कर्मों का चक्र

कर्मों का चक्र

अगला-पिछला सब दिमाग से निकालकर जो भी परिस्थितियाँ व कर्म सामने हों उसे पूरे मनोयोग व पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से पूजा की तरह, तपस्या की तरह करने में ही निस्तार है।

जो भी कर्म प्रकृति ने स्वत: ही सामने ला खड़ा किया है उसी से कर्म कटने का विधान, प्रकृति का विज्ञान व नियम होता है। उसे नकारने या बचने के उपाय ढूँढ़ने में समय नहीं गंवाना होता। जितनी श्रद्धा से उससे गुजरोगे उतना ही उसका जो भी कर्जा देना है वो निबट जाएगा।

कर्मों को पूर्णतया खेल लेना है तभी वो पीछा छोड़ेंगे। थोड़ा भी बेमन से या खीजकर जबरदस्ती किया गाली-सी देकर या ‘लैफड़’ के अन्दाज में, तो वैसी परीक्षा फिर से सामने आ ही जाएगी कभी न कभी।

जैसाकि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट कहा- ‘अपने आपसे सामने आ खड़ा हुआ युद्ध तो भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है।’

युद्ध करते-करते मरे तो स्वर्ग और जीते तो पृथ्वी का साम्राज्य। यही नियम है प्रत्येक कठिन स्थिति या जीवन में आई परीक्षाओं का-कूद जाओ, हारे तो विवेक का मोती और जीते तो सफलता का आनन्द। विवेक का मोती आध्यात्म की सीढ़ी चढ़ा देगा, सत्य का पाठ पढ़ा देगा और सफलता सांसारिक कर्त्तव्य निर्वहन की शक्ति देगी। अन्तत: तो आध्यात्मिक और सांसारिक विधाओं में संतुलन पैदा करना ही तो गीता का वचन है। जो कलियुग में पूरा होने का समय है।

तो सुख-दुख लाभ-हानि जय-पराजय यश व द्वन्द्व छोड़कर केवल कर्म के लिए कर्म करना होता है। जो कर्म सामने आता है या प्रभु ने आपको दिया है उसके लिए आपकी सारी आन्तरिक तैयारी भी होती है जिसका बुद्धि को पता नहीं होता पर मन जानता है तभी तो सामने कर्म परीक्षा की तरह आ खड़ा होता है। मानव के अन्तर के प्रभु ने उसे आकर्षित किया होता है मानव को उसकी प्रभुता याद दिलाने के हेतु। प्रणाम सदा यह बताता है कि जो भी सामने आ जाता है- योग-वियोग स्थिति-परिस्थिति वातावरण-कष्ट मानव-मानवी सब हमारे कर्म काटने को ही आते हैं। उन्हें शान्तिपूर्वक स्वीकार कर मन बुद्धि व शरीर का संतुलन बना धैर्यपूर्वक सेतु बनाना होता है जीवन-पथ पर निरन्तर चलने के लिए।

कर्मबंधनों से छुटकारा पाने का यही एक उपाय है। कर्म, कर्म से ही कटते हैं तर्कबुद्धि वाले उपायों से नहीं। तो हे मानव! कर्म कर, करता चल निरन्तर निर्बाध अविरल।
यही है सत्य
यहीं है सत्य

  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे