कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल
कलियुग में गीता का उद्घोष करने मन से मन की जोत जलाने सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी। कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन…