प्रकृति की क्रूरता और प्रीत

हे मानव !ये ज्ञान जान, प्रेम और क्रूरता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रकृति का नियम है जैसा देती है वैसा ही ले लेती है। पाँच तत्वों से पुतला रचा अंत में वैसा ही कर अपने में ही मिला लिया। प्रकृति जड़ चेतन सबको एक-सा ही प्रेम करती है अपने ही ध्येय के लिए। उसका ध्येय है सतत् प्रगति और जब इस ध्येय में व्यवधान देखती है तो अपने तांडव, भूचाल, ज्वालामुखी, बाढ़, आँधी-तूफान आदि पाँच तत्वों का ही सहारा ले विनाश कर देती है। सब कुछ लयबद्ध होकर इसी नियम से संचालित है। प्रकृति के प्रेम को लौटाना इतना जरूरी नहीं जितना आगे बांट देना ही गति है। चाँद उतनी ही रोशनी ले पाता है जितनी उसकी नियति है और रोज़ लेकर बांट देता है। नहीं मिला प्रकाश तो भी चिंता नहीं, अपने में मग्न धरती के चक्कर लगाता ही रहता है तभी तो टिका है। पर…

प्रकृति का तांडव और संदेश

हे मानव ! अब तो जाग, जगा रहा कलियुग का काल। असत्य विनाशिनी प्रकृति का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया, जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बंधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति की न्याय व्यवस्था सर्वोपरि है जो मानव की साधारण बुद्धि से परे है। जब धर्म, समाज, राज्य और न्याय सबकी सारी की सारी व्यवस्थाएँ सत्ता-लोलुपता व स्वार्थ में लिप्त हो अमानवीय स्तर तक उतर आती हैं और मानव अपने ही बनाए मकड़जाल में फंसकर हताश हो जाता है तब प्रकृति की संहार प्रक्रिया व छँटनी का दौर शुरू होता है। जो मानव, युग चेतना से जुड़कर सत्ययोगी तथा आत्मज्ञानी होकर दृष्टा बन हर घटना को सृष्टि के सम्पूर्णता वाले विधान से जोड़ कर देखता है वह ही यह रहस्य जान पाता है। अब सबको अग्नि-परीक्षा से गुज़रना ही होगा-आंतरिक बीमारियाँ, अग्नियाँ ऐसी कि कोई विज्ञान पकड़ न पाए। बाह्य अग्नियाँ, प्राकृतिक प्रकोप,…

लक्ष्मण रेखा सुरक्षा कवच

हे मानव ! आज के युग में पुराने संदर्भों व प्रतीकों को नए परिवेश में समझ कर कैसे उनके सत्य से लाभ उठाया जा सकता है यह जानना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि सभी प्राचीन ग्रंथों के कथ्य व तथ्य मानव के मनोविज्ञान और उसकी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक संरचना की प्रक्रियाओं के ज्ञान-विज्ञान को जानकर ही लिपिबद्ध किए गए हैं। यही भारत की महानतम वैदिक संस्कृति का मूल बिंदु है। जिसे आजकल टुकड़ों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राकृतिक व वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धतियों व अनेकों इन्हीं से मिलती-जुलती पद्धतियों द्वारा समझाने का प्रयास किया जा रहा है। ध्यान की अनेकों विधियाँ व हीलिंग कोर्सों का इतना अधिक प्रचलन इसी सत्य की पुष्टि का प्रमाण है। लेकिन शुद्ध ज्ञान कल्याणकारी होता है वरना सीताहरण की तरह दुष्प्रवृत्तियाँ मानसिक संतुलन हर भी सकती हैं। त्रेता युग में श्रीराम की जीवनी में एक पल ऐसा आया, बनवास के समय जब सीता को अकेला छोड़…

