कोई भी कल्पना निरर्थक नहीं होती

मानव जो भी कल्पना करता है वह सत्य ही होती है। मानव में कल्पनाशक्ति ब्रह्माण्ड, सृष्टि, की दी हुई है और मानव ब्रह्माण्ड की ही अनुकृति है 'यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' यह भी सत्य ही है। जो भी कल्पना में आ जाता है वो या तो घटित हो चुका होता है या घटित हो रहा होता है या कहीं घटने वाली घटना की पूर्व सूचना होता है। कल्पना को बखान पाना या उनका रहस्य जान पाना साधारण मानव बुद्धि से परे है। कल्पनाओं को ही कुछ पुरुषार्थी मानव सत्य संकल्प जान कर उन पर पूरी शक्ति केन्द्रित कर ध्यान लगाकर निरन्तर कर्म कर नए-नए आविष्कार कर लेते हैं साहित्य रच लेते हैं, अनमोल कलाकृतियाँ बना लेते हैं जो चमत्कारों की श्रेणी में आते हैं। वैज्ञानिकों लेखकों कलाकारों आदि-आदि यहाँ तक कि युगदृष्टाओं के उत्थान का आधार भी कल्पना ही होता है। जब से सृष्टि बनी तब से अब तक जो…

कर्मों का चक्र

अगला-पिछला सब दिमाग से निकालकर जो भी परिस्थितियाँ व कर्म सामने हों उसे पूरे मनोयोग व पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से पूजा की तरह, तपस्या की तरह करने में ही निस्तार है। जो भी कर्म प्रकृति ने स्वत: ही सामने ला खड़ा किया है उसी से कर्म कटने का विधान, प्रकृति का विज्ञान व नियम होता है। उसे नकारने या बचने के उपाय ढूँढ़ने में समय नहीं गंवाना होता। जितनी श्रद्धा से उससे गुजरोगे उतना ही उसका जो भी कर्जा देना है वो निबट जाएगा। कर्मों को पूर्णतया खेल लेना है तभी वो पीछा छोड़ेंगे। थोड़ा भी बेमन से या खीजकर जबरदस्ती किया गाली-सी देकर या 'लैफड़' के अन्दाज में, तो वैसी परीक्षा फिर से सामने आ ही जाएगी कभी न कभी। जैसाकि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्पष्ट कहा- 'अपने आपसे सामने आ खड़ा हुआ युद्ध तो भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है।' युद्ध करते-करते मरे तो स्वर्ग और…

जीवन गति व आत्म-प्रवाहक

जीवन बहुत सौन्दर्यमय है जब तक आराम से चलता रहता है थोड़ा हँसकर, थोड़ा रोकर पर जब कोई बड़ी परीक्षा सामने आ खड़ी होती है तब हमारी अच्छाई और सच्चाई दोनों की परीक्षा होती है। पर जैसे पढ़ाई की परीक्षा आने पर क्या होता है जिन्होंने खूब तैयारी की होती है उनके अन्दर एक उमंग-सी रहती है। हाँ, भय-सा भी होता तो है मगर वो व्यथित करने वाला नहीं होता और जिनकी तैयारी ठीक नहीं होती वो ही भयभीत विचलित व्यथित हैरान और परेशान होते हैं। ऐसी बात ही जीवन की भी होती है साथ-साथ तैयारी भी करते जाएँ तो परीक्षाओं का भय नहीं व्यापता और पास होने पर उन्नति होती जाती है और फेल होने पर और अधिक तैयारी का दृढ़- संकल्प। जितनी परीक्षाएँ उतना ही उत्थान अवश्यम्भावी है। जीवन एक महायज्ञ है, हवन है जिसकी सफलता उसमें भाग लेने वाले सभी लोगों पर निर्भर करती है जैसे एक…

