पर्वतों के बीच

घनेरे बादल छू रहे तन को अतुल प्रेम से भरते मन को अंक में बादलों के यह शरीर नश्वर ठंडी-ठंडी सीली-सीली अनुभूति मधुर चारों ओर पेड़ ही पेड़ पौधे ही पौधे झूमती लताएँ औ' रंगीन फूलों के बूटे दिखते दूर-दूर जहाँ तक दृष्टि समाए मीना जीव के चारों ओर घेरा-सा बनाए नि:शब्द समर्पण में रहे भीग पर्वत महायोगी आँखें मींच मेरा अस्तित्व इस सम्पूर्णता का हृदय जैसा साक्षी केवल नश्वर शरीर का स्पंदन शाश्वत प्रकृति नटनी के नर्तन का बादलों की टप-टप रुनझुन का पहाड़ियाँ पेड़ तलाएँ भीगते गुपचुप से एक दाता एक क्लांत एक उग्र एक शांत बादल स्वच्छंद निश्शंक मुझे छूते घूमते चारों ओर पंचतत्व की अनुभूति पाने मानव गंध अपने में समाने पर होता नहीं एकतरफा कोई खेल मनभावन नमीं करे आत्मा से मेल नन्हा-सा अणु स्वरूप आत्मा मंडल मेरा विराट आभामंडल में प्रकृति के हो विलय एक रूप हो समरस हो रहा पृथकत्व भाव तिरोहित हो…

पूर्ण आतंकवाद

मानव मन की संकीर्णता व बुद्धि की क्रूरता न जीने दे न मरने दे न खुद को न किसी और को पर जिसके साथ कृष्ण चेतना का हाथ वो क्यों करे प्रतिकार क्योंकि वही नकारात्मकता वही आतंकवाद वही तो बनता उत्थान का आधार प्रभु तेरा आभार देता सदा वृश्चिक दंश दर्द की उठा लहरें बढ़ा देता रक्त संचार जो खोल देता गाँठें मन की अनेक औ' देता बुद्धि विस्तार बुद्धि विस्तार अपार जितना आतंक होता पूर्ण उतना ही पूर्ण होता अपूर्णता का संहार आतंकी का कर्म आतंक आतंकित का कर्म अनन्त आतंकी आतंक करके भी रहता चिंतित कैसे करूँ और आतंकित पर आतंकित पीड़ा सहकर नकारात्मकता को नकार कर चल पड़ता द्विगुणित शक्ति से उस पूर्णता की ओर जिसे जानकर पाकर ओ मेरे नंदकिशोर मन होता भावविभोर पूर्ण विभोर राम से कृष्ण तक सभी अवतारियों ने मारा मरवाया मारा मरवाया आतंकियों को आक्रांतियों को कंस और रावणों को अन्य युगों…

उड़ चल मीन मना

उड़ चल मीन मना उड़ जाएगा हंस अकेला हे मन मनमोहन अब कहीं और ले चल हो गये भारी-भारी से कुछ कठिन-कठिन से पल कितना पुकारा ओ मानव अब तो संभल… संभल पर बस मैं ही मैं का राग मेरा ये ठीक हो जाए मेरा वो ठीक हो जाए कुछ भी ऐसा हो जाए जिससे मुझे बस मुझे ही मुझे कैसे भी चैन व आराम मिल जाए सारा जीवन सुखी हो जाए यही हाहाकार सब ओर गहरा अज्ञान अंधकार छाया है ओ कृष्ण ओ प्रभु मेरे ओ मेरे मन तुमने मुझसे क्या करवाने का ठहराया है तुमने मुझसे क्या करवाने का ठहराया है इतना भ्रमजाल मोहमाया अहम् भार अब तू ही सँवार संभाल या दे दे कुछ कर्मठ सिपाही औ' ऐसे सलाहकार जिससे कम हो कुछ तो तेरा संकल्प भार क्यों लेते हो इतनी कड़ी परीक्षाएँ बारम्बार वचन तो तुम्हारा था संभवामि युगे युगे मैंने क्यों अपना जान मान लिया…

दृष्टा मन

खूब देख रही हूँ दुनिया का खेला झूठ का मेला अहम् का झमेला कैसे कैसे खेल देखे मीना का मन अकेला कैसे-कैसे खेल देखे मीना का मन अकेला यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

विष्णु की कर्मगति

युगों का खेला देखूँ मायावी मेला सत्य भाव संकल्प बन जाते सत्य भाव संकल्प बन जाते समय रथ कालचक्र पहिए ध्यान की रास विचार घोड़े सत्य की ओर ही तो दौड़े जहाँ पहुँची हूँ जहाँ पहुँचा है मेरा मन वहाँ से तो केवल दृष्टा बन बस देखना ही होता है हर पल की होनी के प्रति पूर्ण चैतन्य सदा चैतन्य सत् चित् आनन्द का मूर्तरूप धरे ऊर्जा की उर्मियाँ ज्ञान की रश्मियाँ भृकुटि की प्रत्यंचा पर सवार भृकुटि की प्रत्यंचा पर सवार दृष्टि के तीर से वहाँ ही तो भेजनी होती हैं जहाँ जूझ रही पूर्णता की गति सत्य की मति से झूठ औ' अपूर्णता की अति से सशरीर सारथी बन उतरना होता है खुले मैदान में तब ही जब हो जाते अर्जुन तैयार कहीं करने को हर कुरूपता का संहार रचने को सत्यम् शिवम् सुंदरम् संसार सत्यम् शिवम् सुंदरम् संसार यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

