सत्य दिव्य शक्ति है

हे मानव ! सत्य की शरण में आ। त्याग अहम् दे सत्य का साथ। सत्य की विडम्बना यही है झूठ तो झूठ का साथ देने को झट से तैयार हो जाता है और सारे क्रियाकलाप व काले धंधे सिर्फ वचनों और इशारों से ही विश्वसनीयता से सम्पन्न कर लेता है पर सत्य अकेला रह जाता है। अपने सत्य और अहम् ब्रह्मास्मि के मंदिर में बंद या फिर विवादों के अखाड़ों में अपने सत्य को औरों के सत्य से ऊंचा और सही प्रमाणित करने के फेर में बड़े-बड़े दार्शनिक शब्दों के दाँव-पेंच लड़ाता रहता है। समय की पुकार पर कर्म करने से विमुख हो जाता है। ऊर्जा हनन, अपने सत्य को मनवाने में कर देता है। दूसरे की लाइन मिटाकर अपनी बड़ी करने का कोई भी औचित्य है ही नहीं। एकलव्य का अँगूठा काटने वाले भी न रहे। सत्य धर्म से राज धर्म व त्यागमयी कर्ताभाव वाली प्रतिज्ञा को अधिक महत्व…

पूर्णता की सच्ची साधना

हे मानव ! पूर्णता की साधना प्रत्येक पल को सम्पूर्णता से जीने में ही निहित है। सच्ची साधना वही है कि जो भी कार्य आपको प्रभु कृपा से प्राप्त हो गया उसे ही अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से निभाना और पूर्णता की ओर ले जाना। पूरे मनोयोग से किया गया कार्य ही बड़ाई पाता है प्रभुता प्राप्त करता है। जब भी कोई नया आविष्कार या कार्य सम्पन्न होता है तो वह इसी बात का साक्षी है। सारा ज्ञान-विज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त है और मानव इसी असीमित सत्ता का छोटा सा अणुरूप अनुकृति है। ब्रह्माण्डीय तत्वों का ही तो पुंज है मानव। तो जो ज्ञान ब्रह्माण्ड संजोए है वही मानव मन मस्तिष्क में अदृश्य रूप में संचित है। जो सौर ऊर्जाएँ व ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ चारों ओर हैं वही सब मानव में भी हैं। पर पूर्णता की साधना करने वाला जो मानव ध्यान की शक्ति पूर्णतया केन्द्रित कर…

श्री विष्णु अवतार की विडंबना-2

हे मानव! तू नहीं जानता कैसे अर्जित की जाती है एक ऐसी मनोहारी मुस्कान जो मूर्तियों और चित्रों में भी जीवंत होकर सदा राह सुझाती है। जब तुम उसके समक्ष होकर अपने कष्ट गिनाते हो तो वह रहस्मयी मुस्कुराहट जैसे कह रही होती है कि तूने तो कुछ भी नहीं झेला जो मैंने झेला है तू इतने से ही घबरा गया। जरा सोच अवतारों को तू ही तो कष्ट देता है, नकारता है, ध्यान की तपस्या देता है पर कालांतर में उन्हीं के मूर्तिरूप के सम्मुख हो शान्ति और वरदान की अपेक्षा रखता है। ले सुन श्री विष्णु की नियति की गाथा :- जीवन से तप-तप कर जीना, अपनों से मिल-मिल के बिछुड़ना काम निकलने पर मुँह मोड़ना, आराम से एक पल में दिल तोड़ना सब सिखा गया वैराग्य की नीति कर्म की रीति अंतर्मन के ज्ञान की भक्ति मोह माया की सत्य, प्रेम व प्रकाश में परिणति कोमा में…

श्री विष्णु अवतार की विडंबना-1

हे मानव! जरा सोच तो तू कितनी मौज की स्थिति में है। सब गुण खेलता है। हँसता, रोता, लड़ता, झगड़ता और अपने मन की करता ही रहता है। कुछ गड़बड़ हो जाए तो ऊपर वाले को दोष देने से भी नहीं चूकता। पर श्री हरि जो अवतार रूप में मानव होकर धरती पर सारी मानवता को राह दिखाने आते हैं क्या होती है उनकी नियति। विष्णु की यह विडंबना जाने मनु तभी तो कहा है:- क्यों आते हो बार-बार शापित होने जबकि शाप देने की कला तो तुमको आती ही नहीं फिर तुम कहाँ के सर्वकला सम्पूर्ण ओ जगदीश्वर वरदान देना मुँह से तुमने जाना ही नहीं तभी तो तुम्हारे अस्तित्व, अहम् की पूर्णता को किसी ने माना ही नहीं दूसरे देते रहते वरदान बोल-बोलकर तुम करते रहते कर्म अन्दर तौल-तौलकर ब्रह्मा से भोले भंडारी शिव तक ऋषि मुनि तपस्वी देते रहें श्राप औ' वरदान अपनी अपनी सिद्धियों के भान…

