प्रणाम कर्म

प्रणाम में भाव बीज बोया जाता है मन का मैल धोया जाता है आत्मा का बोझ हटाया जाता है जीवन जीवन्त हो जीया जाता है अपना आपा खोया जाता है राग-द्वेष संताप-क्लेश मिटा पुरुषार्थ को उद्यत हुआ जाता है अपना आपा खोया जाता है राग-द्वेष संताप-क्लेश मिटा सृष्टि से एकत्व जगाया जाता है यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

वाणी योग

ओ मनमोहन शब्दों का चयन वाणी का संयम मन का भोलापन ही मोहता है मन सत्यं वदं प्रियं वदं हितं वदं यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

ज्ञान वर्षा

भाप उड़-उड़ मिलजुल बादल बनी भूरी-सफेद-सलेटी परियाँ बनी-ठनी भारी-भारी तरल जल हल्का होता बन बादल घुमड़े आकाश आकाश पवन झोंकों पर सवार गुनगुनाता गीत मल्हार टकराता कोई सुपात्र जब झूम-झूम बरसता तब मन भर-भर खिलखिलाता सब उँड़ेल हल्का हो जाता यही है चिरन्तन नियम प्रकृति का ज्ञान भरो उठो फिर हल्के हो जाओ सदा उन्मुक्त विचरण करना जहाँ-जहाँ नियति की हवा घुमाए मिले जब कोई सुजान निद्राजयी अर्जुन समान नि:स्वार्थ ज्ञान वर्षा प्रेषित करना तन-मन भिगो प्राण पोषित करना यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

ज्ञान करे जीवन को जीवंत

हे मानव ! ज्ञान सीप में छुपा मोती बीनना सीख। जीवन सिर्फ जीकर ही बिता देना नहीं है जीवंत हो जीना है। ज्ञान मार्ग है उस महानतम सत्य सच्चिदानंद, सत् चित् आनन्दस्वरूप को पाने का जो न खुशी है न गम न दुख न सुख न ही अहम या त्वम एक अलौकिक दिव्य अनुभूति सब कुछ जान समझ लेने की, न प्रश्न, न जिज्ञासा, न संशय, न उत्सुकता, बस प्रफुल्लता ही प्रफुल्लता। परा चेतना से जुड़कर नित नवनूतन आनन्द उगने बढ़ने और खिलने का व अनावश्यक तत्वों का सूखे पत्तों की तरह स्वत: ही झड़ने का। ज्ञान मार्ग कठिनतम मार्ग है इसमें रोज नई नई शाखाएँ फूटती रहती हैं और मानव बुद्धि उनकी ही गुत्थियाँ सुलझाने में फँसी रह जाती है। अहम के ही नित नए सोपान गढ़ लेती है। सच्चिदानंद के प्रकाशमय स्वरूप को जानने के लिए तन-मन को ज्ञान ज्योति बनाकर जलाना व तपाना होता है। यदि यह…

पर्वतों के बीच

घनेरे बादल छू रहे तन को अतुल प्रेम से भरते मन को अंक में बादलों के यह शरीर नश्वर ठंडी-ठंडी सीली-सीली अनुभूति मधुर चारों ओर पेड़ ही पेड़ पौधे ही पौधे झूमती लताएँ औ' रंगीन फूलों के बूटे दिखते दूर-दूर जहाँ तक दृष्टि समाए मीना जीव के चारों ओर घेरा-सा बनाए नि:शब्द समर्पण में रहे भीग पर्वत महायोगी आँखें मींच मेरा अस्तित्व इस सम्पूर्णता का हृदय जैसा साक्षी केवल नश्वर शरीर का स्पंदन शाश्वत प्रकृति नटनी के नर्तन का बादलों की टप-टप रुनझुन का पहाड़ियाँ पेड़ तलाएँ भीगते गुपचुप से एक दाता एक क्लांत एक उग्र एक शांत बादल स्वच्छंद निश्शंक मुझे छूते घूमते चारों ओर पंचतत्व की अनुभूति पाने मानव गंध अपने में समाने पर होता नहीं एकतरफा कोई खेल मनभावन नमीं करे आत्मा से मेल नन्हा-सा अणु स्वरूप आत्मा मंडल मेरा विराट आभामंडल में प्रकृति के हो विलय एक रूप हो समरस हो रहा पृथकत्व भाव तिरोहित हो…

