सभी में एक नकारात्मक धारा होती है जो उनसे मूर्खताएं करवाती है। इस अंधकारमय तत्व के प्रति सचेत रहें । चेतन प्रयास करें, इसे बाहर फेंकने के लिए साधना करें।
अंधेरे तत्व से प्रभावित होकर आचरण ना करने के बारे में सोचना अपने अंतर से इसे
जड़ समेत उखाड़ना नहीं है। बस अपने आप को ध्यान से देखें कि कभी-कभी आपकी
भावनाओं और विचारों में बहुत उदारता होती है और किसी समय निरीक्षण करें कि दूसरों की कमजोरियों को गलत शब्दों और अनाचारों को आप इंगित करते हैं।
ये दोनों पूर्णतया विरोधाभासी व्यवहार और लक्षण हैं। जब आध्यात्मिक निर्बलता के समय, भीतर नकारात्मकता होती है तो बस यह स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए कि यह मेरा सत्य नहीं है।
लगातार ऐसा करने से यह लक्षण निकल जाएगा। हमेशा परमात्मा के लिए आंतरिक
आकांक्षा और ईश्वरीय कार्य के प्रति सचेत रहें।
जब कोई अपने लक्षणों और ओड़े हुए व्यक्तित्व, जो कि अहम् की उत्पत्ति है उससे
आगे निकल जाता है, तब ही मानव महान आनंद और भय रहित अस्तित्व का अनुभव करता है।
मानव अपने सत्य स्वरूप व अपनाए स्वरूप के बीच झूलता रहता है। छोटी चीजों के
लिए व्यथित हो जाता है और ओछी मानसिकता व संकीर्ण स्वार्थों में लिप्त हो जाता है। अपने में ही लिप्त रहने के कारण इसे रोकने के लिए इन विरोधाभासों के प्रति सचेत रहना होगा। दिव्य सहायता के लिए प्रार्थना करें कि वे इस अंधेरे तत्व को पूर्णतया नष्ट करने के लिए प्रकाश और अंधकार में अंतर जानने समझने के हेतु शक्ति और विवेक प्रदान करें।
अंधकार तत्व का नाश पूर्णता से… आंतरिक पूर्णता और शुद्धता
हे मानव, आंतरिक युद्ध से कोई बचाव नहीं, अंधेरे और प्रकाश का लगातार संघर्ष, जो मानव को दयनीय दुर्दशा में बांधता है, अवसाद विषाद और हृदय में पीड़ा, प्रेम और प्रकाश के अवतरण के लिए इसे जीतना होगा, द्वैत की उत्पत्ति को समाप्त करने को मानव के अंतर के अंधेरे तत्व में प्रकाश के प्रति शत्रुता छिपी है, वह लगातार प्रयत्न करता है उज्जवल सत्य को मलिन करने की।
हमारे विचार शब्द और कर्म पर एक धब्बा छोड़ता हुआ व्यक्ति के ऊपर अधिकार जमाकर उसे अस्पष्ट द्विअर्थी मकड़जालों में जकड़ता है। जब तक कि यह सत्य की तलवार से मारा नहीं जाता और एक निश्चय वाली अंत्तदृष्टि, दिव्यता और शांति की ओर नहीं मुड़ती व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा शुद्धिकरण में लंबा समय लग सकता है, या हो सकता है कि यह हो भी ना पाए। लेकिन ईश्वरीय कृपा से यह शीघ्रता से प्रगतिशील हो जाता है। इसके लिए पूर्ण समर्पण और आत्म-समर्पण की आवश्यकता है। पूरी तरह से शांत रहें, अपने अंतर की चेतना के विशाल सागर की तरंगों से बिल्कुल मुक्त। सभी उथल-पुथल और इंद्रियों से रहित होकर अहंकार के सभी रूपों को उखाड़ फेंके- एक सच्चे मार्गदर्शक मित्र के सामने हृदय को खोलकर रखने के लिए यह अत्यावश्यक है।
– प्रणाम मीना ओम
सत्यमेव जयते – प्रेम सदा सफल है – कर्म ही धर्म है – प्रकाश मुक्तिदायक है…