जब हम अपने ऊपर आध्यात्मिक रूप से कार्य करते हैं तो हमारी संवेदनशीलता भी बढ़ने लगती है या यूँ कहें आध्यात्मिक मानव की संवेदनाएँ भी विकसित होती हैं क्योंकि संवेदनशीलता के चरमोत्कृष्टता से ही तो प्रभु प्राप्ति की अनुभूति होनी होती है।
सत्य आत्मानुभूति के पथ का लक्ष्य ही है कि मानव जीव को अपनी सभी संवेदनाओं, क्षमताओं और बोधगम्यताओं का अधिकतम विकास-संवेदनशीलता को चरम अवस्था- परम अवस्था तक पहुँचाने के मार्ग में अनेकों तपस्याओं और भिन्न-भिन्न अनुभूतियों से गुज़रना होता है। फिर इन सभी अनुभूतियों के प्रभाव से आन्तरिक दिव्यता की शक्ति से उबरना होता है। क्योंकि अनुभूतियों के अनुभव में लिप्त होना या रमना उत्थान में व्यवधान है। भरपूर आत्मबल से ही यह संभव है या यूँ कहें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व सघन ध्यान से प्रभावों से उबरना आत्मबल बढ़ाने का आधार बन जाता है।
बाह्य साधनों व विधियों की बैसाखियों से परीक्षाओं को, तपस्याओं को, परे करने या दूर रखने की चेष्टाएं आन्तरिक शक्ति, आत्मबल को क्षीण करने का कारण बनती हैं। प्रत्येक दिव्य अनुभूति आन्तरिक शक्ति को ढके हुए अंधकार को काटने का, प्रकृति का नैसर्गिक उपाय है, विधि है। उसे अनुभव कर अंतर की प्रकृति को पूर्णतया प्रकृतिमय कर प्राकृतिक रूप से सहज निवारण ही एकमात्र दिव्य पथ है।
प्रत्येक स्थिति की प्रत्येक विधा का उपाय अन्तरात्मा जानती है और वो ही, पूर्णतया ध्यानमग्न होने पर निर्देश व संदेश देती है। परमबोधि जो कि नैसर्गिक व्यवस्था के अंतर्गत कष्ट देती है उसी के पास निदान भी होता है केवल उस परमबोधि से जुड़ना होता है। जब भी आँखें बंद कर ध्याओ और परम से योग हो जाए, यही तो सत्ययोग है, सत् चित् आनन्द वाला आनन्द है, सत्यानन्द है।
पाँचों संवेदनाओं- स्पर्श सर्दी गर्मी दबाव पीड़ा का सम्बन्ध त्वचा से है। त्वचा के एक-एक रोम छिद्र में एक हजार प्रकार की ऊर्जाओं को ग्रहण करने की क्षमता है जिसकी अनुभूति पूर्ण आत्मानुभूत मानव कर सकता है। ये ऊर्जाएँ जिन-जिन भावों को शक्ति देती हैं उन्हीं का स्तवन विष्णु, पूर्णता के प्रतीक, सहस्रनाम में है। यही सौन्दर्य है भारतीय वैज्ञानिक ऋषि परम्परा का कि पूर्ण आत्मानुभूत ही इन सबका रहस्य उजागर कर सकता है।
पूर्णता के हजार गुण अवतारी मानव की धरोहर है जो केवल अवतार के ही कोषाणुओं में स्थापित या रोपित हो जाते हैं अन्यत्र कहीं भी नहीं। मानव शरीर यंत्र, अद्भुत संयंत्र, शरीर पर अगणित रोम छिद्र, कूप, हैं कितनी अपार, असीम क्षमता-ब्रह्माण्ड की सभी ऊर्जाओं को ग्रहण कर आत्मसात् कर आत्मशक्ति का विकास पूर्णता तक ले जाने के लिए। पर मानव अपनी अहम् बुद्धि के अधीन होकर आसपास आए अन्य मानवों के भावों से प्रभावित होकर इस महान उर्जा सूत्र से वंचित हो जाता है।
मानव और परम के बीच एकदम सीधा सत्यपरक विज्ञान है जिसे साधकर ही परम से योग की प्राप्ति का विधान प्रकृति ने सुनिश्चित किया हुआ है। प्रकृति का ही सटीक पथ मानव को भगवान बनाने का-मानव के भगवद्स्वरूप होने का, पूर्णता के विधान का सत्यपथ- यही तो है पूर्ण विधान।
इसी हेतु प्रकृति के ही दिए गए पठार पड़ाव परीक्षाएँ तपस्याएँ आदि साधनाएँ हैं। इन सुन्दर शक्तिदायी विघ्न-बाधाओं से मन-बुद्धि क्यों भरमाता है ओ मानव! आनन्द तो इस सत्य मार्ग में आई प्रत्येक परिस्थिति व घटना से सीखकर शारीरिक-मानसिक व आत्मिक रूप से बलिष्ठï होकर दिव्यता की बलिष्ठïता में पारे की तरह घुलना-
विलीन होना है।
पूर्णतया विलय होने हेतु पूर्णतया सत्य पूर्णतया प्राकृतिक पूर्णतया प्रेममय प्रकाशमय व मुक्त होना ही होता है। निर्लिप्तता जान लेने या मान लेने से कुछ नहीं होता। निर्लिप्तता का पूर्णता से मूर्तरूप बनना ही होता है। वो ही होना होता है- जो ज्ञान से ज्ञाना, जाना जो भी तुम जानते हो भासते हो मानते हो और बखानते हो मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य।
सत्यतम व महानतम धर्म, सरलतम है और प्रत्येक काल व प्रत्येक परिस्थिति में हर हाल में हर युग में पूर्णता को प्राप्त होता ही है- बाह्य आडम्बर रहित, अहम् रहित व कर्ताभाव रहित होकर। ऐसा मानव ही ऐसे सत्य को चरमोत्कर्ष तक पहुँचा पाता है जो अपनी मानसिक शारीरिक आर्थिक भावनात्मक व आत्मिक आवश्यकताओं के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं वो ही वास्तविक मुक्तात्मा है।
परम+आत्मा है
परमात्मा है
Sensitivities – sensibilities
Capacities – capabilities
उन्नत संवेदनाएँ – विद्वता बनती हैं।
उन्नत क्षमताएँ – योग्यताएँ बनती हैं।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