ज्ञान की सार्थकता

ज्ञान की सार्थकता

हे मानव! यह सत्य जान ले कि :-
सिंहों के नहिं लेहड़े, हंसों की नांहि पांत
लालों की नहिं बोरियां, और संत न चले जमात।


शेरों के लेहड़े या भीड़ नहीं होती भेड़ बकरियों की तरह जिन्हें कोई भी हांक ले जाए। हंसों की बतखों की तरह कतारें की कतारें नहीं होतीं। रत्न हीरा माणिक मोती बोरी भर भर नहीं होते। लालों (सपूतों) के ढेर नहीं होते। कोई-कोई धरती का लाल सच्चा सपूत होता है और सच्चे संतों की भीड़ नहीं होती जमातों में नहीं चलते।

आज का युग भयंकर ज्ञान के दौर से गुजर रहा है। अधूरा थोथा, तत्व रहित ज्ञान और उसी के प्रचार व विस्तार का युग। कोरे किताबी ज्ञान और उसी ज्ञान के शब्दों के बल पर, अपने अहम् को तुष्टï कर, अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेने का मशीनी-कलियुग। ज्ञान पाने वाले भी, जो कुछ सुना या पढ़ा उसे घसीटकर अपने ही मानसिक स्तर पर लेे आते हैं। अपने ही गुणों में रमे कर्म-बंधनों में बंधे उस ज्ञान के साथ खिलवाड़ करते हैं विवेक जगाने का पुरुषार्थ नहीं। अपने को बदलने की साधना नहीं। ऊपर से जानने का दंभ अलग से।

तभी तो उपनिषदों में कहा गया है कि ज्ञानी जो अपने ज्ञान में ही रम गया उसका दीया तो कभी भी नहीं जल सकता उससे तो अज्ञानी ही भला यह उम्मीद तो रहती है कि शायद कभी दीया जल ही जाए। ये जो आजकल-ज्ञान पाने व नकल करने की होड़ सी लगी है यह ज्ञान की सारी प्रगति को और भी क्लिष्टï बना रही है। जबकि आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) का एक नियम यह भी है कि होड़ में ना पड़ो। ज्ञान प्राप्त कर अपने को ही जानकर अपना विकास करो तो जब होड़ या रीस का बीज ही भस्म न हुआ तो क्या तपस्या की? छोटी होड़ से बड़ी होड़ पर आ गए, होड़ तो होड़ ही, लालच है हवस है। लालच तो लालच ही है चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक।

भूला भटका मानव इन चक्रव्यूहों में घूमता रह जाता है। न समर्पण, न भक्ति, न सेवा, न कुशलक्षेम, किसी का भी पूरा व सच्चा अर्थ समझकर जानकर इन पर काम करने का उद्यम करता ही नहीं। करेगा तभी तो आगे का पाठ समझ आएगा। अच्छी माँ भी बच्चे को उतना ही पथ्य देती है जितना उसकी बढ़त के लिए उपयुक्त है। चाहे वह कितना ही रोए-धोए।

इसी प्रकार पहले प्राप्त किए ज्ञान को जीकर अनुभव कर मोती प्राप्त करना होता है। उपनिषदों में कई उदाहरण हैं कि कैसे ऋषि मुनि इंद्र आदि देवताओं तक को साफ-साफ कह देते थे सात वर्ष बाद आना, बारह वर्ष बाद आना आदि-आदि। इसमें कितना गूढ़ मनोवैज्ञानिक रहस्य छुपा है यही तो जानने की बात है। इस सत्य को जीकर ही खोजा जा सकता है। बातों से या अर्जित कर संचित किए गए ज्ञान से नहीं। ज्ञान तो जीकर विवेक संचित करने का साधन मात्र है। इसलिए सुपात्र को ज्ञान देने में ही ज्ञान की सार्थकता है-
ओ मानव काया तेरी भूली भटकी
ज्ञान के फैलाव में ही अटकी
जिह्वा बस और और ही रटती
क्यों न अपने को सत्य की कसौटी पर कसती


तो भाई न अपने से भागो न भटको। संसार तो एक अभ्यास-स्थली है अपने को निखारने और परिष्कृत करने तथा मानव जीवन का आनन्द अनुभव करने की।
यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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