बहे प्रेम की गंगाधार यही प्रणाम का आधार

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय क्या खूब कहा है कबीरदास जी ने। दुनिया में जिसने सच्चे प्रेम की झलक पा ली, समझो खुदा को पा लिया। क्योंकि सत्य अपनी चरम सीमा को पहुँचकर बस प्रेम ही प्रेम में बदल जाता है। एक ऐसी स्थिति हो जाती है कि सत्य और प्रेम एक ही हो जाते हैं। प्रकृति माँ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। गंगोत्री से बस एक पतली दूधिया धार बही और भागीरथ के अनथक प्रयत्न और प्रयास का उदाहरण बनी। अपने पुरखों के तरण तारण को, उनके अंतिम संस्कार को प्रेमपूर्वक करने का दृढ़संकल्प भागीरथ को इतनी अदम्य शक्ति प्रदान कर गया कि भागीरथ प्रयत्न मुहावरा ही बन गया और वह धारा भी भागीरथी कहलाई। फिर उसमें अलकनंदा की धारा मिल गई तो देव-प्रयाग बन गया। आत्मा से आत्मा का प्रेमपूर्वक संगम प्रयाग जैसा तीर्थ बना देता है।…

एक ही विकल्प प्रणाम का सत्य संकल्प

माना कि बहुत बड़ा है झूठ का मकान, हिम्मत कर सच का एक पत्थर उछालो तो सही। कौन कहता है कि आसमां में छेद हो नहीं सकता, आशा की डोर थाम कर्म की पतंग उड़ाओ तो सही। प्रणाम बढ़ चला है सत्य, प्रेम व कर्म की डगर पर, साथ आओ न आओ पर ज़मीर को अपने, जगाओ तो सही प्रभु सदा उनके साथ होते हैं, जिनकी अपने सत्-संकल्पों और अपनी दूरदर्शिता में पूर्ण आस्था होती है व इनको साकार करने की अदम्य शक्ति, साहस व योग्यता होती है। भारत की पावन भूमि की सदा यही परम्परा रही है, जो भी नेता राजनीति, अध्यात्म-दर्शन, ज्ञान-मार्ग या भक्ति-मार्ग में हुए वह सब पूर्णतया समर्पित थे और उदाहरणस्वरूप बने। आज युवा पीढ़ी उदाहरणस्वरूप ढूँढ़ रही है। ज्ञान की भरमार है पर उसे कर्म में बदल कर दिखाने वाले युगदृष्टा कहाँ हैं? आजकल ज्ञान तथा प्रसार के इतने अधिक माध्यम हैं कि सबको सब…

सृष्टि से सृष्टि जैसी प्रीति यही प्रणाम की रीति

पवित्र प्रेम, सबसे प्रेम, एक जैसा प्रेम, जड़-चेतन से प्रेम, कण-कण से प्रेम ही तो सृष्टि से प्रीति है। मानव को सृष्टि ने पूर्ण प्रेम से तन्मय प्रेम से मनोमय प्रेम से गढ़ा है। क्योंकि सृष्टि यह जानती है कि मानव उसी की तो अनुकृति है जो उसी का छोटा-सा अणुरूप ही है। वह अपनी सत्ता को बोल बता नहीं सकती, सुना नहीं सकती जिसको जरूरत हो उसके लिए रुक नहीं सकती, इसीलिए उसने यह पुतला बनाया, मानव मूर्ति रचाई। जिसको अपने सभी गुण देकर धरती पर भेजा कि सृष्टि के सौंदर्य की मूर्तरूप में स्थापना हो सके। एक सौंदर्यमय पूर्ण विकसित व्यक्तित्व वाले मानव को देख लोग सृष्टि के सौंदर्यमय, प्रेममय और सत्यमय अथाह सागर का आभास कर सकें। पर सृष्टि मानव को पूर्णता का रूप बनाने के चक्कर में बुद्धि से भी पूर्ण कर गई और वह बुद्धि मानव ने अपनी स्वार्थमय सोच से विवेकहीन कर ली। जो…

