जिनसे गलतियाँ होती हैं
वह जानते हैं कि उन्होंने क्या किया है
उसका जवाब सोच लेना ही उनका ध्यान
‘मेडिटेशन’ होता है
उनसे कुछ भी कहो तो उनके पास
ऐसे सधे उत्तर होते हैं कि आप अपने को
एकदम बेवकूफ महसूस करते हैं
उनसे बहस करने को
उनके स्तर पर उतरना होता है
और उस स्तर की भाषा व विद्या से
अनभिज्ञ होने पर मुँह की खानी पड़ती है
तो रोना काहे का
यही तो सजा है
यही सजा है छोड़कर स्तर अपना
फँसना उनके बनाए चक्रव्यूह में
मानो गुरु उनको
जो लेते हैं परीक्षा आपकी बार-बार
और तुम डिगते हो बार-बार
अपनी स्थितप्रज्ञ एक निश्चय वाली स्थिति से
शायद तुम्हारी ही दृढ़ता में
रह जाती है कुछ कमी
नमन प्रणाम इन सब गुरुओं को
जो घसीटते हैं बार-बार तुम्हें
अपने ही पोषित विषवमन को
पर तुम्हें होता है अहसास बार-बार
अपनी दृढ़ता की कमजोरी का
उन्हीं के कर्मों द्वारा और अपने आपसे
और अधिक तपस्या से मौन से
और अन्य विधाओं से
लेते हो व्रत और अधिक और अधिक
निर्लिप्त होने का
यही तो है सत्य मीना का
रोना काहे का खोना काहे का
जिसे जाना है उसे पाना काहे का
नादां हैं वो जो बहस में पड़
कुछ साबित करना चाहते हैं
क्योंकि ऊपर वाले की अदालत में
तो सबकुछ साबित हुआ ही पड़ा है
ऊपर वाले की अदालत में तो
सब कुछ साबित हुआ ही पड़ा है
जो उससे मिल गया वो ही तो
उसे जान पाएगा
यहाँ बैठा-बैठा जो लड़ता रहता
वो अपने को कहाँ पहचान पाएगा
वो तो दोनों जहाँ से गया
वो तो दोनों जहाँ से गया
उसका जन्म दूसरों को अपने ही बनाए
मकड़जाल में चक्रव्यूह में
घसीटते घसीटते ही गया,
अंत में स्वयं भी उसी में फँस निरर्थक गया
बीत गया रीत गया चूक गया
यही है सत्य
यहीं है सत्य
- प्रणाम मीना ऊँ