भाव का ही भाव है

समय की युगचेतना कलमबद्ध करवा रही है, फिर भी लोग क्यों नहीं समझ पा रहे या समझना ही नहीं चाहते या समझ कर भी अनजान बनते हैं। एक ही उत्तर है- अकेली ही तो है युगचेतना भी अकेला ही तो लगा रहा भागीरथ। प्रत्येक मानव जो क्षण की युगचेतना से संयुक्त, योग स्थित हो जाता है वह तो अकेला ही चल पड़ता है। युगचेतना जानती है कब उसका संदेश रंग लाएगा। इस कारण उन्नत मानवों की कड़ी, Chain, सी बनती जाती है। जो अपनी पारी खेल चुके उन्हें अगली कड़ी से जुड़कर पूर्ण सहयोग करना ही होगा अपनी छवि को बचाने का उद्यम छोड़कर। यही है प्रणाम का सुपात्र को सहयोग। सुपात्र को सहयोग सबसे बड़ा योग, सुपात्र को जानना ही सच्चा विवेक है। सच्चे विवेक वाले मानव को युगचेतना सदा ही रूपांतरित कर अग्रसर करती चलती है वो किसी एक छवि में बंधता नहीं, किसी एक भाव भंगिमा, Style,…

विश्व अनन्तरूपम

शरीर यहाँ धरती पर छोड़ वही सम्पूर्ण सृष्टि में विचरण कर सकता है जिसने इस शरीर-मन-बुद्धि के सभी सम्पूर्ण गुणों को पुराने कपड़ों की तरह उतार फेंका हो।शरीर भाव से एकदम निर्लिप्त, विहीन सभी संवेदनाओं, भावनाओं से परे ही परे हो गया हो वो ही परे जा सकता है। शव होकर तो सभी परे जा पाते हैं पर अंतर ये है कि परे जाकर फिर इस शरीर में लौट नहीं पाते। पर सत्य समाधिस्थ मानव यह शरीर यहाँ धरा पर रख सम्पूर्ण सृष्टि, ब्रह्माण्ड व लोकों में विचरण कर फिर इसी शरीर में लौट आता है। शरीर छोड़कर विचरण की विद्या तो कई सिद्ध कर लेते हैं और खूब प्रयोग भी करते हैं। उस अनन्त ब्रह्माण्ड की उड़ान, The Flight of endless Universe, किस किस विस्तार में और कहाँ तक होगी या हो पाएगी, यह इस पर निर्भर है कि जब आत्मा इस शरीर में थी तो मानव का कितना…

वाणी बने गीता

गीता को कहते हैं कि स्वयं भगवान के मुख से निकली वाणी है। यह सत्य इसलिए है कि उसमें न तो प्रवचन है न कोई उदाहरण है न कोई रुचिकर कहानियाँ। बस प्रश्नों के सीधे-सीधे सटीक उत्तर हैं जो श्रीकृष्ण ने जि़न्दगी से सीखकर बताए हैं। वो जि़न्दगी जो वेदों व उपनिषदों के ज्ञान पर आधारित थी। तो आज सबको समझना जरूरी है कि अगर गीता के अनुसार जीवन जिया जाए तभी तो कुछ और प्रश्न बनेंगे और उन्हीं के उत्तरों से गीता में भी कुछ जुड़ जाएगा आज की गीता बनने के लिए। अभी तो लोग पाँच हजार साल बाद भी गीता ही नहीं समझ पा रहे हैं और जो थोड़ा-बहुत समझे भी तो उसके अनुसार जी ही नहीं रहे तो बात आगे कैसे बढ़ेगी। गीता को पूरा समझने व जानने के बाद कुछ और समझने-बूझने को बाकी रह ही नहीं जाता। गीता तो सही जीवन जीने का विज्ञान…

वाणी बने गीता

गीता को कहते हैं कि स्वयं भगवान के मुख से निकली वाणी है। यह सत्य इसलिए है कि उसमें न तो प्रवचन है न कोई उदाहरण है न कोई रुचिकर कहानियाँ। बस प्रश्नों के सीधे-सीधे सटीक उत्तर हैं जो श्रीकृष्ण ने जि़न्दगी से सीखकर बताए हैं। वो जि़न्दगी जो वेदों व उपनिषदों के ज्ञान पर आधारित थी। तो आज सबको समझना जरूरी है कि अगर गीता के अनुसार जीवन जिया जाए तभी तो कुछ और प्रश्न बनेंगे और उन्हीं के उत्तरों से गीता में भी कुछ जुड़ जाएगा आज की गीता बनने के लिए। अभी तो लोग पाँच हजार साल बाद भी गीता ही नहीं समझ पा रहे हैं और जो थोड़ा-बहुत समझे भी तो उसके अनुसार जी ही नहीं रहे तो बात आगे कैसे बढ़ेगी। गीता को पूरा समझने व जानने के बाद कुछ और समझने-बूझने को बाकी रह ही नहीं जाता। गीता तो सही जीवन जीने का विज्ञान…