प्रकृति-असत्य विनाशिनी प्रणाम प्रकाशिनी

जागो, भारतीयों! महाकाल का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया-जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बँधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति का न्याय सर्वोपरि है जो मानव बुद्धि से परे है। सब कर्मों का चक्र फल यहीं पूरा होता है यही है सत्य। पर इस चक्र के जंगली स्वरूप को सुव्यवस्थित करने हेतु मानव को बुद्धि दी गई। जिससे अच्छी समाज व्यवस्था, सच्ची न्याय व्यवस्था और नीति-युक्त राजव्यवस्था का सुंदर समन्वय हो सके। ताकि सब सभ्य समाज में मिल-जुलकर सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक रहें, तरक्की करें और प्रभु के प्रेम रूप को धरती पर मूर्तरूप दे पाएँ। पर जब न्याय, समाज और राज सब की सब व्यवस्थाएँ सत्ता व स्वार्थ में लिप्त होकर झूठी और अमानवीय हो जाती हैं और जनसाधारण का उनमें विश्वास ही नहीं रह जाता तो जनता का क्रोध उन्माद के रूप में ही परिलक्षित होता है। उसके क्रोध-प्रदर्शन में विवेक या कोई व्यवस्था…

करो नई पौध तैयार कहे प्रणाम पुकार

प्रकृति का नियम है पका फल पेड़ पर अधिक देर तक लगा रह ही नहीं सकता वह टपकेगा ही कभी न कभी। पेड़ की फल देने की भी एक क्षमता होती है उसके बाद नए पेड़ आते हैं। यही क्रिया मानव जीवन की भी है। नई पीढ़ी को तैयार करना ही मानव धर्म है। पुरानों को जो कि अपना कर्म कर चुके होते हैं, उन्हें जाना ही होता है। उनका कर्म कैसा रहा, उनका योगदान क्या रहा या उन्हें क्या करना चाहिए था। इन सब बातों की आलोचना और विवेचना में अब और ऊर्जा व समय नहीं गंवाना है। पुरानी त्रुटियों से यह सीखना है कि हमें यह नहीं करना होगा। धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक क्षेत्रों में जो भी विकृतियाँ आ गई हैं उन्हें अपने प्रेम, सत्य व कर्म से दूर करने का पुरुषार्थ ही अब नए प्रभात की ओर जाने का मार्ग है। हमारी सारी समस्याओं की जड़…

प्रणाम माँ सरस्वती कर प्रकाश, दे सन्मति

सरस्वती नमस्तुभ्यम् वरदे कामरूपिणीम्विश्वरूपी विशालाक्षी विद्या ज्ञान प्रदायने। हे माँ सरस्वती नमन वंदन, कामरूप सृष्टि उत्पत्ति की समग्रता में व्याप्त विश्वरूपिणी, सर्व विद्यमान, दूरदर्शिता से परिपूर्ण विशाल नेत्रों वाली विद्या और ज्ञान का वर दें। ब्रह्म की सृष्टिï को पूर्णता तक ले जाने का मार्ग सब प्रकार की विद्याओं और कलाओं से प्रशस्त करने वाली देवी शारदे सदा ही वंदनीय हैं। दिन के आठों पहर में एक बार प्रत्येक मानव की वाणी में सरस्वती अवश्य ही प्रकट होती है। पर संसार में लिप्त मानव बुद्धि उसे समझ ही नहीं पाती। कई बार अनुभव तो सबको होते हैं कि किसी ने कुछ कहा और वह सच हो जाता है पर इस क्षमता को पूर्णता देना ताकि वाणी में सदा ही कमलासना का वास रहे यह केवल कस्तूरीयुक्त माँ सरस्वती की सतत् साधना व आराधना से ही सम्भव है। इनका वाहन हंस है। हंस की विशेषता है कि अगर दूध और पानी…

सत्य गीता प्रवाहिनी बनेगी प्रणाम वाहिनी

मैं युग चेतना हूँ गीता हूँ सुगीता हूँ वेद हूँ विज्ञान हूँ विधि का विधान हूँ जैसा प्रकृति ने चाहा वही इंसान हूंँ मानसपुत्री प्रकृति की सर्वोत्तम कृति सृष्टिï की वही तो हूँ कर्मयोगी, प्रेमयोगी, सत्ययोगी यही है सत्य, यहीं धरा पर है सत्य जब से सृष्टि बनी तभी से सत्य की स्थापना को ईश्वरीय सत्ता माध्यम ढूँढ़कर अपने प्राकृतिक नियमों के हिसाब से तैयार कर ही लेती है। जो भी साधना करते हैं या सत्य को जानने का पुरुषार्थ करते हैं उन सबको कृपालु परमेश्वर अवश्य ही शक्ति प्रदान करते हैं। पर उसका प्रयोग कौन कैसे करता है यहीं मानव की अहम् बुद्धि गच्चा खा जाती है। अपनी महत्ता बताने को तरह-तरह की युक्तियों की भूलभुलैया में मानव खो जाता है। बिना पूर्ण समर्पण के, बिना युग चेतना से जुड़े शक्ति का प्रवाह कर देता है। एक ही धर्म मानवता का जो वेदों का सत्य है उसकी स्थापना का…

