अब समय आ गया है कि आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) व धार्मिकता का अंतर स्पष्ट किया जाए। धार्मिकता मनुष्यों की बुद्धि से पनपा अध्यात्मवाद है, पंथ है, जिसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, जबकि आत्मानुभूति सच्चे मानव को प्रकृति द्वारा अनुभव कराई प्रकृति के ही नियमों वाले शुद्ध धर्म की सच्चाई है। कलियुग में धार्मिक गुरुओं व तकनीकों की भरमार ने सब गड़बड़ घोटाला कर दिया है। पर यह स्थिति भी प्रकृति की ही देन है ताकि सबके तीनों गुण रज-तम-सत खूब खेल लें तभी तो मानव गुणातीत होकर अपना सत्य जानकर सतयुग की ओर अग्रसर होगा।
आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) है शरीर, मन-मस्तिष्क व आत्मा के विज्ञान का ज्ञान। मानव का पूरी सृष्टि व प्रकृति से क्या सम्बन्ध है उसमें उसका पात्र क्या है और कैसे सुपात्र बनना है। यही तो वेद है जो सनातन है। सच्चे आत्मानुभूत-स्पिरिचुएल मानव की कोई छवि नहीं होती वह क्षण में जीता है न भूत में न भविष्य में। वह प्रतिक्षण जो सोचेगा, वही बोलेगा, वही करेगा। उसकी बात प्रवचन नहीं, वचन होती है सूफी वाणी की तरह। उसका प्रत्येक क्रियाकलाप प्रकृति की परम शक्ति युक्त, युगचेतना से संचालित होता है। वह केवल समय की मांग के अनुसार, धारण करने योग्य विवेक से प्रेरित हो कर्मरत होता है और उसके सारे कर्म ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण व्यवस्था को ही समर्पित होते हैं। उसका धर्म केवल मानवता के हित हेतु सत्य स्थापन करना ही होता है। जीते जी तो उसको विरले ही समझ पाते है उसके शरीर त्यागने पर लोग उसे समझने की चेष्टï में उसकी वाणी के अनुसार जीने की अपेक्षा उसे पूजने में ही लग जाते हैं। पर सच्चे आत्मानुभूत जीवित मानव का संसर्ग स्वत: ही अज्ञान रूपी अंधकार काटने में सक्षम है। देहांत के बाद तो सब अपनी अपनी बुद्धिनुसार उसके वचनों को बखानते हैं जबकि धार्मिक गुरुओं को जीते जी ही पूजकर व आशीर्वाद लेकर लोग अपना-अपना काम चलाने की होड़ में लगे रहते हैं। यही तो आलस्य है, बहाना है, अपने पर कर्म न करने का और अपना सत्य जानने की तपस्या से बचने का। मानव अपने कर्मों से व्यथित भ्रमित व मानसिक द्वंद्वों में उलझा धार्मिकता व सांप्रदायिकता के आडंबरयुक्त कर्मकांडों में उत्तर ढूंढ़ता फिरता है जबकि सही उत्तर तो ध्यानयोग से परमेश्वर से जुड़कर-योगकर, सच्ची आत्मानुभूति से ही पाया जा सकता है।
हे मानव! खत्म कर, ये शब्दों के भ्रमजाल अहमों के टकराव जो भी कर, सुंदर कर, प्रेम से कर नमन से कर, आनन्द से कर। आनन्द से किया कर्म आनन्द ही बिखेरेगा। कटुता-कटुता ही लाएगी। अपनी सच्चाई को जानकर भी यदि तुम अपने पर काम करने को टालोगे तो परमेश्वर सच्चिदानंद प्रभु का दिया सौभाग्य भी तुम्हें टाल देगा। मानव होने के आनन्द को अनुभव करने का सुअवसर भी तुम्हें टाल देगा। अब अपूर्णता को जाना ही है। चाहे धर्मों में हो, चाहे व्यक्तियों, समाजों या देशों में। जो यह समझेंगे वे ही तरेंगे। अरे मानव! इतनी-सी बात क्यों तेरी समझ में नहीं आती जो वास्तव में सही अर्थों में दिव्यता जगाती है।
- प्रणाम मीना ऊँ