अपने अस्तित्व का ज्ञान-2

हे मानव, अपने को जान। कैसे जानेगा यह तो तभी जान पाएगा जब यह समझेगा कि जानने योग्य क्या है। यही आन्तरिक यात्रा का आरम्भ है जिसका आधार केवल सही ध्यान ही है। अपने शारीरिक मानसिक व आत्मिक अस्तित्व केसत्य का ज्ञान, शारीरिक क्रियाओं मानसिक प्रक्रियाओं और आत्मिक उर्जाओं का ज्ञान, उनका आपसी सम्बन्ध, एक दूसरे पर प्रभाव, उनका ब्रह्माण्ड प्रकृति व वातावरण से सम्बन्ध। यही सब जानने योग्य है इसी हेतु मानव जन्म पाया। इन सबका सत्य जानने पर तो ही जान पाएगा कि तेरा ध्येय इस धरती पर क्या है? इस सृष्टि को तेरा योगदान क्या है? सीखे जाने व पढ़़े हुए ज्ञान का ज्ञान भी तो जानना होगा। पाए ज्ञान को जीकर अनुभव से उसका सार तत्व जानना उसका ज्ञान पा लेना ही ज्ञान का ज्ञान जानना है और जो उपरोक्त सभी विधाओं का कर्ताकारण है सब जानता देखता समझता है। पूर्ण व्यवस्था का संचालक है, पूर्ण…

अपने अस्तित्व का ज्ञान

मैं यहॉं क्यों हूँ क्यों आए हो तुम यहॉं क्यों हो तुम यहॉं यही तो जानना है यही जानने योग्य है सभी उस परम सत्ता-परम चैतन्य सत्ता के कर्ता कारण हैं। सभी उस परम की उर्जा शक्ति से संचालित हैं। उस परम शक्ति की बोधि - of supreme परम बोधि - supreme intelligence जो भली भॉंति जानते हैं कि तुम कितने पावर के बल्ब हो तो उसी हिसाब से उतना ही तुम्हें प्रदान करते हैं जितना तुम्हारे शरीर यंत्र के लिए ठीक है अपेक्षित है। अपने शरीर यंत्र की शुद्धि कर च्रकों का सन्तुलन कर उत्थान कर उसकी क्षमता बढ़ानी होती है यदि अधिक उर्जा का प्रवाह परम स्रोत से आकर्षित करना या खींचना है तो अपना शरीर यंत्र समस्वरित, tune, किए वगैर बाह्य उपकरणों उपायों या तकनीकों से परम उर्जा पवित्रता उर्जा खीचनें का प्रयत्न विनाशकारी भी हो सकता है। इसलिए अपना ज्ञान विज्ञान ही ठीक है जो तुम्हारी…

आत्मिक उत्थान चाहने वालों का सत्य

जो आत्मिक उत्थान चाहता है 'एक निश्चय वाली बुद्धि से' वह कोई बिरला ही होता है, प्रकृति का चुनाव होता है। वरना तो सब अर्जुन की भांति अपने-अपने संसारी लक्ष्यों पर ध्यान लगाए किसी ऐसे गुरु की खोज में रहते हैं जो उनका दिल भी बहलाया करे खूब मनोरंजन करे और शान्ति भी दे। उससे कुछ विशेष अपेक्षा भी न रखे वो ही अपने गुरु से सब अपेक्षाएँ रखें। पहला, पुराना दिया हुआ गुण, पाठ जीकर याद न करने पर भी उन्हें उनके सारे प्रश्नों के उत्तर देता जाए उनका ज्ञानकोष बढ़ता जाए साथ-साथ ज्ञानी होने का दम्भ भी बढ़ता जाए । अर्जुन भी प्रश्न पर प्रश्न पूछता ही गया जब तक श्रीकृष्ण ने समस्त जीवन का सार न दे दिया। उसने भी बाद में गीता के अनुसार जीवन कहाँ जीया। जीत जाने के बाद न तो गीता को आत्मसात् कर जीवन में उतारा और न ही गीता के सत्य…