मानव मंगल की ओर मानवता जंगल की ओर

मानव मंगल की ओर मानवता जंगल की ओर

हे मानव !
कलियुग में तूने अपनी बुद्धि का इतना विकास कर लिया है कि अपनी सब प्रकार की सुख-सुविधाओं के लिए अनेकों उपकरणों का आविष्कार किया और उन्हें अपनी इच्छानुसार प्रयोग कर अपनी ही अहम्तुष्टि कर रहा है। वैज्ञानिक और आर्थिक विकास तो ऊर्ध्वगति को प्राप्त हुए पर मानव मूल्य अधोगति को।

मानव प्रकृति पर विजय पाने के सपने देख रहा है मंगल और चाँद पर भी नगर बसाने की संभावनाएँ खोज रहा है। पर अपनी ही धरती पर बसे बसाए नगर उजाड़ने में तुझे आनन्द आ रहा है। दूसरों के सिर पर पैर रख कर आगे बढ़ने को प्रगति मान रहा है।
आज का युवा उदाहरणस्वरूप शोभायुक्त गरिमापूर्ण उत्कृष्टï व अनुकरणीय नेताओं के अभाव में भटक रहा है। युवाओं के अंदर कुछ कर गुज़रने का जो उबाल होता है उसे कौन दिशा दे पा रहा है आज के स्वार्थपूर्ण वातावरण में। चारों ओर केवल अपने लिए ही बटोरने की व लूटने-खसोटने की नीतियाँ दिखाई पड़ती हैं। पूरा का पूरा राजतंत्र जनमानस हेतु कल्याण की युक्तियाँ सुझाने में जुटा रहता है, पर कल्याण किसका होता है सब जान रहे हैं। घूम-फिर कर नीतियाँ बनाने वालों की सुरक्षा ही और सुदृढ़ होती जाती है, जमीन-जायदाद बढ़ती जाती है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी केवल पद-पदवी और गद्दी की बदौलत राजसी ठाठबाट के रहन-सहन, कर्महीनता और भ्रष्टाचार के ज्वलन्त उदाहरण हैं। कहावत है- ‘अंधा बाँटे रेवड़ी हिर-फिर अपने को ही दे।’

आज सबको पता है सरकारी कार्यप्रणाली क्या से क्या हो गई है। सभी पद-पदवियाँ उन पर डटे नौकरशाह, अधिकारी या अध्यक्ष सभी व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों से संचालित हैं। ऐसा कदापि नहीं है कि भारत में समस्याओं से जूझने व उबरने की सामर्थ्य व क्षमता नहीं है पर ‘हमें क्या’ इस कर्महीनता के महामंत्र ने सबको निष्क्रिय बना रखा है। अपना काम बन जाए किसी भी तरह, भ्रष्टाचार से अनाधिकार से या वर्चस्व की दबंगता से, बाकी अन्य जाएँ भाड़ में, यही मानसिकता छाई है चहुँओर। सालों-साल अजीब सा ठहराव बँधा-बँधाया ढर्रा, किसी भी प्रकार जुगाड़ कर कुर्सी या आसन बनाए रखना ताकि मनमाना अधिकार और धौंस जमाने वाली जीवन शैली बनी रहे।

‘क्या यह अदृश्य आतंकवाद नहीं है?’
सारी की सारी व्यवस्था में राष्ट्रप्रेम नहीं, एकत्व का भाव नहीं। सद्भाव सहनशीलता व निश्छल प्रेम सब कहीं लुप्त हो गए हैं, रह गए हैं तो केवल अपने हित के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद से काम निकालने की आतुरता-व्याकुलता व राक्षसी प्रवृतियाँ, एक अनदेखा आतंकवाद छाया है हर तरफ। सभी प्रचार माध्यम भरे रहते हैं असंयमित क्षोभपूर्ण विद्रूप व विकृत गाथाओं से।

