अन्तरात्मा की आवाज सुन कर्मरत होओ

हरिओउम् तत्सत्हे मानव!अब समय आया है चैतन्यता एवं जागरूकता पर काम करने का। चैतन्यता की पहचान है अपने अन्दर झांककर बिल्कुल शून्य होकर आवाज सुनो बाह्य चैतन्यता से मुक्त होकर। अभी मन, बुद्घि, चैतन्यता की आवाज में अन्तर करना मानव भूल गया है। सदियों से सोई हुई आत्मा की आवाज (युग चेतना की आवाज) को जगाने की साधना का समय प्रारम्भ हो गया है। जब आप पूर्णतया शान्त हैं अर्थात निर्लिप्त होकर अर्न्ततम् स्थिति तक पहुंचते हैं तब जो प्रतिध्वनित हो वही आत्मा की आवाज है। फिर भी मानव यह नहीं समझ पाता कि यह मन बुद्घि की आवाज है या आत्मा की आवाज है। इसके लिए आरम्भ में कुछ कठिन साधना करनी होगी जब लगे आपके अन्दर से कुछ सन्देश व निर्देश उठे हैं तो उनको ब्रह्मवाक्य समझकर उनका पालन करो इस प्रकार पालन करने पर यदि वह विवेक जगाते हैं वातावरण शुद्घ व आनन्दमय बनाते हैं तथा आपको…

नीति विशेषज्ञों को क्या नीति पढ़ाऊँ

पोथियाँ पढ़-पढक़र नीति विशेषज्ञ बने और जि़न्दगी भर उसी की कमाई पर जीने वाले, जि़न्दगी की सत्यता को कभी समझ न पाए और शायद कभी जि़न्दगी के सत्य से, जि़न्दगी की सही नीति से उनका सामना भी हुआ तो ओढ़ी हुई व्यापारिक बुद्धि वाली नीतियों और युक्तियों से कभी भी कोई मुकदमा नहीं हारते। दुनियावी अदालत में किसी भी सत्य को बहस कर आप सत्य बना भी दें तो भी असत्य तो असत्य ही रहेगा। ऊपर वाले की अदालत में कोई बहस अपने असत्य को सत्य सिद्ध नहीं कर सकती। ऊपर वाले की अदालत, जो आपके दिल में अन्तरात्मा के सामने ही लगती है वहाँ सत्य सत्य है और असत्य असत्य है। यह अदालत कभी कोई गलत फैसला नहीं देती और इसके सज़ा देने के आपके ही तरीके हैं जो सांसारिक तरीकों से, सांसारिक सज़ाओं से कहीं अधिक भयावह व कष्टïप्रद है जिसे कहते हैं ऊपर का कोड़ा, ऊपर की…

आकांक्षा करो

एक ऐसे संवेदनशील हृदय की जो सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करे ऐसे सुंदर हाथों की जो सबकी श्रद्धा से सेवा करें ऐसे सशक्त पगों की जो सब तक प्रसन्नता से पहुँचें ऐसे खुले मन की जो सब प्राणियों को सत्यता से अपनाए ऐसी मुक्त आत्मा की जो आनन्द से सब में लीन हो जाए जो जड़-चेतन सब में एकाकार हो समस्त सृष्टिï में लीन हो जाए स्तुति ओ प्रभु! मुझे दृढ़ता, साहस व शक्ति दो सद्ïविचारों व सत्य दूरदर्शिता को कर्म में बदलने की एक ऐसी अद्ïभुत क्षमता दो जो सब मानव मस्तिष्कों का भाव एक कर सत्य प्रेम व प्रकाश के द्वारा शान्ति और आनन्द के प्रसार का सर्वत्र जन-अभियान चला दे प्रणाम मीना ऊँ