ज्ञान करे जीवन को जीवंत

हे मानव! ज्ञान सीप में छुपा मोती बीनना सीख। जीवन सिर्फ जीकर ही बिता देना नहीं है जीवंत हो जीना है। ज्ञान मार्ग है उस महानतम सत्य सच्चिदानंद, सत् चित् आनन्दस्वरूप को पाने का जो न खुशी है न गम न दुख न सुख न ही अहम् या त्वम्। एक अलौकिक दिव्य अनुभूति सब कुछ जान समझ लेने की, न प्रश्न, न जिज्ञासा, न संशय, न उत्सुकता, बस प्रफुल्लता ही प्रफुल्लता। परा चेतना से जुड़कर नित नवनूतन आनन्द उगने बढ़ने और खिलने का व अनावश्यक तत्वों का सूखे पत्तों की तरह स्वत: ही झड़ने का। ज्ञान मार्ग कठिनतम मार्ग है इसमें रोज नई नई शाखाएँ फूटती रहती हैं और मानव बुद्धि उनकी ही गुत्थियाँ सुलझाने में फँसी रह जाती है। अहम् के ही नित नए सोपान गढ़ लेती है। सच्चिदानंद के प्रकाशमय स्वरूप को जानने के लिए तन-मन को ज्ञान ज्योति बनाकर जलाना व तपाना होता है। यदि यह न…

जीकर जान गीता का ज्ञान

हे मानव! जान ले कि अब समय आ गया है गीता में कुछ और भी नया जुड़ने का और तूने तो अभी तक गीता को ही पूरा जानकर जीकर उसके अनुभव को नहीं जाना है तो आगे कैसे बढ़ेगी तेरी प्रगति। युग चेतना की वाणी है गीता, न प्रवचन न उदाहरण स्वरूप रोचक कथाएँ। प्रश्नों के सटीक सीधे उत्तर जो श्री कृष्ण ने वेद व शास्त्रानुसार जीवन जीकर उसी के अनुभव के आधार पर दिए हैं। गीता के अनुसार जीवन जीकर ही तो कुछ और नए प्रश्न बनेंगे जिनके उत्तर प्रकृति का तैयार किया कलियुग का उन्नत माध्यम अवश्य ही देगा और गीता में नए आयाम जुड़ेंगे। गीता भी उसी को पूरी तरह समझ में आ पाएगी जिसने श्री कृष्ण के जीवन के दर्द व मर्म को पूर्णतया आत्मसात् कर समझा हो कि कितनी वैराग्य और कर्म की तपस्या के बाद वाणी गीता हो जाती है। गीता कहनी भी सुपात्र…

आस्था से हो सब मंगलमय

ऐसा हो बदन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे, ऐसा हो मन कि कृष्ण ही कृष्ण सुझाई दे हे मानव! आस्था की मान्यता का रहस्य जान। जीवन में आस्था ही सब कुछ है। आस्था अंध-भक्ति का नाम नहीं। आस्था से सदा सब कुछ मंगलमय हो इसके लिए सुपात्र होना ही होगा। सत्य-कर्म व प्रेम के मार्ग पर चलकर ही प्रभु का कृपा पात्र बना जा सकेगा। आस्था रखने के बाद भी बहुतों को प्रभु से शिकवा-शिकायत होने लगती है। ऐसा वैसा क्यों हुआ यह भाव आने लगता है। क्योंकि वे सब कुछ अपनी आस्था व प्रभु पर छोड़कर अपने ही हिसाब से कर्ताभाव में जीते रहते हैं कि हमारी आस्था है तुम पर प्रभो तुम्हें सब ठीक रखना है। मानव यह ज्ञान नहीं जानता कि जब प्रभु-कृपा बरसेगी तो दरवाजा खुला होता है या बंद। झूठ, अहंकार, स्वार्थ, मोह, अहम् आदि के अंधकार से कपाट बंद रहते हैं उसे खोल…