कुव्यवस्था के कीटाणु सर्वत्र व्याप्त हैं। चारों ओर मानव मूल्यों का अवमूल्यन, झूठ पाखंड ढोंग व स्वार्थ का नंगा नाच, चाहे धर्म हो राजनीति हो या समाज हो, एक-दूसरे को ऊँचा उठाने या बढ़ावा देने की अपेक्षा नीचा दिखाने व गिराने की होड़। इसका कोई तोड़ जनसाधारण को समझ नहीं आ रहा है। चारों ओर फैली राष्ट्र को खोखला करने वाली समस्याओं का हल यदि है भी तो कैसे लागू करें, कहाँ से शुरू करें, कुछ समझ नहीं आता क्योंकि कुर्सी पर बैठे आकाओं को या समर्थ बुद्धिजीवियों को तो केवल स्वहित की बात ही समझ आती है।

सही सोच, सही कर्म वाले सुपात्रों को बढ़ावा देना उन्हें अपने वर्चस्व के तिलस्म टूटने का भय देता है। पर पद के नशे में चूर वह यह भूल जाते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है। जब अति हो जाती है तो परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाता है। अपूर्णता काटने हेतु उससे बड़ी अपूर्णता चाहिए; विष विष से, कांटा कांटे से ही निकलता है। आज एक ‘दृश्य आतंकवाद’ ने ‘अदृश्य आतंकवाद’ का मुखौटा उतार उसका सही चेहरा एकदम स्पष्ट दिखा दिया है। इसका उद्देश्य व संदेश यही है कि बहुत हो चुका, अब सबका राष्ट्रबोध जागृत हो और सब सत्यता से कर्मरत हों यही इस भयावह घटना की सकारात्मकता, Positivity, है।

आसुरी शक्तियों का सामना होना नियति का विधान है यही इनका सत्य व महत्व है। दोनों ही शक्तियाँ, दिव्य और आसुरी, सदा साथ-साथ ही पनपती हैं। दोनों ही अपने-अपने कर्मक्षेत्रों को सुदृढ़ करती रहती हैं पर अन्तत: विजय सत्य व दिव्यतायुक्त गुणों की ही होती है, यह भी अटल सत्य है।

आसुरी शक्तियों के तांडव से उनकी शक्तियों का आकलन कर अपनी क्षमताओं को और अधिक विकसित करना ही विवेक है। आसुरी शक्तियाँ अपनी शक्तियों का प्रदर्शन कर अट्टïहास करती हैं। दैवीय शक्तियाँ शान्ति व गंभीरता से अपूर्णता पर वार करती हैं। यदि आसुरी शक्तियाँ तुम पर हावी होती हैं तो वह तुम्हारी कमियों की ओर ही इंगित करती हैं तो उनका आभार मानो कि तुम्हें शीशा दिखा तुम्हारी अपूर्णता दिखा दी।

हे मानव, अब बस। अब तुझे वो सब समझना और जीना होगा जो तूने पढ़ा, जाना और सीखा है। सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश की ओर आना ही होगा जो कि सभी धर्मों का सार तत्व व निचोड़ है। हम सभी मानव हैं, इंसान हैं और मानवता या इंसानियत ही हमारा सांझा धर्म है।

आतंकवाद साम्राज्यवाद आध्यात्मवाद आदि-आदि वादों के भ्रमजालों ने पूरी मानवता को विवादों के चक्रव्यूह में बुरी तरह फँसा दिया है, भरमा दिया है। इससे तू तभी निकल पाएगा जब सत्यधर्म को सत्यता से अपनाएगा, सुपात्रों का चुनाव कर उन्हें राष्ट्र का कर्णधार व मानवता का सूत्रधार बनाएगा, अपने-अपने स्वार्थों व अहमों को त्याग राष्ट्र प्रेम और विश्वकल्याण का कर्म अपनाएगा, वसुधैव कुटुम्बकम का सत्य साकार करेगा जो कि प्रेम व एकत्व का पवित्रतम व उच्चतम साकार रूप होगा।

आओ, नवयुग निर्माण हेतु
प्रणाम भारत के रूपान्तरण यज्ञ में
सहभागी बन भाव शक्ति उजागर कर
मानव अस्तित्व की सार्थकता का आनन्द अनुभव करें
और सत्य प्रेम व कर्म का प्रकाश फैलाएँ।
सं ज्योतिष: ज्योति
ज्योति से ज्योति मिलाकर तेज बढ़ाएँ

यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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