प्रतीकात्मकता : Symbolism

भारत में जितने भी देवी-देवता हैं वो सब अपने आप में कुछ संदेश लिए हुए हैं। अपने आप में पूरी पुस्तक हैं। उनकी प्रार्थनाओं में उनके चरित्र-चित्रण में सबमें एक संदेश है पर लोगों ने उनकी मूर्तियों को और सुन्दर बनाने मालाएं चढ़ाने में पूजा करने में घंटियां बजा-बजा कर, दीया अगरबत्ती जलाने को ही बस धर्म बना लिया। मैं इनका विरोध नहीं करती पर सही अर्थों में तभी पूजा मानी जायेगी जब हम उस मूर्ति को विशिष्ट मुद्रा आकृति का संदेश समझ उसी के अनुसार जीवन चलाने की कोशिश करेंगे, तभी उस पूजा का फायदा है लाभ है। शिव प्रतीकात्मकता- ध्यान में रहना, जब बहुत ही जरूरी हो तभी क्रोध करना तीसरा नेत्र खोलना। सभी दसों भावों को संतुलित करना, डमरू रूद्राक्ष प्रकृति को अपनाना शक्ति का संतुलन दुनिया की अपूर्णता को भी गले लगाना योग संन्यास गृहस्थ का अद्भुत संगम सत्यम् शिवम्ï सुन्दरम् ध्यान से ज्ञान त्रिशुल तीन…

सबसे बड़ा योग सुपात्र को सहयोग

सत्यता से व योग्यता से हमेशा लोगों को भय लगता है व घबराहट होती है। जब तक योग्यता व सत्य को सही सम्मान व स्थान नहीं देंगे लोग व देने का उद्यम नहीं सीखेंगे तब तक वो प्रकृति के काम में दखल देने वाले असुर ही रहेंगे। जो क्षमता व योग्यता किसी व्यक्ति विशेष को मिली वो प्रकृति का ही चुनाव है। लोग यह सत्य नहीं जानते चाहे वो कितने ही विद्वान गुणी व धनवान हों कि सत्य सबसे अधिक उदार है वो आपका ही कल्याण चाहता है और इसी हेतु अपने को प्रस्तुत करता है। पर लोग समझते हैं कुछ लेने आया है या कुछ फायदा उठा लेगा। इस भाव व अहंकार के कारण वो अपना ही नुकसान करते हैं। एक प्रश्न सदा खटकता रहा मन में कि भारत में इतनी योग्यता व दैवीय शक्ति होने के बाद भी इतनी कुव्यवस्था व भ्रष्टाचार क्यों है तो जब दुनियां में…

साँचा गुरु सोई

मेरे तो गिरधर गोपाल...दूसरो न कोई… सच्चा गुरु वही है जो सच्चा शिक्षक हो। जो ऐसा कुछ सिखलाए जो जीवन को उन्नत बनाए मानव होने का गौरव समझाए और उसका रास्ता बताए। न कि गुरुपद हथियाने के गुर सिखाए गुरुपन झाड़ने की युक्तियां सुझाए। सही और सच्चा गुरु उदाहरण होता है कि मानव को अपना जीवन कैसे सार्थक बनाना है। पूर्णता से जीना है अपना जीवन उत्सव बनाकर अपने चारों ओर प्रफुल्लता फैला प्रसारित कर औरों को भी प्रफुल्लित करना है। सभी कुछ नि:स्वार्थ भाव से बस प्रवाहित ही प्रवाहित करना है। सही मार्गदर्शन देना है न कि अपना ही वर्चस्व बढ़ाने की विधियां बतानी हैं या कर्मकाण्डों में उलझाना है। मन शान्त व बुद्धि स्थिरता के लिए सही आंतरिक विधियां ही बतानी है न कि बाहरी क्रियाओं की नई-नई विधियां ही सुझानी हैं। जब सभी जानते भी हैं और रटते भी रहते हैं कि जो कुछ भी प्राप्ति होगी…

सबसे बड़ा आश्चर्य

सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि जब पराशक्ति मानवों को अपने ही बनाए हुए चक्रव्यूहों से निकालकर किसी महान उद्देश्य की ओर इंगित व अग्रसर करने के लिए सत् संकल्प किसी एक उन्नत मानव के अन्तर, inner being, में प्रस्फुटित करती है तो भावानुसार वैसे ही कुछ मानवों को भी अवश्य ही तैयार कर लेती है जो स्वेच्छा से स्वत: ही योगदान को तत्पर होते हैं। जो परमबोधिनी शक्ति सत्य को अवतरित करती है वो ही उसे पूर्णता तक पहुँचाने के माध्यम भी कालानुसार जुटा देती है। इस संदर्भ में शास्त्रानुसार शक्ति बल बुद्धि और दृढ़निश्चयी हनुमान जी और अर्जुन जैसे निद्राजयी महाबाहो एक लक्ष्यधारी जैसे प्रतीकात्मक स्वरूप मानव तो हर युग में हर अवतारी के साथ होते हैं। यही विधि का विधान है मानवों को प्रकाशित कर सत्यता का मार्ग प्रशस्त करने का, संभवामि युगे-युगे का। जहाँ तक भी प्रणाम के पाँचजन्य - प्रणाम संदेश - का शंखनाद पहुँचे,…