कर कर्म अर्पण उसको कर प्रणाम सबको

जो कुछ भी करो सोचो या बोलो यह समझकर करना है कि सब कुछ वही परम शक्ति करवा रही है और उसका दिया उसी को अर्पित करना है। उस परम तत्व को जिसे चाहे परमेश्वर कहो, कृष्ण कहो, खुदा कहो या राम-रहीम कहो। जिसको हम अपना परम प्रिय मानते हैं उसे हम कभी भी निरर्थक या गंदी वस्तु तो देना ही नहीं चाहेंगे तो अच्छा ही अच्छा अर्पण करना है। हमारा वेद दर्शन तो कण-कण में प्रभु को देखना बताता है मगर एक अच्छे इंसान में हम प्रभु देख नहीं पाते, हर जड़-चेतन में देखना तो दूर की बात रही। कैसे आएगी वह स्थिति जब कण-कण में ईश्वरीय सत्ता की विभूति दिखाई देने लगेगी जो भी सीखा, पढ़ा, गुना हुआ ज्ञान जब हम अपने चित्त को शिष्य और उसे गुरु मान, तपस्या की तरह गुनते हैं, कर्म करते हैं और अनुभव कर सच्चाई तक पहुँचते हैं, तब ऐसी स्थिति का…

सत्य मार्ग प्राकृतिक मार्ग – माना मार्ग

लहू का रंग एक है अमीर क्या गरीब क्या, बने हो एक खा$क से तो दूर क्या करीब क्या ! आओ, सब मिलकर तय करें कि एक मार्ग मानवता का, इंसानियत का ही माना जाए तो क्या यह मंजूर होगा सबको। नई किताब इंसानियत की, नई नीति सरल-सी। नया धर्म जो सब धर्मों का निचोड़ है, सत्य, प्रेम और कर्म, चाहो तो उसे माना मार्ग कह लो। माना का अर्थ है, जो सबको मान्य होगा और मान्य होना चाहिए क्योंकि इसमें बंधन नहीं है, एक मार्ग है एक रास्ता है, जिस पर चलते चलो। चलने का भी आनन्द और पाने का भी आनन्द और पाना-खोना क्या जब सारा सफर ही सुहाना हो जाएगा। जो लोग इंसानियत को नकारते हैं वही लड़ेंगे-मरेंगे कि मेरा धर्म तेरे से बेहतर है। अगर यही रवैया रहा तो अंत में किसी का भी भला नहीं होने वाला। जिनको लड़ने-लड़ाने से मजा आ रहा है उन्हें…

उगा सूर्य प्रणाम का नवयुग के प्रमाण-सा

बढ़ना है सुप्रभात की ओर सत्य प्रेम की पकड़ डोर कालगति का सतत् प्रवाह घूम गया सतयुग की ओर कालचक्र घूमा है। समय करवट ले रहा है तभी धरती डोल रही है। सब उन्नत होते मानवों में आंतरिक बेचैनी-सी व्याप गई है, खालीपन कुछ खोया-सा कुछ अजीब सा सूनापन या तटस्थता-सी छाई है दिलों पर। खोल दो दिलों के ताले, उड़ने दो मन पंछी को आज़ाद। अपने अपने सत्य को स्वीकार कर लो। अपने ही मन की अदालत में मुक्त हो जाओ पाप-पुण्य गलत-सही के संघर्ष की दुविधा से। क्योंकि अब सबको सच्चाई की नई दिशा की ओर बढ़ना ही होगा। सब मानवकृत धर्मों का शोर-शराबा भूलना ही होगा। इंसानियत का धर्म अपनाकर संतुलन पैदा करने की बारी आ गई है। तू बदलेगा, मानव तुझे बदलना ही होगा। बदलाव की घड़ी सिर पर खड़ी है, आ ही पहुँची है। अब तू चाहे या न चाहे तेरी मानसिकता उधर ही चलेगी।…