत्व
हे मानव ! तेरे अन्तर का पृथ्वी तत्व
चूमता सभी के चरण
पापी हो या हो पुण्यात्मा
रक्षक हो या भक्षक
जो भी फेंको कुचलो मसलो
सब स्वीकार्य, करे शिरोधार्य
पर धरे सदा एक ही ध्यान
अपनी ही धुरी पर घूमना
अपने आराध्य सूर्य देव की परिक्रमा करना
और प्राप्त कर ऊर्जा अलौकिक
जो मिला उसे ही अनूठे अनुपम
मनोहारी उपकारी सौन्दर्य में बदल देना
न शिकायत न मनुहार
न तड़पना न बिछुड़ना
अपनी ही विभूतियों से
रस रंगमयी सुगन्धमयी
सुन्दर रचना रच लेना
सबको आनन्द ही आनन्द देना
यही तो है ध्यान जानकर इसका ज्ञान विज्ञान
बाँधो आकार दो दिशा दो
प्रकृति से प्रस्फुटित अपनी ही प्रकृति को
सँवारकर मनोवृत्ति को
नमन कर प्रकृति की अनुपम कृति को
पाँचों तत्व अपने में समाए मानव
जब धरे पूर्ण ध्यान तो
परम में ही लय हो जाए
एकत्व जगाए… एकत्व जगाए
यही सत्य है, यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