रामसेतु- विहंगम दृष्टिकोण : भाग-2

''प्रकृति के नित्य निरन्तर सर्वव्यापक नियमों के सत्य पर आधारित'' हे मानव ! प्राकृतिक अनुकम्पा व सम्पदा से खिलवाड़ बन्द कर। मानव धर्म है प्राकृतिक सम्पदाओं को संवारना निखारना और सौन्दर्यमय बना कर मानव कल्याण के लिए उपयोगी बनाना न कि अपने क्षणिक स्वार्थी आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उजाड़ना। प्रणाम मीना ऊँ मानसपुत्री प्रकृति की, गत कई वर्षों से चेता रही है। जाग ओ मानव! प्रकृति से तारतम्य व संतुलन बना। उसके उत्थान कार्य में सहायक हो अन्यथा मानव अपने विनाश का कारण स्वयं ही होगा। रामसेतु विवाद धार्मिक व्यापारिक या राजनैतिक इतना नहीं है जितना प्रकृति को नियंत्रित कर अपने-अपने निजी स्वार्थों और अहमों की तुष्टि का है। मानव की तर्क पोषित बुद्धि सदा ही अपने कर्मों के पक्ष विपक्ष में अनेकों व्यक्तव्य प्रस्तुत कर ही देती है जबकि सत्य बहस का मोहताज नहीं। हे मानव सीधी सी बात तेरी समझ में क्यों नहीं आती कि भारतभूमि…

रामसेतु को समर्पित : भाग- 1

प्राचीन भारतीय धरोहर रामसेतु की रक्षा हेतु आत्मबली नेतृत्व चाहिए न कि राजनीतिकरण, केवल प्रचार से ही काम नहीं बनता। दृढ़निश्चय शक्ति व कर्मठता चाहिए। सत्यता, कर्म और प्रेम की शक्तिस्रोत है व सत्यज्ञान-प्रकाश का निरन्तर निर्झर है। इन चारों -सत्य कर्म प्रेम प्रकाश में से जो एक मार्ग में भी पूर्णतया स्थित होता है उसकी ओर प्रकृति अपनी न्याय व्यवस्था स्थापित करने के लिए शक्ति प्रवाहित करती है। जो अपना आराम व राजभवनों जैसा रहन-सहन त्याग और अपने अहम् कर्ताभाव व स्वार्थ को तिरोहित कर सत्य संकल्प के लिए साधारण मानव की भांति जी-जान से जुट जाएगा वही प्रकृति का चुना हुआ प्रतिनिधि होता है। कौन है जो अपनी गद्दी पदवी दण्डी मंडी छोड़ चल दे पैदल बापू की तरह कि बस अब करना या मरना है। कुछ करने को कहो तो समय ही कहाँ है, पूजा का समय है या भोजन की व्यवस्था होनी चाहिए या शिष्यों का…

जीवन का सार

सर्वशक्तिमान के समक्ष सम्पूर्ण समर्पण भक्ति की सर्वोच्च अवस्था है। इस प्रकार की भक्ति में भक्त हर स्थिति एवं परिस्थिति को ईश्वर के प्रसाद स्वरूप ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य है - अपनी शारीरिक मानसिक व आत्मिक शक्तियों को एकाग्र कर इन शक्तियों का उपयोग प्रत्येक क्षण को पूर्णता से जीने में करना। यहाँ आध्यात्मिकता का अर्थ है - कोई भी कार्य सही दशा व पूर्ण विश्वास के साथ करना। कोई भी स्थिति या परिस्थिति बेकार या महत्वहीन नहीं होती उसमें कोई न कोई गूढ़ संदेश अवश्य छिपा होता है। ईश्वर की यह सृष्टि त्रुटि रहित है, हमें यह बात समझनी चाहिए क्योंकि जब एक देवदूत स्वर्ग से वंचित हुआ तो उसे मोची के रूप में इस दुनिया में जन्म मिला ताकि उसे यह अहसास हो सके कि यह सर्वशक्तिमान भगवान के विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाने का परिणाम है। उस देवदूत का इतना आत्मिक विकास हो चुका था कि वह…

