माना कि बहुत बड़ा है
झूठ का मकान,
हिम्मत कर
सच का एक पत्थर उछालो तो सही।
कौन कहता है कि
आसमां में छेद हो नहीं सकता,
आशा की डोर थाम
कर्म की पतंग उड़ाओ तो सही।
प्रणाम बढ़ चला है
सत्य, प्रेम व कर्म की डगर पर,
साथ आओ न आओ
पर ज़मीर को अपने, जगाओ तो सही
प्रभु सदा उनके साथ होते हैं, जिनकी अपने सत्-संकल्पों और अपनी दूरदर्शिता में पूर्ण आस्था होती है व इनको साकार करने की अदम्य शक्ति, साहस व योग्यता होती है। भारत की पावन भूमि की सदा यही परम्परा रही है, जो भी नेता राजनीति, अध्यात्म-दर्शन, ज्ञान-मार्ग या भक्ति-मार्ग में हुए वह सब पूर्णतया समर्पित थे और उदाहरणस्वरूप बने। आज युवा पीढ़ी उदाहरणस्वरूप ढूँढ़ रही है। ज्ञान की भरमार है पर उसे कर्म में बदल कर दिखाने वाले युगदृष्टा कहाँ हैं? आजकल ज्ञान तथा प्रसार के इतने अधिक माध्यम हैं कि सबको सब पता है कि कहाँ-कहाँ, क्या-क्या विसंगतियाँ, विद्रूपताएँ व कुरूपताएँ आई हैं पर निदान बताने वाले स्वयं भी उन्हीं में लिप्त हैं।
जब इंसान हल नहीं जान पाता, प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पाते और आत्मा चीत्कार करने लगती है कि बस अब बंद हो माँ दुर्गेश्वरी, झूठ का तांडव, भ्रष्टाचार का बवंडर और मानव का मानव के प्रति द्वेष। ऐसे में प्रकृति अवश्य ही उत्तर देती है- यही तो है संभवामि युगे-युगे। यह युगचेतना अब परिलक्षित हो रही है पर मानव-बुद्धि कुछ ऐसी है कि वह पिछले युगों की महान आत्माओं की आकृतियों से ही बँधी रहती है। कभी सोचा है वे सब एक-दूसरे से कितने भिन्न थे, मगर उनका सत्य एक ही था। भटकी मानवता को रास्ता बताना उदाहरण बनकर।
हमारे वेदयुक्त मनीषियों ने इस काल की गति व समय के चक्र की सत्यता प्रमाणित करने के लिए युगों को चार भागों में परिभाषित किया। सत, त्रेता, द्वापर व कलियुग। सतयुग में पूर्णतया प्रकृति का साम्राज्य होता है तो अपूर्णता व पूर्णता का संघर्ष होता है व अपूर्णता को जाना ही होता है। त्रेतायुग में समाज बना तो पाप व पुण्य का टकराव होता है तब राम के रूप में पुण्य को ही विजयश्री मिलती है। द्वापर में मानव चतुर हो गया कूटनीति, राजनीति, अर्थनीति आई विदुर के रूप में तो फिर धर्म-अधर्म का युद्ध हुआ। तब योगेश्वर कृष्ण ने धर्म की सत्यता स्थापित की। अब कलियुग में सब सीमा से बाहर हो गया है। मानव अपने झूठ को भी सत्य सिद्ध करने में अपनी सारी शक्तियाँ लगा रहा है तो अब टकराव है झूठ और सत्य का और अब सत्य को जीतना ही है क्योंकि कलियुग के बाद सतयुग ही आता है यही अटल सत्य है।
इन चारों युगों की तीन महाशक्तियाँ- महासरस्वती, महालक्ष्मी व महाकाली- सदा संयोजना करती हैं। जब युग परिवर्तित होता है तो पिछले युग की अपूर्णताओं से सीखकर कुछ समय तक महासरस्वती हावी रहती है फिर धीरे-धीरे महालक्ष्मी पहले तो सरस्वती का साथ देती है फिर उस पर हावी हो जाती है और सद्बुद्धि हरण कर लेती है। तभी तो लक्ष्मी का वाहन प्रतीक स्वरूप उल्लू होता है। जब सरस्वती बहुत कष्टï पाने लगती है तो महाकाली शक्ति जागृत हो फिर से-संतुलन लाती है-शुंभ-निशुंभ, चंड-मुंड, रक्तबीज, क्रोध, मोह, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष व अहंकार के प्रतीक स्वरूप राक्षसों से धरा को मुक्त करती है।
महाकाली, आंतरिक व बाह्य दो अग्नियों से मानवों की परीक्षा लेती है। ऐसी बीमारियाँ जो विज्ञान की पकड़ से बाहर हो जाती हैं, ऐसी आंतरिक अग्नियाँ जो नरक यातना की ही प्रतीक हैं। बाह्य अग्नियाँ बम, दुर्घटनाएँ, अग्निकांड, जंगल की आग, भूचाल आदि यह सब प्रकृति की ब्रह्मबोधि, महाकाली की ऊर्जा के रूप में परिलक्षित होती हैं। हे मानवों, जागो! कालचक्र को जानों जो सत्यमय होंगे उनकी रक्षा, प्रकृति स्वयं दुर्गा माँ बनकर अवश्य ही करेगी। माँ भारती की पुकार सुनो, अपूर्णता एवं झूठ को नकारो, प्रणाम के कर्म योद्धा बनो, सुप्त आत्मा जगाओ।
- प्रणाम मीना ऊँ