पूर्ण आतंकवाद

मानव मन की संकीर्णता व बुद्धि की क्रूरता न जीने दे न मरने दे न खुद को न किसी और को पर जिसके साथ कृष्ण चेतना का हाथ वो क्यों करे प्रतिकार क्योंकि वही नकारात्मकता वही आतंकवाद वही तो बनता उत्थान का आधार प्रभु तेरा आभार देता सदा वृश्चिक दंश दर्द की उठा लहरें बढ़ा देता रक्त संचार जो खोल देता गाँठें मन की अनेक औ' देता बुद्धि विस्तार बुद्धि विस्तार अपार जितना आतंक होता पूर्ण उतना ही पूर्ण होता अपूर्णता का संहार आतंकी का कर्म आतंक आतंकित का कर्म अनन्त आतंकी आतंक करके भी रहता चिंतित कैसे करूँ और आतंकित पर आतंकित पीड़ा सहकर नकारात्मकता को नकार कर चल पड़ता द्विगुणित शक्ति से उस पूर्णता की ओर जिसे जानकर पाकर ओ मेरे नंदकिशोर मन होता भावविभोर पूर्ण विभोर राम से कृष्ण तक सभी अवतारियों ने मारा मरवाया मारा मरवाया आतंकियों को आक्रांतियों को कंस और रावणों को अन्य युगों…

उड़ चल मीन मना

उड़ चल मीन मना उड़ जाएगा हंस अकेला हे मन मनमोहन अब कहीं और ले चल हो गये भारी-भारी से कुछ कठिन-कठिन से पल कितना पुकारा ओ मानव अब तो संभल… संभल पर बस मैं ही मैं का राग मेरा ये ठीक हो जाए मेरा वो ठीक हो जाए कुछ भी ऐसा हो जाए जिससे मुझे बस मुझे ही मुझे कैसे भी चैन व आराम मिल जाए सारा जीवन सुखी हो जाए यही हाहाकार सब ओर गहरा अज्ञान अंधकार छाया है ओ कृष्ण ओ प्रभु मेरे ओ मेरे मन तुमने मुझसे क्या करवाने का ठहराया है तुमने मुझसे क्या करवाने का ठहराया है इतना भ्रमजाल मोहमाया अहम् भार अब तू ही सँवार संभाल या दे दे कुछ कर्मठ सिपाही औ' ऐसे सलाहकार जिससे कम हो कुछ तो तेरा संकल्प भार क्यों लेते हो इतनी कड़ी परीक्षाएँ बारम्बार वचन तो तुम्हारा था संभवामि युगे युगे मैंने क्यों अपना जान मान लिया…

दृष्टा मन

खूब देख रही हूँ दुनिया का खेला झूठ का मेला अहम् का झमेला कैसे कैसे खेल देखे मीना का मन अकेला कैसे-कैसे खेल देखे मीना का मन अकेला यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

विष्णु की कर्मगति

युगों का खेला देखूँ मायावी मेला सत्य भाव संकल्प बन जाते सत्य भाव संकल्प बन जाते समय रथ कालचक्र पहिए ध्यान की रास विचार घोड़े सत्य की ओर ही तो दौड़े जहाँ पहुँची हूँ जहाँ पहुँचा है मेरा मन वहाँ से तो केवल दृष्टा बन बस देखना ही होता है हर पल की होनी के प्रति पूर्ण चैतन्य सदा चैतन्य सत् चित् आनन्द का मूर्तरूप धरे ऊर्जा की उर्मियाँ ज्ञान की रश्मियाँ भृकुटि की प्रत्यंचा पर सवार भृकुटि की प्रत्यंचा पर सवार दृष्टि के तीर से वहाँ ही तो भेजनी होती हैं जहाँ जूझ रही पूर्णता की गति सत्य की मति से झूठ औ' अपूर्णता की अति से सशरीर सारथी बन उतरना होता है खुले मैदान में तब ही जब हो जाते अर्जुन तैयार कहीं करने को हर कुरूपता का संहार रचने को सत्यम् शिवम् सुंदरम् संसार सत्यम् शिवम् सुंदरम् संसार यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ

आकांक्षा करो

एक ऐसे संवेदनशील हृदय की जो सबसे नि:स्वार्थ प्रेम करे ऐसे सुंदर हाथों की जो सबकी श्रद्धा से सेवा करें ऐसे सशक्त पदों की जो सब तक प्रसन्नता से पहुँचें ऐसे खुले मन की जो सब प्राणियों को सत्यता से अपनाए ऐसी मुक्त आत्मा की जो आनन्द से सबमें लीन हो जाए यही सत्य है यहीं सत्य है प्रणाम मीना ऊँ