जो तोकू कांटा बोए ताहि बोई तू फूल

जो तोकू कांटा बोए ताहि बोई तू फूलतोको फूल के फूल हैं वाको हैं त्रिशूल। तेरी राह में जो कांटे उगाए उसकी राह में तू फूल उगाता चल! तुझे तो फूल ही फूल मिलेंगे उसे त्रिशूल मिलेंगे। तीन शूल-बीमारियां व्यथाएँ व दुर्घटनाएँ उसको खुद ही सताएँगी। सब कहते हैं हम तो अच्छा ही करते हैं दूसरों का क्या करें? बाहरी परिस्थितियाँ खराब हैं, क्या करें? तो भई बुराई कौन कर रहा है, इसका निर्णय कौन कर सकता है इसका अधिकार सिर्फ प्रकृति को है। उस प्रकृति को जो भगवान की भी जन्मदात्री माँ है। माँ बच्चों को सजा भी कुछ सिखाने के लिए ही देती है। भगवान तो हमारे ही अंदर है अगर वह हमारे अंदर बैठा-बैठा सबको दोष ही दे रहा है तो इसका अर्थ है हमने अपने अंदर के भगवान को नहीं पाया। जब उसको पा लेंगे तो वह तो बस प्रेम ही प्रेम का रूप है। यह…

मनका मनका फेरता गया न मन का फेर

मनका मनका फेरता गया न मन का फेरकर का मनका गेर के मन का मनका फेर माला के मनके घुमाता रहा और मन का, हृदय का फेर न गया, चक्कर न गया। अरे बंदे कर का, हाथ का मनका छोड़कर अपने हृदय के मनके को फेर उसको घुमा उलट-पलट कर देख तभी काम बनेगा। मोको कहाँ ढूँढ़े रे बंदे मैं तो तेरे पास में, ना काबे कैलाश में न काशी मथुरा वास में, ढूँढ़ो मन को तो मिलूँगा पल भर की तलाश में खूब पूजा की, भक्ति की, पूरी रीति से हवन अर्चना की। बड़ी अच्छी बात है। मन कुछ नियम संयम शान्ति तो पाता ही है पर सब पूजा पाठ तभी पूर्ण सफल होगा जब अपने अंदर जाकर वहां भी काम किया जाए। अपने अंदर जाकर मन की अदालत लगानी आ जाए वह ही सच्ची प्रभु की अदालत है जहाँ क्षमा ही क्षमा है प्रेम ही प्रेम है और…

बीती विभावरी जाग री कहे प्रणाम की बांसुरी

अंधकार स्वरूप रात्रि बीतने का और नव सुप्रभात के उदय होने पर सबको जगाने का, विशेष रूप से सखी जो साथ चलने को राजी हो, इसका कितना सौंदर्यपूर्ण चित्रण किया है, महान सरस्वती पुत्र जयशंकर प्रसाद ने बीती विभावरी जाग री। नभ पनघट में डुबो रही, तारा घट उषा नागरी॥ एक ब्रह्मा ही तो पुरुष है। हम सब उसकी सखियाँ व गोपियाँ ही तो हैं। तभी तो कहा है सखी जाग री। नभ के अनंत सागर रूपी पनघट में, एक-एक करके तारे रूपी घड़े, उषा पनिहारिन डुबो रही है। भारत में यह प्रभात की दिनचर्या रही है पनघट से पानी भर लाना। पानी वह जल तत्व है जो मानव जीवन का सत्व है। कबीर जी ने कहा है-बिन पानी ना उबरे मोती मानस चून। उषा की तरह प्रभात से पहले की ब्रह्मा बेला में, ज्ञान के अपार सागर से घड़ा भरना है ताकि दिन भर सत्कर्म की सद्बुद्धि रहे। रात…

