कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल

कलियुग में गीता का उद्घोष करने मन से मन की जोत जलाने सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी। कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन…

पाओ ज्ञान करो कर्म प्रणाम बताए जीवन मर्म

सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है। जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टिï के…

कर्म करो अविरल हो स्वाभिमान सबल

कलियुग में गीता का उद्घोष करने मन से मन की जोत जलाने सत्य, प्रेम व कर्म का पाठ पढ़ाने प्रणाम पूर्ण तत्पर हुआ सतत् कर्म ही धर्म है। ऐसा कर्म जिसका आधार हमारे प्राकृतिक स्वभावगत संस्कार ही हों। ऐसी ही वेदों की मान्यता है। वह कर्म जो सबका भला करे, सुख शान्ति की स्थापना व कामना करे। चाहे व्यापार हो राजनीति हो या धर्म हो। सब सत्यता की नींव पर ही आधारित हों नि:स्वार्थ व प्रयत्नशील हों प्रेममय हों तभी बात बनेगी। कर्म सिर्फ बाह्य ही नहीं होता। आंतरिक कार्य भी सतत् चले तभी सांसारिकता व आध्यात्मिकता का संतुलन होगा। आंतरिक कर्म संस्कार जगा कर शक्ति देते हैं। आंतरिक कर्म में सबसे बड़ा कर्म चेतनता के साथ सांसों की गति को नियमित करना है। अपने चारों ओर व्याप्त सौंदर्य पूर्णता व प्रकाश को, अंदर जाती सांसों के द्वारा आत्मसात् करना है और बाहर जाती सांस के साथ-साथ, शरीर व मन…

पाओ ज्ञान करो कर्म प्रणाम बताए जीवन मर्म

सत्य का ज्ञान पा लेना अधूरा ही है यदि उसे कर्म करके अनुभव में परिवर्तित न किया जाए। सत्य-कर्म, अपूर्णता को सम्पूर्णता से नकारना ही धर्म-कर्म है। धर्म का पालन, समाज के बनाए नियमों को निभाना व राजनैतिक कानूनों को मानना भी अपनी जगह ठीक है पर इनमें आई हुई कुरीतियों, दिखावटीपन व राष्ट्र विरोधी नीतियों को चुपचाप स्वीकारना कर्महीनता ही है। जो धर्म सहनशीलता व संतुष्टि का पाठ पढ़ा-पढ़ा कर हमें आलस्यपूर्ण, अकर्मण्यता और नपुंसकता की ओर ले जाए वह धर्म आत्महीन है। विवेकानंद का सत्यधर्म का ज्ञान, रानी झांसी का स्वाभिमान के प्रति समर्पित कर्म-ज्ञान और भगतसिंह का समय की पुकार पर सत्य-कर्म ही मानव जीवन की सार्थकता दिखाता है। अभी जान देने की बात तो दूर रही हममें अपने चारों ओर फैली असत्यता और अपूर्णता से लड़ने का साहस ही नहीं है, उल्टा उसके भागीदार भी बनते रहते हैं। झूठ, दिखावा, उल्टे-सीधे खर्चे, अपनी अहम् तुष्टि के लिए…

सेवा सौभाग्य निधि जीवन की

मानव जीवन एक सम्पूर्ण व्यवस्था है उसे टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। अधिकतर मानव यही सोचता है कि समय आने पर देखा जाएगा। पूरे जीवन की तैयारी साथ-साथ ही करनी होती है। खूब काम करो भरपूर कमाओ मस्ती से जियो। पर क्या मानव किसी भी विधि से एकदम सही जान सकता है कि कैसे भविष्य पूर्ण सौभाग्यमय रहेगा। जब कठिनाइयाँ व कष्ट आते हैं तो चिन्तित व विक्षिप्त होकर भाग दौड़ मचाता है मानसिक शारीरिक कष्ट भोगता है। समस्याएं जीवन से पूरी तरह मिटाई नहीं जा सकतीं। बीमारियाँ खत्म नहीं की जा सकतीं। वृद्धावस्था हटाई नहीं जा सकती। भाग्य किसी और से बदला नहीं जा सकता। पर उससे कैसे कम से कम व्यथित होकर धैर्यपूर्वक गुजरा जा सकता है यही सेवा के सत्कर्म व मानवता के धर्म के पालन का सुफल है। कौन है जो जीवन में कष्टों से नहीं जूझा। सत्य तो यह है कि अधिकतर महान विभूतियाँ…

हो प्रेममय विश्व सारा वेद का पसारा

हमारी वैदिक विद्या को शब्दों व तकनीक में नहीं बांधा जा सकता। वह तो अनुभव और प्रगति की निशानी है। उसको भुला देने पर ही उसकी अलौकिकता व दिव्यता खत्म होती जा रही है उसका सतत् प्रवाह रुक गया है उसी को तो अब खोलना होगा आत्मशक्ति द्वारा जन जागरण करके प्रणाम के सिपाही बनके। हमारी गंगा-जमुना जैसी निरंतर बहने वाली संस्कृति मैली हो रही है। अब रास्ते के भ्रष्ट पत्थर हटाने ही होंगे। अपने इक अदना तमाशे के लिए, सच को सूली पर चढ़ाया आपने। चारों ओर अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट और निम्न कोटि की व्यापारिकता छाई है, देश पर आए संकटों का एक तमाशा सा बना दिया जाता है। उसमें भी कुछ न कुछ किसी का क्या लाभ हो सकता है इसी में सारी बुद्धि और शक्ति लगाई जाती है। सब जान समझ रहे हैं यह बात। कुछ ऐसी मानसिकता हो गई है कि समस्याएँ हैं तो हमारा वजूद…

बहे प्रेम की गंगाधार यही प्रणाम का आधार

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय क्या खूब कहा है कबीरदास जी ने। दुनिया में जिसने सच्चे प्रेम की झलक पा ली, समझो खुदा को पा लिया। क्योंकि सत्य अपनी चरम सीमा को पहुँचकर बस प्रेम ही प्रेम में बदल जाता है। एक ऐसी स्थिति हो जाती है कि सत्य और प्रेम एक ही हो जाते हैं। प्रकृति माँ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। गंगोत्री से बस एक पतली दूधिया धार बही और भागीरथ के अनथक प्रयत्न और प्रयास का उदाहरण बनी। अपने पुरखों के तरण तारण को, उनके अंतिम संस्कार को प्रेमपूर्वक करने का दृढ़संकल्प भागीरथ को इतनी अदम्य शक्ति प्रदान कर गया कि भागीरथ प्रयत्न मुहावरा ही बन गया और वह धारा भी भागीरथी कहलाई। फिर उसमें अलकनंदा की धारा मिल गई तो देव-प्रयाग बन गया। आत्मा से आत्मा का प्रेमपूर्वक संगम प्रयाग जैसा तीर्थ बना देता है।…

एक ही विकल्प प्रणाम का सत्य संकल्प

माना कि बहुत बड़ा है झूठ का मकान, हिम्मत कर सच का एक पत्थर उछालो तो सही। कौन कहता है कि आसमां में छेद हो नहीं सकता, आशा की डोर थाम कर्म की पतंग उड़ाओ तो सही। प्रणाम बढ़ चला है सत्य, प्रेम व कर्म की डगर पर, साथ आओ न आओ पर ज़मीर को अपने, जगाओ तो सही प्रभु सदा उनके साथ होते हैं, जिनकी अपने सत्-संकल्पों और अपनी दूरदर्शिता में पूर्ण आस्था होती है व इनको साकार करने की अदम्य शक्ति, साहस व योग्यता होती है। भारत की पावन भूमि की सदा यही परम्परा रही है, जो भी नेता राजनीति, अध्यात्म-दर्शन, ज्ञान-मार्ग या भक्ति-मार्ग में हुए वह सब पूर्णतया समर्पित थे और उदाहरणस्वरूप बने। आज युवा पीढ़ी उदाहरणस्वरूप ढूँढ़ रही है। ज्ञान की भरमार है पर उसे कर्म में बदल कर दिखाने वाले युगदृष्टा कहाँ हैं? आजकल ज्ञान तथा प्रसार के इतने अधिक माध्यम हैं कि सबको सब…

सृष्टि से सृष्टि जैसी प्रीति यही प्रणाम की रीति

पवित्र प्रेम, सबसे प्रेम, एक जैसा प्रेम, जड़-चेतन से प्रेम, कण-कण से प्रेम ही तो सृष्टि से प्रीति है। मानव को सृष्टि ने पूर्ण प्रेम से तन्मय प्रेम से मनोमय प्रेम से गढ़ा है। क्योंकि सृष्टि यह जानती है कि मानव उसी की तो अनुकृति है जो उसी का छोटा-सा अणुरूप ही है। वह अपनी सत्ता को बोल बता नहीं सकती, सुना नहीं सकती जिसको जरूरत हो उसके लिए रुक नहीं सकती, इसीलिए उसने यह पुतला बनाया, मानव मूर्ति रचाई। जिसको अपने सभी गुण देकर धरती पर भेजा कि सृष्टि के सौंदर्य की मूर्तरूप में स्थापना हो सके। एक सौंदर्यमय पूर्ण विकसित व्यक्तित्व वाले मानव को देख लोग सृष्टि के सौंदर्यमय, प्रेममय और सत्यमय अथाह सागर का आभास कर सकें। पर सृष्टि मानव को पूर्णता का रूप बनाने के चक्कर में बुद्धि से भी पूर्ण कर गई और वह बुद्धि मानव ने अपनी स्वार्थमय सोच से विवेकहीन कर ली। जो…

प्रकृति-असत्य विनाशिनी प्रणाम प्रकाशिनी

जागो, भारतीयों! महाकाल का तांडव प्रारम्भ हुआ। बार-बार चेताया-जगाया पर मानव अपने कर्मों की डोर से बँधा प्रकृति नटनी की कठपुतली बना ही रहता है। प्रकृति का न्याय सर्वोपरि है जो मानव बुद्धि से परे है। सब कर्मों का चक्र फल यहीं पूरा होता है यही है सत्य। पर इस चक्र के जंगली स्वरूप को सुव्यवस्थित करने हेतु मानव को बुद्धि दी गई। जिससे अच्छी समाज व्यवस्था, सच्ची न्याय व्यवस्था और नीति-युक्त राजव्यवस्था का सुंदर समन्वय हो सके। ताकि सब सभ्य समाज में मिल-जुलकर सुखपूर्वक आनन्दपूर्वक रहें, तरक्की करें और प्रभु के प्रेम रूप को धरती पर मूर्तरूप दे पाएँ। पर जब न्याय, समाज और राज सब की सब व्यवस्थाएँ सत्ता व स्वार्थ में लिप्त होकर झूठी और अमानवीय हो जाती हैं और जनसाधारण का उनमें विश्वास ही नहीं रह जाता तो जनता का क्रोध उन्माद के रूप में ही परिलक्षित होता है। उसके क्रोध-प्रदर्शन में विवेक या कोई व्यवस्था…