श्री सद्गुरु की विडंबना

हे मानव! समझ सच्चे गुरुओं के मन की बात जो सदा कल्याणकारी मार्ग बताने को प्रयत्नशील रहते हैं मनु कहे वही कथा- कंघे बेचूँ गंजों को, आईने बेचूं अंधों को ज्ञान बेचूँ अक्ल मंदों को, प्यार बाँटू कृतघ्नों को मान दूँ अहम् वालों को, कर्म पढ़ाऊँ कर्महीनों को कभी-कभी सोचूँ वंदनीय गुरुओं की बाबत क्या होती होगी उनके मन की हालत आज शिष्य हो गया चतुर महान जरा सा कर दिया गुरु जी का सम्मान भोले गुरु बाँटें आशीर्वाद भर-भर झोली बोलें भावभीनी मधुर-मधुर बोली शिष्य हो धन्य पाते प्रसाद आ जाएंगे फिर कभी जब होगा विषाद। आशीर्वाद ले चंपत हो जाते अपने दुनियावी खेलों में रम जाते गुरु देवें दिव्य प्रवचन, शिष्य देवें ताली जिसे न लुभाया वही घर जा देवें गाली बाकी सब बहुत ही व्यस्त गुरु जैसे सबसे खाली सामने आकर खूब मान-सम्मान, गुणगान ताकि गुरु जी प्रेम से करें उनका मनोरंजन जैसे बेच रहे हों दंतमंजन…

मानव होने का गौरव

हे मानव! अपने मानव होने की महत्ता जान, यदि मानव होने के आनन्द की अनुभूति इसी जीवन में एक बार भी न कर पाया तो मानव जन्म व्यर्थ ही गंवाया, जानवर की तरह चुक गया। मानव को प्रकृति ने तीन गुण अपने से अधिक दिए हैं क्योंकि प्रकृति किसी के लिए रुकती नहीं। मानव रुक सकता है इसीलिए मानव को बुद्धि दी ताकि इन तीनों गुणों को विकसित कर चारों ओर मधुरता बिखेरे। पहला है कंसीडरेशन-दूसरों का पक्ष समझना तथा सामने वाले की बात सुनना तथा समझना। दूसरा -भावमयी करुणा-दया-कंपैशन है और तीसरा है-दूसरों की भलाई व अच्छाई के लिए चिंतन-मनन करना, चैतन्य रहना-कंसर्न। इसके लिए पहले अपने चारों ओर रहने वालों के लिए संवेदनशील होना पड़ता है। उनके प्रति अपना दायित्व व कर्त्तव्य निभाकर फिर दायरा बड़ा कर समाज, देश व विश्व के प्रति अपना दायित्व समझकर कर्म करना है। मानव होने का अर्थ है मानव धर्म निबाहना तभी…

मानव से मानव का व्यवहार

हे मानव! तू कब का भूल चुका है यह। सदियों से कब का ये माँ बाप के निश्छल प्रेम-व्यवहार से बढ़कर भाई-बहिन आदि खून के रिश्तों में बंधकर अपना जाल फैलाता ही गया। धीरे-धीरे सामाजिक व आर्थिक सम्बन्धों को भी अपने मकड़जाल में लपेटता गया फिर जो मनभायी कहें चाटुकारिता व मनोरंजन करें उनको भी अपने दायरे में समेटता चला गया, पता ही न चला। सारे सम्बन्धों, नातों व सम्पर्कों में आते लोग बनी बनाई छवियों के अनुसार बंधे बंधाए व्यवहार में ढल गए। किसी का स्वागत सत्कार कम, किसी का अधिक सब आवश्यकतानुसार औपचारिकता व अभिनय ही बनकर रह गया। इतना पाखंड, बनावटीपन व झूठ कि सत्य व्यवहार लुप्त ही हो गया। सब मन बुद्धि का खेल बन गया, नौटंकी जैसा। आत्मा वाला आत्मीयता का प्रेममय व्यवहार खो ही गया। मानव मानव से व्यवहार नहीं करता बल्कि व्यक्ति विशेष से स्वार्थपूर्ण मनोस्थिति के अधीन हो अपना पार्ट अदा करता…