तेज से मिलकर बढ़े तेज पुकारे प्रणाम सतेज

सं ज्योतिष: ज्योति यह यजुर्वेद का एक सूक्त है, जो तेज से तेज मिलाकर तेजस्विता बढ़ाने का आह्वान करता है यही तेजस्विता यज्ञ है। प्रणाम की पुकार यही है, आओ सब सत्य-योगियों प्रेमयोगियों कर्मयोगियों सब संगठनों के तेजोमय व्यक्तियों, इस अभियान यज्ञ में एकजुट हो आहुति डालो ताकि भारत माँ की शोभा फिर से स्थापित हो। भारत माँ महान सपूत जननी का गौरव पाए। जोत से जोत जलाते चलो - प्रेम की गंगा बहाते चलो एक मीठा प्रेम भरा शब्द ही सबसे बड़ा मलहम है दुखती हुई मानवता के लिए, इतने अवतारी पीर पैगम्बर आए इंसानों को राह बताने, क्या दुख कम हुए? हमने खूब पाठ पढ़े, मंत्र रटे पर कर्म नहीं किया। अब सच्चाई पर सच्चाई से अमल करने की बारी है। कब कहा हमारे सूफी संतों ने कि हमारे मरने के बाद महल दुमहले मंदिर मस्जि़द बनवाना। इनको सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब खून की जगह प्रेम की…

कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल

कलियुग में गीता का उद्घोष करने मन से मन की जोत जलाने सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी। कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन…

पाओ ज्ञान करो कर्म प्रणाम बताए जीवन मर्म

सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है। जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टिï के…

कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल

कलियुग में गीता का उद्घोष करने मन से मन की जोत जलाने सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी। कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन…

पाओ ज्ञान करो कर्म प्रणाम बताए जीवन मर्म

सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है। जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टि के लिए…

सेवा सौभाग्य निधि जीवन की

मानव जीवन एक सम्पूर्ण व्यवस्था है उसे टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। अधिकतर मानव यही सोचता है कि समय आने पर देखा जाएगा। पूरे जीवन की तैयारी साथ-साथ ही करनी होती है। खूब काम करो भरपूर कमाओ मस्ती से जियो। पर क्या मानव किसी भी विधि से एकदम सही जान सकता है कि कैसे भविष्य पूर्ण सौभाग्यमय रहेगा। जब कठिनाइयाँ व कष्ट आते हैं तो चिन्तित व विक्षिप्त होकर भाग दौड़ मचाता है मानसिक शारीरिक कष्ट भोगता है। समस्याएं जीवन से पूरी तरह मिटाई नहीं जा सकतीं। बीमारियाँ खत्म नहीं की जा सकतीं। वृद्धावस्था हटाई नहीं जा सकती। भाग्य किसी और से बदला नहीं जा सकता। पर उससे कैसे कम से कम व्यथित होकर धैर्यपूर्वक गुजरा जा सकता है यही सेवा के सत्कर्म व मानवता के धर्म के पालन का सुफल है। कौन है जो जीवन में कष्टों से नहीं जूझा। सत्य तो यह है कि अधिकतर महान विभूतियाँ…

हो प्रेममय विश्व सारा वेद का पसारा

हमारी वैदिक विद्या को शब्दों व तकनीक में नहीं बांधा जा सकता। वह तो अनुभव और प्रगति की निशानी है। उसको भुला देने पर ही उसकी अलौकिकता व दिव्यता खत्म होती जा रही है उसका सतत् प्रवाह रुक गया है उसी को तो अब खोलना होगा आत्मशक्ति द्वारा जन जागरण करके प्रणाम के सिपाही बनके। हमारी गंगा-जमुना जैसी निरंतर बहने वाली संस्कृति मैली हो रही है। अब रास्ते के भ्रष्ट पत्थर हटाने ही होंगे। अपने इक अदना तमाशे के लिए, सच को सूली पर चढ़ाया आपने। चारों ओर अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट और निम्न कोटि की व्यापारिकता छाई है, देश पर आए संकटों का एक तमाशा सा बना दिया जाता है। उसमें भी कुछ न कुछ किसी का क्या लाभ हो सकता है इसी में सारी बुद्धि और शक्ति लगाई जाती है। सब जान समझ रहे हैं यह बात। कुछ ऐसी मानसिकता हो गई है कि समस्याएँ हैं तो हमारा वजूद…