प्रणाम स्तुति ज्ञान से श्रीगणेश पूजा होवे गुण दूजा

श्री वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ:। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥ श्री गणेश घुमावदार सूँड़, बड़ी काया व करोड़ों सूर्यों की प्रभा ज्योत्स्ना वाले, मेरा प्रत्येक कार्य सदा निर्विघ्न करो। भारतीय परम्परा है कि कोई भी कार्य व्यापार से पूजा तक गणेश वंदना से ही प्रारम्भ होता है। यह एक रीति की तरह निभाया जाता है। इसका अर्थ बहुत ही गहरा व अर्थपूर्ण है। जिसको समझना व समझाना विशेषकर नौजवान पीढ़ी को अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इससे उन्हें हमारी संस्कृति और उसके वेदपूर्ण विज्ञान की सही पहचान होगी। देवी-देवताओं के स्वरूप व पूजा विधि में छुपी फिलॉसफी दर्शन व संदेश समझकर पूजा करने से ही पूजा पूर्णता को प्राप्त होती है। गणेश जी की घुमावदार सूँड़ कुंडलिनी शक्ति जगाने का प्रतीक है। लम्बे बड़े-बड़े कान दूरी तक दूसरों की बात आत्मसात् कर ध्यान देने का संकेत हैं। बड़ा पेट अपने मन की बात पूरी होने तक अंदर रखने की प्रेरणा…

प्रणाम भारत का धर्म सत्य प्रेम और कर्म

सदैव आकांक्षा करो एक ऐसे संवेदनशील हृदय की, जो सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करे ऐसे सुंदर हाथों की, जो सबकी श्रद्धा से सेवा करें ऐसे सशक्त पगों की, जो सब तक प्रसन्नता से पहुँचें ऐसे खुले मन की, जो सब प्राणियों को सत्यता से अपनाए ऐसी मुक्त आत्मा की, जो आनन्द से सबमें लीन हो जाए धर्म वही है जो जात-पात, ऊँच-नीच और मेरा-तेरा छोड़ सबको खुशी दे एवं उन्नत होने में सहायक हो। धर्म प्रेम का प्रसार है, ज्ञान के प्रकाश का विस्तार है। सब धर्मों का निचोड़ यही तो है। पर मानवकृत धर्मों के प्रचार की दौड़ में मुख्य बिंदु प्रेम प्रकाश सत्य व कर्म कहीं खो गया। भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के दायरे में बँधकर संकीर्णता की सीमा रेखाएँ अपने चारों ओर खींच ली। कबीर की कथनी भुला दी- पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय॥ मुसलमान भाईयों की नमाज़…

बने ज्ञान-विज्ञान श्री विद्या महान कहे प्रणाम

विद्या अंधकार दूर करने का माध्यम है। अपने को समझने का दूसरे को पहचानने का, घर परिवार समाज देश राष्ट्रों और ब्रह्माण्डों को समझने-बूझने का ब्रह्मास्त्र है। सच्ची विद्या परमानंद पाने का, घर-बाहर व नक्षत्रों इन सबसे अपने को संतुलित कर, तारतम्य बना कर उनमें मानसिक रूप में समाहित होकर पूर्ण लयात्मक होने का ज्ञान है। इससे शक्ति पाकर चारों ओर परम शान्ति प्रेम और आनन्द स्थापना का महामंत्र है। परमानंद प्राप्ति व ईश्वर प्राप्ति के बाद क्या करना है यही बताने का ज्ञान ही श्री विद्या है। कैसे दूसरों का ज्ञानदीप जलाना है उन्हें अपने से मिलना है अपना मार्ग स्वयं कैसे पहचानना है और निरंतर आगे बढ़ते ही जाना है। अपने शरीर, मन, बुद्धि व सब कर्मेंद्रियों व ज्ञानेंद्रियों को कैसे विकसित कर उनका प्रयोग सम्पूर्णता से सृजन करने, पूर्णता की ओर ले जाने और अपूर्णता के संहार में लगाना है। साथ ही साथ यह सत्य क्षणमात्र को…

