हे मानव !
अब तो जाग, जगा रहा कलियुग का काल। असत्य विनाशिनी प्रकृति का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया, जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बंधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति की न्याय व्यवस्था सर्वोपरि है जो मानव की साधारण बुद्धि से परे है।
जब धर्म, समाज, राज्य और न्याय सबकी सारी की सारी व्यवस्थाएँ सत्ता-लोलुपता व स्वार्थ में लिप्त हो अमानवीय स्तर तक उतर आती हैं और मानव अपने ही बनाए मकड़जाल में फंसकर हताश हो जाता है तब प्रकृति की संहार प्रक्रिया व छँटनी का दौर शुरू होता है। जो मानव, युग चेतना से जुड़कर सत्ययोगी तथा आत्मज्ञानी होकर दृष्टा बन हर घटना को सृष्टि के सम्पूर्णता वाले विधान से जोड़ कर देखता है वह ही यह रहस्य जान पाता है।
अब सबको अग्नि-परीक्षा से गुज़रना ही होगा-आंतरिक बीमारियाँ, अग्नियाँ ऐसी कि कोई विज्ञान पकड़ न पाए। बाह्य अग्नियाँ, प्राकृतिक प्रकोप, भूचाल, दुर्घटनाएँ, दावानल आदि। मानव अपनी सीमित बुद्धि से सोचता है क्यों कोई निर्दोष मारा जाता है प्राकृतिक आपदाओं में। हे मानव! तुझे यह सत्य एक क्षण को भी नहीं भुलाना है कि हम सब यहां केवल माध्यम हैं कुछ जीकर सृष्टि का उत्थान क्रम व कर्म चलाते हैं, कुछ मर कर। शरीर का हनन होता है ऊर्जा व विचार का नहीं। कोई भी ऊँचा-नीचा, छोटा-बड़ा, महान या तुच्छ नहीं। शैतानियत के भी माध्यम हैं और दिव्यता के भी। दोनों ही शक्तियाँ प्रकृति के नियमों में ही निबद्ध हैं प्रकाश के लिए निगेटिव और पॉजिटिव दोनों ही करंट चाहिए।
तुझे अपनी सच्चाई जानकर, विवेक जगाकर यह जानना ही होगा कि तू किस शक्ति में संलग्न है। अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति दोनों को जानकर संवारना है। पूर्णता तक ले जाना है। प्रकृति के कर्म में दुविधा या संशय नहीं होता। बस होना ही होता है। जिसे अज्ञानवश लोग होनी या प्रारब्ध कह देते हैं।
यह वर्ष चैतन्यता के सुप्रभात का वर्ष है, भविष्य का सत्य-समय आ ही पहुंचा है सच्ची आत्मानुभूति के मार्ग के प्रशस्तिकरण का। मानव की सत्ता की वास्तविकता स्थापित करने का, मानवता धर्म के प्रादुर्भाव का और एकत्व का आनन्द अनुभव करने का। अपने को बदलो, परिवर्तित करो, निरंतर आगे बढ़ो, उगो अपने अंदर से ही सत्य तथा प्रेम का प्रकाश उजागर करो।
जब तुम अपने अंतर के सत्य तत्व से साक्षात्कार करते हो तो सच्चा ज्ञान और विवेक स्वत: ही झरता है। भूतकाल के बोझों से अपने को खाली करो, सत्य व प्रेम प्रसार के लिए-
प्रत्येक भाव को दिव्य बनाओ
प्रत्येक सोच को ब्रह्माण्डीय बनाओ
प्रत्येक कर्म को पूजनीय बनाओ
प्राकृतिक नियम कण-कण में सर्वविद्यमान हैं जो होनी की सम्पूर्ण व्यवस्था को पूर्ण उत्कृष्टता से संचालित करते हैं। इस दिव्य विधान के भागीदार होने के लिए सुयोग्य बनो। नेममुद्यतम् (ऋग्वेद) नियमानुसार ही प्रकाश होता है। प्रकाशमय-एनलाइटेनमेण्ट-होने का एक प्राकृतिक नियम है। समय की मांग ही प्रकाश के अवतरण का कारण होती है।
- प्रणाम मीना ऊँ