संवेदनशीलता संतुलन

जब हम अपने ऊपर आध्यात्मिक रूप से कार्य करते हैं तो हमारी संवेदनशीलता भी बढ़ने लगती है या यूँ कहें आध्यात्मिक मानव की संवेदनाएँ भी विकसित होती हैं क्योंकि संवेदनशीलता के चरमोत्कृष्टता से ही तो प्रभु प्राप्ति की अनुभूति होनी होती है। सत्य आत्मानुभूति के पथ का लक्ष्य ही है कि मानव जीव को अपनी सभी संवेदनाओं, क्षमताओं और बोधगम्यताओं का अधिकतम विकास-संवेदनशीलता को चरम अवस्था- परम अवस्था तक पहुँचाने के मार्ग में अनेकों तपस्याओं और भिन्न-भिन्न अनुभूतियों से गुज़रना होता है। फिर इन सभी अनुभूतियों के प्रभाव से आन्तरिक दिव्यता की शक्ति से उबरना होता है। क्योंकि अनुभूतियों के अनुभव में लिप्त होना या रमना उत्थान में व्यवधान है। भरपूर आत्मबल से ही यह संभव है या यूँ कहें अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व सघन ध्यान से प्रभावों से उबरना आत्मबल बढ़ाने का आधार बन जाता है। बाह्य साधनों व विधियों की बैसाखियों से परीक्षाओं को, तपस्याओं को, परे करने…

सत्य संभाषण

यही सत्य है कि जो सोचो वही बोलो और करो भी, मनसा-वाचा-कर्मणा पूर्णरूपेण सत्य होओ। इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं कि यह तो करो ही, साथ-साथ कुछ और इसके अतिरिक्त भी बोलते रहो। जब मनसा-वाचा-कर्मणा सत्य हो जाते हैं तो प्रतिपल वाणी से केवल सत्य ही उच्चरित होता है-निर्भीक सत्य। कथा-प्रवचनों को नकारना नहीं है पर सोचो जरा कथा-कहानियों का सत्य कौन जानता है! केवल पढ़ा-सुना ज्ञान मात्र है। पूर्ण सत्य तो केवल जीकर जाना जाता है और जब बोला जाता है तो उसी क्षण का सत्य होता है। प्रणाम के लिए सत्य वही है जो जीकर जाना जाए। धार्मिक पुस्तकें शास्त्रादि सब ज्ञानमय हैं उनको बखानना कथावाचक या प्रवचनकारी का कर्म है, सत्यात्मा का धर्म नहीं। सत्यात्मा जो बोलती है वह जीवन का तत्व सार होता है, प्रतिपल चैतन्य ध्यान की प्रस्तुति होता है। संभाषण-निरर्थक संभाषण भी असत्य ही है, वाणी विलास है। यदि प्रवचनकारी या कथावाचक हो…

स्पष्टता अथवा पारदर्शिता

स्पष्टता व पारदर्शिता व्यक्ति की चेतना के विकास को दर्शाती है। यह मनुष्य की प्रगतिशीलता गहराई श्रेष्ठता विस्तार एवं एकाग्रता को विकसित करती है। यह मस्तिष्क शरीर और जीवन के सभी बंधनों को काटने से ही आती है। इसमें तभी वृद्धि होती है जब हम अपने अहम् के मकड़जाल से बाहर आते हैं और आत्म-प्रकाश के अनुभव लेना आरम्भ करते हैं। जब हम संसार में आत्मा की इच्छा व उद्देश्य को अनुभव करते हैं और एकात्म के चिन्तन में निमग्न रहते हैं तब हम पारदर्शिता के चरम बिंदु तक पहुँचते हैं। पारदर्शिता से ही हम अपने सत्य की खोज कर उसको जान सकते हैं, उसे पा सकते हैं। कई पद्धतियाँ हैं जिन्हें नवयुग के आध्यात्मिक गुरुओं ने इस लक्ष्य के निमित्त बनाया है और विकसित किया है। परंतु इस प्रकार के जो भी नुस्खे हैं उनके लिए दृढ़विश्वास साहस लगन तथा आत्मसमर्पण की आवश्यकता होती है। यही एकमात्र शक्ति है…

सच्ची विद्या केवल तकनीक नहीं

कोई भी विद्या जब तकनीक बन जाए और सब बिना विशेष प्रयत्न किए प्रयोग करने लगें, मनचाहे ढंग से उसका उपयोग करने लगें, विशेषकर स्वार्थी या व्यवसायी मनोवृति के हिसाब से तो उसका प्रभाव बहुत कम हो जाता है। जिस विधि से किसी को कुछ प्राप्ति होती है यदि वो उसे ही तकनीक बनाकर सिखाने लगे तो उससे कुछ भी प्राप्ति नहीं होने वाली। इसलिए यह अतिआवश्यक है कि पहले सुपात्र बना जाए फिर तकनीक केवल सहायता के लिए बताई जाए क्योंकि तकनीक कभी भी गारंटी नहीं है कि ऐसा करने से प्राप्ति हो ही जाएगी। तकनीक को ही दुहराए जाने से कुछ प्राप्ति हो जाएगी ऐसा लोगों को केवल भ्रम ही है और उनके इस भ्रमित मन का लाभ उठाकर कुछ व्यापारी गुरु स्वामियों ज्योतिषाचार्यों कर्मकाण्डी पंडितों आदि की दुकानें खूब चल पड़ी हैं। आज तरह-तरह की विधियों को नए-नए नाम देकर अज्ञानी जनता का शोषण बखूबी होता है।…

