test title

test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content

test title

test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content

test title

test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content test content

दामन का अँधेरा

जो बाँटता फिरता है जमाने को उजाले उसके दामन में लेकिन अँधेरा भी बहुत है क्या कमी की मेरे कृष्ण ने विश्व को उजागर करने में सत्य का आधार देने में अनन्त प्रकाश से प्रकाशित करने में मगर किसने देखा किसने जाना उनके दामन उनके मन का अँधेरा घना अँधेरा मैं जानूँ मैं समझूँ मैं भोगूँ उस दिल का घना अँधेरा जो लाए सवेरा यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

शोक का कारण

शोक का कारण क्या है? न जानना ही अज्ञानता हैइसका अनुभव स्वयं से ही होता है।अपने आपसे प्राप्त दुख-कष्टï सब तपस्या के ही रूप हैं।समबुद्धि दुख-सुख में सम संतुलन समबुद्धि-समबुद्धि को सिद्ध करने से जन्म-मरण भय से मुक्ति!! एक निश्चय वाली बुद्धि ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग आसक्ति से उत्पन्न अनन्त बुद्धि वाली बुद्धि एक निश्चय वाली बुद्धि हो जाए। इसके लिए :- सकाम कर्मों से रहित राग द्वंद्वों से रहित परमात्मा तत्व में स्थित हो जा निरंतर रहने वाले परमात्मा तत्व में स्थित हो जा! हो जा रे मानव कोई छोटा मार्ग, शार्टकट, नहीं होता आत्मानुभूति का प्रणाम मीना ऊँ

स्वर्ग सम जीवन

हे मानव ! कहां ढूंढ़ता है तू स्वर्ग। बड़ी प्रबल है तेरी स्वर्ग की इच्छा चाहे मर के मिले बस पाना ही है। तेरे काल्पनिक स्वर्गसम जीवन से अपेक्षाओं की कमी नहीं। एक दिवास्वप्न जैसी भ्रमित करने वाली मृगमरीचिका। अरे प्रभु ने तुझे वह सब क्षमताएं प्रदान की हैं जिससे तू अपने व अपने सम्पर्क में आने वाले सभी जीवों के लिए स्वर्गसम वातावरण उत्पन्न कर सकता है। अपना स्वर्ग आप बना सकता है तो उठ अज्ञान की निद्रा से जाग पूरे पुरुषार्थ से कर्मरत हो जा। धरा को स्वर्ग बनाने की प्रक्रिया पहले अपने चारों ओर स्वर्ग बनाने से ही आरम्भ होगी। प्रणाम बताए स्वर्ग सम जीवन की साधना का विधान :-- सर्वोत्तम साधना : ध्यान योग व स्वाध्याय योग- शिक्षा व ज्ञान की सच्ची सेवा संस्कार दान व माँ शारदे की विभूतियों-सत्य कर्म व प्रकाश का प्रसार - सर्वोत्तम कर्म- प्रेममय प्राणों का विस्तार स्वर्गिक वातावरण की पहचान…

अवचेतन मन का ज्ञान

स्मृति अनंत सागर स्मरण की बना मथनी बुद्धि की बना काल का चक्र घुमा पाया अनमोल रत्न ज्ञान का मानव विधान का अवचेतन मन की परतें हटाकर ही उस प्रकाश या नूर के दर्शन होते हैं जो सब में व्याप्त है और एकत्व जगाने का तत्व है। मानव की प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया जिसका वो कारण नहीं जान पाता वो सब अवचेतन मन से ही संचालित होती है। ध्यान योग को प्राप्त मानव इस सारी प्रक्रिया के प्रति सजग होता है। क्योंकि ध्यान की साधना द्वारा वो अवचेतन मन की प्याज के छिलकों की भाँति एक-एक परत खोलकर अंदर के खालीपन तक पहुँच ही जाता है। यही उसकी अमूल्य निधि व सत्य की पूँजी है। अवचेतन मन का बुद्धि को भान नहीं होता। पर पूर्णरूपेण खाली हुए मन में जो सत्य की सूचना रहती है उसका ज्ञान सदा ध्यानयोगी को रहता है क्योंकि उसका संसारी मन व अवचेतन मन एक हो जाते…

अदृश्य आतंकवाद

दक्षिण भारत यात्रा के अंश : भाग-2 मन में बहुत उमंग थी श्री माँ और श्री अरविन्द जी की तपोभूमि व कर्मस्थली पांडुचेरी को दुबारा सोलह साल बाद देखने की। क्योंकि उनके सपनों की नगरी ओरोविलियन की भी बहुत चर्चा सुनाई देती रही है। समाधि दर्शन से जो अनुभूति सोलह साल पहले हुई थी उसकी याद भी पुलक जगा रही थी । पर ओरोविलयन पहुँचने पर वहाँ कुछ भी ऐसा नहीं पाया जो श्री माँ का विज़न था। कुछ अजीब-सा असंदिग्ध-सा वातावरण। मन बहुत घबरा-सा गया। फौरन ही बाहर निकलकर पांडुचेरी जो अब पुण्डुचेरी हो गया उसका रास्ता पकड़ा। वहाँ पहुँचकर समाधि दर्शन किया। दोनों समाधियों पर फूल सज्जा तो मनमोहक थी पर वहाँ भी वो पहले जैसी भावानुभूति नहीं हुई। बार-बार यही ध्यान आता रहा कि जो श्री माँ और श्री अरविन्द का सपना और दूरदर्शिता है उस पर काम नहीं हो रहा। एक उदासीनता सी छाई थी। वहाँ…

मान लो…

  • Post Author:

मान लो तुम सहज हो सुंदर हो तो हर आईना धुँधला पड़ जाता है मान लो तुम साहसी हो आत्मविश्वासी हो तो हर रुकावट हट जाती है मान लो तुम रानी हो अपने घर की तो हर दीवार सोने सी लगती है मान लो तुम अन्नपूर्णा हो तो हर व्यंजन स्वादिष्ट हो जाता है मान लो तुम सरस्वती हो तो हर पल कमल सा खिल जाता है मान लो तुम लक्ष्मी हो तो हर अभाव दूर हो जाता है मान लो तुम शक्ति की प्रतिमा हो तो हर पल ब्रह्मा विष्णु महेश बन जाता है मान लो तुम सब से उत्कृष्ट हो तो हर कार्य पल में सफल हो जाता है मान लो तुम आज़ाद हो तो हर बंधन कमज़ोर हो जाता है मान लो तुम अपने आप में संपूर्ण हो तो सुख शान्ति ऐश्वर्य सब आ जाता है मान लो…बस मान लो तो यही है सार जीवन का तोड़…