आत्मज्ञान मुक्ति का मर्म
आत्मिक शक्ति ही शान्ति का आधार है, सतत् साधना ही मुक्ति का द्वार है। एक सत्यमय आत्मवान अपनी युगानुसार प्राप्त दूरदृष्टि Vision, हेतु ही जीवन जीता है और समयानुसार मृत्यु का भी वरण कर लेता है। पर उसकी उस सत्यमयी दूरदृष्टि के उद्यम व पुरुषार्थ का उसके शरीर केसाथ अन्त नहीं हो जाता। उसके शरीरान्त के उपरांत वह दूरदृष्टि हज़ारों आकारों में अवतरित होती है और उसके द्वारा धारण ध्येय को आगे बढ़ाने हेतु यह क्रम चलता रहता है जब तक उसको पूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती। यही है सृष्टि का शाश्वत नियम कि उत्थान प्रक्रिया को सदा सत्य व पूर्णता की ओर उन्मुख करना और उसकी पूर्णता हेतु समयानुसार संयोग जुटाते रहना। सारे सांसारिक कर्मों का हिसाब-किताब तो शरीर केसाथ ही समाप्त हो जाता है। बचता है केवल, मानव ने जहाँ तक उन कर्मों के साथ अन्त तक प्रगति उन्नति या उत्थान किया, वही उत्थान वाला भाव बीज या…