सब मानव हैं केवल मानव

हे मानव !हम सब मानव हैं केवल मानव। हमें मानव बनना है, दूसरे मानवों के साथ कैसा व्यवहार करना है यह ज्ञात होना चाहिए। हमें यह अनुभव करना है कि हम सभी एक ही स्रोत से उपजे हैं और पांच तत्वों से बने हैं। धरती जल वायु अग्नि और आकाश। हमें अपने अंदर इन्हीं पांच तत्वों के गुणों को सींचना व विकसित करना चमकाना सुधारना व परिष्कृत करना है। उदाहरण स्वरूप-पृथ्वी का गुण है धैर्य, वे सभी को आसरा देती हैं चाहे वह संत हो या पापी। वायु जीवन दायनी है। जल तत्व करुणा का प्रतीक है। आकाश सभी को सुरक्षा और सम्बन्धता का भाव, Sense of Belonging देता है। अग्नि हमारे भीतर सभी अपूर्णताओं को भस्म करती है और जैसे अग्नि की लपटें ऊपर की ओर उठती हैं वैसे हम सब भी उगें और ऊपर की ओर उत्थान करें। बहुत सारे धर्म और धार्मिक पंथ हैं जो एक दूसरे…

मन की शक्ति

मन की शक्ति अपरम्पार चले प्रकाश गति से भी तेज। प्रकाश से अधिक प्रकाशवान। करे तन-मन प्रकाशित। क्षणांश में तय कर आए भूत और भविष्य का अन्तहीन सफर। सृष्टि के प्रारम्भ से सृष्टि के अंत तक पहुंच जाए पलक झपकते ही। सदा गतिवान मन को यदि मिल जाए सही दिशा तो कुछ भी असम्भव नहीं। मन की शक्तियों का महत्व वही समझ सकता है जिसने यह अनुभव पाया हो, मन की शक्ति को पहचाना हो। उन्नत मन क्या-क्या नहीं कर सकता इसकी कल्पना भी साधारण व्यक्ति धारणा शक्ति की समझ के बाहर है। असाधारण धारणा, असाधारण स्मृति, धारणा शक्ति, ध्यान से ही संभव है वरना हाथ से डोर खिसकती मालूम होती है। सिर्फ असाधारण स्मृति धारणा व ध्यान से ही यह शक्ति पाई जाती है, यह भी सत्य नहीं है। मन-मस्तिष्क का इस स्तर तक विकास कि वह अपूर्व शक्तियाँ प्राप्त कर ले, यह तभी संभव है जब मन का…

केवल एक ही अर्पण समर्पण

अपने प्रत्येक भाव विचार व कर्म को अनन्य भक्ति व पूर्ण आस्था सहित परम सत्ता को समर्पण ही ब्रह्माण्डीय युगचेतना से संयुक्त होने का पूर्ण योग होने का मार्ग है। ऐसा योग जहां मानव शरीर सभी शक्तियों ज्ञानियों ऋषियों मुनियों वैज्ञानिकों युगदृष्टाओं अपने-अपने युग के सभी उन्नत व उत्कृष्ट ज्ञान विचार व उद्देश्य को मूर्तरूप देने का माध्यम बन जाता है। सभी ज्ञानों के पार जाने में सक्षम होता है बुद्धि की सीमितता से परे जाकर ही पराज्ञान का पूर्ण सत्य जान लेता है। इसी कारण असीम अखण्ड अनुराग पूर्ण भक्ति-आस्था का मूर्तरूप बनकर-चेतन तत्व का प्रवक्ता हो जाता है उसमें अपना कुछ नहीं होता उसका पूरा अस्तित्व युग चेतना का प्रवाहक बन जाता है। ऐसे भक्तिमय शुद्ध प्रेममय मानव ही तारनहार होते हैं। स्वयं को तो तार ही लेते हैं- तभी तो उस पार की खबर जानते हैं वही बताने को अपने आंतरिक अंतरिक्ष से वापिस आकर सभी प्राणियों…