कलियुग का सत्य

कलियुग का सत्य

हे मानव !
अब यह सत्य भली प्रकार जान-समझ ले कि कलियुग में सच्चिदानंद का सत्य स्वरूप और वेद व विज्ञान का पूर्ण रहस्य जानने के लिए सुपात्र होना ही होगा। कालचक्रानुसार कलिकाल प्रकृति व ब्रह्माण्ड के सारे सत्यों व रहस्यों का महत्व जानने का, झूठ की दुकानें बंद कराने का सारे व्यवधान व अंतराल मिटाने का मानव जीवन का सही उद्देश्य जानने का युग है। यह युग है सारी विषमताओं व दुविधाओं का वैज्ञानिक कारण जानने का, अपूर्णता तथा असत्य के संहार का, अर्जुन को भी कृष्ण बनाने का ताकि सब हों कृष्णमय, ज्ञानमय, प्रकाशमय तथा कर्ममय ताकि अब न उजड़ें, बसे बसाए राज्य, ले अहंकार और अकर्मण्यता की आड़।

हे मानव ! कलियुग तो है ही सतयुग के सुप्रभात की तैयारी का मंच, इसलिए इसकी एक ही मांग है सत्यमय हो जा। कलियुग में वेद व विज्ञान का इतना प्रचार व विस्तार हो चुका होता है कि दोनों का योग अवश्यम्भावी हो जाता है। श्रीकृष्ण का वचन संभवामि युगे-युगे मिथ्या हो ही नहीं सकता। केवल उसका बाह्य स्वरूप व आकृति इतनी भिन्न होती है कि उसे पहचानने के लिए चाहिए अर्जुन जैसी दृढ़निश्चय वाली दिव्यदृष्टि, पूर्ण समर्पण और सत्यता से चिंतन-मनन कर निजी स्वार्थों को तिलांजलि देकर सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु कर्म करने की तत्परता।

जब-जब मानवता पथभ्रष्ट होती है कृष्ण चेतना वाला अवश्य ही आसपास होता है। पर कलियुग का सत्य यह भी है कि सत्यता व श्रेष्ठ योग्यता से लोगों को भय लगता है, घबराहट होती है। जब तक लोग सत्य योग्यता को उचित स्थान, सम्मान व प्रोत्साहन नहीं देंगे प्रकृति के प्रगति के कार्य में बाधा डालने वाले असुर ही रहेंगे। क्योंकि प्रकृति के सर्वोत्कृष्ट विधान के चुनाव से ही किसी-किसी को विशेष गुणवत्ता प्राप्त होती है। उससे बेरुखी या उसे दबाने की कुचेष्टा क्यों या फिर उसका मनोबल खंडित कर अपनी ही किसी स्वार्थसिद्धि में उसका प्रयोग क्यों? कलियुग में अहम् व कर्तापन में आकंठ डूबे लोग कितने ही विद्वान गुणी या धनी क्यों न हों यह सत्य समझने को राज़ी नहीं हैं कि सत्य कृपण नहीं हो सकता वह तो उदारता का मूर्तरूप है, सबका कल्याण चाहता है। कई संकेतों से अपने को प्रस्तुत करता है पर अपने ज्ञान की चतुराई में रमे समझते हैं कि कुछ लाभ उठाने आया है।

कलियुग में इतनी क्षमताएँ, योग्यता, साधन, ज्ञान व सामर्थ्य होते हुए भी इतनी कुव्यवस्था, असंतोष, हिंसा, पदलिप्सा व असत्य का नंगा नाच क्यों? अपनी ही पद प्रतिष्ठा, भोग, ऐश्वर्य के लिए जिन कर्मठ सुपात्रों की सीढ़ी से ऊपर चढ़ते हैं उन्हीं का अस्तित्व कुचल कर उनके पल्लवित होने के सभी मार्ग अवरुद्ध करते हैं। बस ‘मैं’ ही ‘मैं’ इस मानसिकता का फल सुखद हो ही नहीं सकता। कलियुग में सत्यता को अपना मार्ग प्रशस्त करने के लिए भागीरथ प्रयत्न करना ही होता है। क्योंकि उन्हें कलियुग कृष्ण चेतना से संयुक्त करा अपना सारथी बना विश्व-कल्याण का माध्यम बना के ही रहता है तभी सत्य जीतता है और सतयुग की ओर अग्रसर होता है।
यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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