आकांक्षा करो

एक ऐसे संवेदनशील हृदय की जो सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करे ऐसे सुंदर हाथों की जो सबकी श्रद्धा से सेवा करें ऐसे सशक्त पदों की जो सब तक प्रसन्नता से पहुँचें ऐसे खुले मन की जो सब प्राणियों को सत्यता से अपनाए ऐसी मुक्त आत्मा की जो आनन्द से सबमें लीन हो जाए यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

प्रेम सींचे आत्मवृक्ष

जो दिखे नहीं फिर भी दीखे पाँचों तत्वों से पाँचों इन्द्रियों से झलके सृष्टि की हर छटा से वो प्यारा-प्यारा मधुर-मधुर अहसास जिसके आगे होते सारे के सारे अहसास फीके-फीके से जो न टिके न रुके न झुके कहीं भी पर बन स्मरणीय स्मृति की नाद गूँजे घट भीतर भिगोता गात सींचता प्रेम-वर्षा से आत्मवृक्ष कभी भी न रीते संसारी मायावी जीवन जीते-जीते भागदौड़ में न जाने कब हो जाते नयन भीगे-भीगे तो जान जाना नयन नहीं होते तब कृष्ण के भी सूखे स्मरण के तार से बँधे तेरे ही आत्मप्रेम से बिंधे युगों युगों से बस यही रूप तो स्मरण का नहीं बदला है युगों युगों से बस यही रूप तो स्मरण का नहीं बदला है इसीलिए तो इसका न कोई अदला-बदला है न कोई अदला-बदला है तुम्हारा ही अंश प्रभु का वंश मीना ऊँ यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

मानस पुत्री प्रकृति की

हुई अवतीर्ण एक मनु धरती पर खिली प्रकृति की मानसपुत्री-सी प्रकृति की इच्छास्वरूप मूर्तमान रूप आप ही अपने को जाना-माना देखा-परखा समझा-बूझा और कस-कस कर जीवन को कसौटी पर तत्पर हुई माना मार्ग चलाने को चल पड़ी अकेले ही अकेले सत्य की राह बनाने को होने लगे रूपांतरित इस आभामंडल से संसारी कर्मों के आकार-प्राकार अज्ञान की घोर अँधेरी रातों में प्रकृति के शाश्वत नियम स्थापन सत्यदीप प्रज्वलन को संकल्पित हुई धरा पर ओ मानव सुन तो ज़रा आत्मा की पुकार सत्य का चीत्कार अपने अणु-अणु में समाहित दिव्य विभूतियों का अपने अस्तित्व में दबी-ढकी असीमित क्षमताओं का जानकर रहस्य हो जा चैतन्य तेरे अंतस की पर्तों में छुपी आतुर दिव्यता जागृति को प्रकृति की अनन्य व्यवस्था के अनुरूप सत्य प्रेम प्रकाश द्वारा पोषित होने को हों सभी दिव्य आनन्द में लीन यही आकांक्षा प्रकृति की रहस्यमय प्रभु की प्रस्तुति की पर संभावना रहती दूर ही दूर क्योंकि अज्ञान ढके…

मीना जाने माने

मीना जाने और माने मानव में अपनी क्षमताओं से भी परे जाने की क्षमता है सारी शक्तियाँ हैं मीना ने देखा एक प्रफुल्लतापूर्ण प्रफुल्लित आनन्दमय प्रभु परमेश्वर बुद्धि और उसके आकर्षण से परे परे ही परे आत्मा का वैभव आत्मा का ऐश्वर्य न भय न असमर्थता न छोटेपन का भाव सब कुछ कर पाने की समर्थता का आनन्द सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशमय करने को तैयार एक युगातीत भारत सम्पूर्ण वेदमय-मेरा भारत यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

कैसे आओगे

हे मानव! कैसे आओगे कैसे पहुँच पाओगे तुम मुझ तक तुम कहते हो ज़रा मिलना है पूरा मिलना शायद तुम्हारे बस में है ही नहीं तुमने चाह लिया कि मिलना है तो हे मानव! क्या तेरी चाह से ही होगा मिलन सब कुछ तेरी चाह से ही होना चाहिए जो तू चाहता है वही क्यों होए तो जान ले यह सत्य जब तक ना आवेगा बुलावा सत्यमय परम का तू नहीं जा पाएगा कहीं भी न ऊपर न नीचे और अब तो दौर शुरू हो गया है छँटनी का कर्मयोगी सत्ययोगी प्रेमयोगी ही चल पाएँगे चल पाएँगे साथ प्रणाम के ......!! प्रणाम मीना ऊँ