सनातन धर्म का सत्य

आजकल कई संस्थान सनातन धर्म के सत्य ज्ञान और विज्ञान की रक्षा व विश्वस्तरीय स्थापना का तथाकथित प्रयत्न कर रहे हैं। अच्छी बात है पर यह प्रयत्न करने वाले पहले इस शाश्वत सनातन धर्म के सत्य व वैज्ञानिक नियमों को जानें, समझें और उसी के अनुसार जीएँ तभी तो बात बनेगी। सत्य सनातन धर्म की स्थापना हेतु पूर्णतया सत्य होना ही वो आत्मबल व शक्ति देगा जो इस संकल्प के लिए अपेक्षित है। पहली बात कि सत्य सनातन धर्म किसी धर्म विशेष, किसी संप्रदाय या प्रचार का मोहताज नहीं। दूसरी बात सनातन सत्यधॢमता तो अपने आप स्वत: ही जब समय आता है तो सनातन सत्य जीने वाले किसी माध्यम के द्वारा उजागर होती है। इसे कोई रोक नहीं सकता, यही तो होता है संभवामि युगे-युगे। आज धर्म के नाम पर जो असत्य पाखंड ढोंग और अपना-अपना वर्चस्व मनवाने के लिए अखाड़ों मठों पद-पदवियों विशेष वेशभूषाओं अलंक रणों धन-वैभवों उपाधियों आदि…

होना है प्रकृति का तांडव

अब प्रकृति का तांडव अवश्यम्भावी है क्योंकि मानव तीर्थाटन व पर्यटन का भेद भूल गया है। तीर्थाटन प्रकृति के सन्निकट होकर उसकी विराटता व संवेदनशीलता को, विचारों व सांसारी भावों से रहित होकर, अनुभव कर आत्मसात् करने की प्रक्रिया है। सारे तनावों और भारों से मुक्त होकर अपने स्रोत के आनन्द को अनुभव करना है। कम से कम शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ केवल प्रकृति को ही पीना है जीना है। समाचार मिला लेह में बादल फटा भयंकर तबाही। दुख की अपेक्षा क्षोभ व एक अजीब सी संतुष्टि का भाव जगा। समझाते-समझाते आयु बिता रही है प्रकृति की मानव पुत्री पर… हे मानव! तू तो अड़ा है अपनी ही मनमानी करने पर। जो कुछ थोड़े अछूते पवित्र स्थल हैं धरा पर वहाँ भी उस स्थान के विशुद्ध विस्तार के आभामंडल के अनुरूप होने की अपेक्षा अपनी ही धुन में अपने ही भोगों में लिप्त जगह-जगह घूम-घूमकर भाग-भागकर सारा वातावरण…

प्रकृति-असत्य विनाशिनी प्रणाम प्रकाशिनी

जागो भारतीयों ! महाकाल का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया-जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बँधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति का न्याय सर्वोपरि है जो मानव बुद्धि से परे है। सब कर्मों का चक्र फल यहीं पूरा होता है यही है सत्य। पर इस चक्र के जंगली स्वरूप को सुव्यवस्थित करने हेतु मानव को बुद्धि दी गई। जिससे अच्छी समाज व्यवस्था, सच्ची न्याय व्यवस्था और नीति-युक्त राजव्यवस्था का सुंदर समन्वय हो सके। ताकि सब सभ्य समाज में मिल-जुलकर सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक रहें, तरक्की करें और प्रभु के प्रेम रूप को धरती पर मूर्तरूप दे पाएँ। पर जब न्याय समाज और राज सब की सब व्यवस्थाएँ सत्ता व स्वार्थ में लिप्त होकर झूठी और अमानवीय हो जाती हैं और जनसाधारण का उनमें विश्वास ही नहीं रह जाता तो जनता का क्रोध उन्माद के रूप में ही परिलक्षित होता है। उसके क्रोध-प्रदर्शन में विवेक या कोई…