प्रणाम कहे साधो सात जग सधे आपै आप

सात साधे सब सधे आप साधे जग सधे। सात रंग, सात स्वर, सात आकार, सात चक्र, सात ग्रंथियाँ, सात ऋषि, सात आकाश, सात तल अंतर्मन की गहराइयों के, सात समुद्र, सात दिन, सात ग्रह, सात सोपान युग चेतना के, मानव उत्थान के और सात ही शब्द सविता मंत्र के। ऊँ भू : ऊँ भुव: ऊँ स्व: ऊँ मह: ऊँ जन: ऊँ तप: ऊँ सत्यम् इन सबका ज्ञान व महत्व जानकर इस दिशा में प्रयास स्वत: ही मानव व सृष्टि संरचना के सब रहस्यों को खोल देता है। यह प्राकृतिक रूप से ही होना होता है। परम चेतना द्वारा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति पूर्ति और विनष्टि सहज ही होती रहती है। परम शक्ति की ऊर्जा परिणाम की चिंता से रहित स्वत: ही प्रवाहित होती रहती है। यदि परिणाम सुरूप और सत्यमय हो तो पूर्णता की ओर विकसित होता है। यदि कुरूप और अपूर्ण हो तो समय पर नष्टï हो ही जाता है।…

प्रकृति पूजा सर्वोत्तम पूजा, ऊँ महामंत्र-सा न कोई दूजा

क्या कभी प्रकृति का मंदिर देखा है या किसी ने प्रकृति का मंदिर बनाने का सोचा भी है। जिस प्रकृति से मानव बना पोषित हुआ उसको कभी सच्चे मन से धन्यवाद किया है? जिसने सब कुछ दिया, देती रहेगी बिना कुछ लिए दिए, बिना कुछ भेदभाव किए तुम उसके लिए क्या करते हो ज़रा सोचो तो। पूजा करने मंदिर जाते हो घुसने से पहले ही हिसाब किताब शुरू हो जाता है कितनी बड़ी माला, कितने का प्रसाद चढ़ाना है कुछ कम या ज्यादा ही हो जाए। कितने फूल तोड़े जाते हैं मसले जाते हैं सैकड़ों का व्यापार होता है। प्रभु तो एक फूल से ही खुश हैं न भी दो तो मन का भाव ही बहुत है। खूब प्रवचन सुना जाता है घण्टों समय बिता देते हैं। पर घर आते आते ही सब गुल हो जाता है वही राग-रंग, दुनिया के झमेलों में चक्रव्यूह में फंसकर अशान्त मन को फिर…

घट-घट में पंछी बोलता प्रणाम भेद खोलता

घट-घट में पंछी बोलता आप ही माली, आप बगीचा आप ही कलियाँ तोड़ता आप ही डंडी, आप तराजू आप ही बैठा तोलता सबमें सब पल आप विराजे जड़ चेतन में डोलता। कबीर जी की कथनी कितनी सरल और सटीक है! सब ज्ञान-विज्ञान का निचोड़ है। पर घर की मुर्गी दाल बराबर। यही हाल है पाश्चात्य सभ्यता के पीछे अंधे होकर दौड़ने वालों का। बड़ी हैरानी होती है दुनिया का तमाशा देख-देखकर। भारतीय कहलाने वाले हीलर्स और अध्यात्म विधाओं के मास्टर्स और गुरु लोग विदेशी तकनीकों वाले मास्टरों की बातें आँखें मूँदकर मान लेते हैं कि ऊर्जा का बदला (एनर्जी एक्सचेंज) या ऊर्जा का मूल्यांकन बहुत जरूरी है। इसी आधार पर प्रत्येक विद्या को तकनीकों में बाँधकर प्रदर्शन व कमाई का साधन बना लेते हैं। उनके व्यापारिक दृष्टिकोण को तो भाग कर कस कर पकड़ लेते हैं व कमाई की ही सोचने लगते हैं। जबकि हमारी पुण्य धरती के राम, कृष्ण,…

आत्मानुभूति व धार्मिकता

अब समय आ गया है कि आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) व धार्मिकता का अंतर स्पष्ट किया जाए। धार्मिकता मनुष्यों की बुद्धि से पनपा अध्यात्मवाद है, पंथ है, जिसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, जबकि आत्मानुभूति सच्चे मानव को प्रकृति द्वारा अनुभव कराई प्रकृति के ही नियमों वाले शुद्ध धर्म की सच्चाई है। कलियुग में धार्मिक गुरुओं व तकनीकों की भरमार ने सब गड़बड़ घोटाला कर दिया है। पर यह स्थिति भी प्रकृति की ही देन है ताकि सबके तीनों गुण रज-तम-सत खूब खेल लें तभी तो मानव गुणातीत होकर अपना सत्य जानकर सतयुग की ओर अग्रसर होगा। आत्मानुभूति (स्पिरिचुएलटी) है शरीर, मन-मस्तिष्क व आत्मा के विज्ञान का ज्ञान। मानव का पूरी सृष्टि व प्रकृति से क्या सम्बन्ध है उसमें उसका पात्र क्या है और कैसे सुपात्र बनना है। यही तो वेद है जो सनातन है। सच्चे आत्मानुभूत-स्पिरिचुएल मानव की कोई छवि नहीं होती वह क्षण में जीता है न भूत में न भविष्य…