विषाद : आत्ममंथन के शिविर

हे मानव ! सुन और ध्यान लगाकर समझ ले यह सच्चाई कि विषाद (डिप्रेशन) कोई बीमारी या व्याधि नहीं है। वैराग्य का सही अर्थ व महत्व जानने के लिए प्रकृति के दिए हुए पठार हैं। मानव के पूरे जीवन में सात से लेकर दस बार तक यह पठार की शिविर की स्थिति अवश्य आती है। इसका अंतराल आठ से बारह साल तक का हो सकता है। वैदिक संस्कृति के आश्रम विभाजन इसी वास्तविकता और मानसिकता पर आधारित हैं। यह प्रकृति का एक बहुत अनोखा व चमत्कारिक नियम है इस अवधि में मानव मन संसार से भ्रमित व चकित होकर विरक्ति अनुभव कर अपनी ही दुनिया में खो जाता है। व्यथित होकर आत्म-प्रताड़ना से लेकर जीवन समाप्ति-आत्म हनन तक की सोच लेता है। या फिर आत्ममंथन कर अपने को समेट कर दृढ़ निश्चय करके नए उत्साह के साथ अपने आपको एक सत्यमयी दिशा देकर जागृति पूर्ण जीवन की ओर उन्मुख होता…

शब्द साकार ब्रह्म

हे मानव ! शब्द के सार से ही संचालित है समस्त संसार का व्यवहार, इसकी महिमा जानकर जीवन सुधार। एक-एक शब्द में संसार समाया है। एक भावपूर्ण प्रेममय शब्द में असीम शक्ति निहित है। आज विज्ञान भी शब्दों की ध्वनि व भाव से उत्पन्न कम्पन गति (वाइब्रेशन) का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होने को मान रहा है। हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने सदियों पहले इसी ऊर्जा का ध्यान द्वारा अनुभव कर मंत्रों की कुंजियाँ हमें प्रदान कीं। जो भी शब्द नकारात्मक या सकारात्मक भाव से ब्रह्माण्ड में उछाल दिए जाते हैं वे वैसी ही सुगति या दुर्गति हमें लौटाते हैं। यहां तक कि विचारों में भी सोचे गए शब्द यही प्रतिक्रियाएँ आकर्षित करते हैं। अच्छा, मधुर, सबका शुभ करने वाले शब्दों का प्रसार मुख, मन व मस्तिष्क से करो तो प्रकृति भी उसे द्विगुणित कर प्रसारित करती है। एक से अच्छे विचारों व शब्दों वालों की एक अनदेखी संस्था होती है…

श्री कृष्णावतार की विनम्रता

हे मानव ! अवतार को तू पहचानेगा कैसे? क्योंकि अपने मानव होने का भान उसे एक क्षण को भी विस्मृत नहीं होता और प्रत्येक मानव से उसी के गुणानुसार उससे व्यवहार करने में भी अवतार को सदा पूर्णता के विधान का ही ध्यान रहता है। सभी ज्ञानी जनों, गुरुओं के प्रति आदर, बड़ों के प्रति सेवाभाव व अन्य सबके प्रति सौहार्द व निश्छल प्रेम उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति व प्रकृति होती है। सारे सांसारिक व्यवहारों को सौंदर्यपूर्ण ढंग से निभाना, विनम्रता की पराकाष्ठा को दर्शाता है। यहाँ तक कि महाभारत युद्ध में रात को युद्ध विश्राम के समय भी श्रीकृष्ण स्वाभाविक रूप से सबके खेमों में जाकर जगत व्यवहार निभा आते थे। सारे गुरु ज्ञानी जन जानते थे कि वे कृष्णावतार हैं फिर भी किसने उनकी सुनी न संधि की बात, न गीता का ज्ञान। सभी अपने-अपने कर्मों का औचित्य, अपने ही ज्ञान के अहंकार के अनुसार बखानने में लगे रहे।…

भावपूर्ण है सकल सृष्टि

हे मानव ! सृष्टि में कुछ भी खाली नहीं होता। खालीपन जैसी कोई वस्तु- स्थिति है ही नहीं। मानव शरीर कहीं से भी खाली नहीं है। नमी, वाष्प, वायु आदि तत्वों से भरा है जो सृष्टि के ही अंश हैं। जैसे एक घड़े में जब कुछ, आंखों से भरा हुआ दिखता है तो हम कहते हैं कि घड़ा भरा है। जब कुछ दिखाई नहीं देता तो हम उसे खाली कह देते हैं। स्थूल व दृष्टव्य को ही सत्य मानने वाली हमारी संसारी बुद्धि को यह प्रतीत होता ही नहीं कि उस समय वह उसी सर्वव्यापी अदृश्य तत्व से भरा होता है जो उसके चारों ओर व्याप्त है। सच तो यह है कि उसी तत्व से भरा है जिससे उसका अस्तित्व दिख रहा है। ऐसे ही हे मानव ! जिस कारण से तू है उसी से तो तेरा अस्तित्व भरा है। यही सत्य है मगर जब तू अपने बाह्य आकार अंदर…

तीर्थाटन बना पर्यटन

हे मानव ! तूने अपनी बुद्धि और ज्ञान का सारा का सारा विकास अपने चारों ओर की वस्तुओं को अपने ही मनोनुकूल बनाने में लगा दिया है। आश्रमों व तीर्थों में भी जो कुछ तेरे मन की खुशी दे, तन को सुख और आराम दे दिमाग को शान्त करे वही ढूँढ़ता है। जैसे कोई बाहरी उपाय ही तेरी इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दे और तुझे कोई विशेष श्रम और आध्यात्मिक उपक्रम न करना पड़े। कोई शार्टकट अथवा छोटा सुगम मार्ग मिल जाए इसी जुगाड़ में बुद्धि चलती है। तीर्थाटन को भी पर्यटन में बदल दिया है। अपना ज़मीर व आत्मा जगा सच्चाई समझ। अपनी प्रकृति और प्रभु की प्रकृति से छेड़छाड़ मत कर। तेरी सारी की सारी चतुराई धरी की धरी रह जाएगी जब प्रकृति का तांडव होगा और उसका प्रकोप सारी अपूर्णता बहा देगा। भारतीय संस्कृति जो वेदशास्त्रों के नियमों पर आधारित है व मानव उत्थान व…

प्रेम नगर की डगर

हे मानव ! प्रेम का कोई परिचय नहीं, प्रेम की कोई सीमा नहीं न कोई मोल न तोल, प्रेम न जाने पक्ष-विपक्ष न घृणा-द्वेष न राग-विराग, ऐसे निश्छल प्रेम को ही जो परम भक्ति जानते, वह प्रभु में और प्रभु उनमें पूर्ण समरूप हो जातेनि:स्वार्थ प्रेम एक अन्तरंग साधना है जो बाह्य तपश्चर्या व सब प्रकार के सम्बन्धों के मोह से परे है। ऐसे दिव्य प्रेम को हृदय में जागृत करने के लिए पल-पल अपने भावों को चैतन्यतापूर्वक सत्य की कसौटी पर परखना होता है। ऐसे प्रेम की प्राप्ति की सात सीढ़ियाँ हैं। आप इस सीढ़ी के किस पायदान पर हैं इसका परीक्षण आपको स्वयं ही करके निर्णय लेना होता है और इसका अवलोकन कर जांच-परख कर अपने पर काम करना होता है। प्रेम विकास के सोपान- - हम तभी प्रेम करते हैं जब कोई हमें प्रेम करे - हम स्वभावगत स्वत: ही प्रेम करते हैं - हम चाहते हैं…

सतस्य सत्यम् – सत्य का सच

हे मानव !सत्य का तेज करे सभी कुवृत्तियाँ निस्तेज। सत्य ही सुकर्म की शक्ति है। सत्य सुदर्शन चक्र है झूठ को काटने का ब्रह्मास्त्र है। यह भी सत्य है कि कोई कितना ही महान क्यों न हो अंतत: अकेला ही रहता है। अर्जुन जिसको श्रीकृष्ण ने मानव जीवन का ज्ञान-विज्ञान गीता के रूप में दिया वह भी युद्ध जीतने के बाद अपने परिवारवालों के साथ ही गया। अब समय आ गया है कि मानव यह सत्य समझे कि अपने ऊपर ही काम करना होगा। कब तक मुँह जोहेंगे कि कोई और सुधार लाएगा। अरे सत्य का सद्गुरु तो अंदर ही बैठा है। हम जीवन बहानों और प्रतीक्षाओं में निकाल देते हैं कि ऐसा हो जाए तभी वैसा कर पाएँगे। बहानों के झूठ पर अनमोल क्षण गवां देते हैं। प्रकृति जानती है कि सत्य तो तुम्हारे भीतर ही है जो अहम् और कर्महीनता के अंधकार से ढका हुआ है। सत्य का…