मानव तेरी छवि हो परम : छवि का भव्य प्रतिबिम्ब

स्मृति अनंत सागर, स्मरण की बना मथनी, बुद्धि की बना डोर, इच्छा की लगा शक्ति, ध्यान का लगा ज़्ाोर, काल का चक्र घुमा पाया अनमोल रतन तत्व ज्ञान का मानव विधान का स्वत: ही सीखो और आगे बढ़ो। यही है श्रीकृष्ण का स्वाध्याय योग। हम अपने अधूरे ज्ञान को बहुत कुछ मान लेते हैं, और उसकी अहंकारमयी चादर अपने चारों ओर लपेटकर अपना व्यवहार निश्चित कर लेते हैं। संसार से प्राप्त अपरा ज्ञान व तकनीकी ज्ञान को भौतिकता की अंधी दौड़ में व व्यापारिक दिशा में पूरी शक्ति से लगा देते हैं। व्यापारिक दृष्टिकोण का फल भी व्यापारिक ही होगा। जब तक उस भौतिक ज्ञान को भुनाने की शक्ति रहेगी काम चलता रहेगा जब शारीरिक शक्ति चुक जाएगी, एकदम खाली-खाली महसूस करोगे और जो संग्रह किया उसमें लिप्सा और आसक्ति बढ़ जाएगी। फिर बचेगा क्या बस, तनाव, कुंठाएँ, मानसिक-शारीरिक पीड़ाएँ और बीते दिनों को याद कर वर्तमान को कोसना। कमाने…

नानक दियो शबद महान यही माने प्रणाम

यही रहे प्रभु मेरो व्यवहार, रहूँ तरनतारन को तैयार स्वत: हो दुष्टों का संहार, यही कर्ममय शक्ति दो अपार करे दूर सब दुख ताप भार, सत्यमय हो सकल संसार तेरो शबद मेरो राखनहार। एक शब्द में संसार समाया है। एक प्रेममय भावपूर्ण सकारात्मक शब्द में कितनी शक्ति है इस बात को मानकर विश्वास रखें तो मानव अपने आप ही सत्य ज्ञान व तत्वविधान की सीढ़ी चढ़ जाएगा। बहुत ही तथ्यपूर्ण व गागर में सागर वाला नाम दिया गया है गुरुवाणी के पवित्र ग्रंथ को। जब नाम दिया गया था तो उस समय विज्ञान ने इतनी तरक्की भी नहीं की थी कि आवाज़ व शब्दों की गति और कंपन को जान पाता। मगर आज विज्ञान जान रहा है कि आवाज़ की कंपन गति (वाइब्रेशन) का प्रवाह प्रचार माध्यमों के सहारे कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच रहा है। धन्य हैं हमारे तत्वज्ञानी संत-महात्मा जो जानते थे कि जैसे विचार होंगे वैसे ही शब्द मुख…

ज्ञान जाने सो ज्ञानी : अज्ञान को भी जाने सो तत्वज्ञानी

जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान,मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान। म्यान ही अज्ञान है और अब हाल यह है कि म्यान जितनी ज्यादा चमकदार सोने चांदी वाली हीरे मानक जड़ी होगी, उतना ही चारा डल जाएगा भेड़चाल वाली मानसिकता के सामने। ज्ञान तो बस एक ही बिन्दु समान है बाकी सब अपनी अपनी बुद्धि और अपने व्यक्तिगत हिसाब और सामर्थ्य के फैलाव ही फैलाव हैं। उपनिषद् में कहा गया है कि सच्चा साधक वही है जो भूसे की तरह सारे ज्ञान को पोथियों को छोड़कर एक मोती बीन ले और उसी पर अपने सत्य को परख-परखकर जीवन को ऐसी ज्योति बना ले जो जनमानस को जगा दे। जितना ज्ञान को जानना जरूरी है उतना ही यह भी जानना जरूरी है कि अज्ञान क्या है। क्या छोड़ना ही होगा ज्ञान पाकर उसे जीवन में उतारकर, अनुभव कर उसमें नया जोड़ना युग चेतना के हिसाब से, यही…