ज्ञान करे जीवन को जीवंत

हे मानव! ज्ञान सीप में छुपा मोती बीनना सीख। जीवन सिर्फ जीकर ही बिता देना नहीं है जीवंत हो जीना है। ज्ञान मार्ग है उस महानतम सत्य सच्चिदानंद, सत् चित् आनन्दस्वरूप को पाने का जो न खुशी है न गम न दुख न सुख न ही अहम् या त्वम्। एक अलौकिक दिव्य अनुभूति सब कुछ जान समझ लेने की, न प्रश्न, न जिज्ञासा, न संशय, न उत्सुकता, बस प्रफुल्लता ही प्रफुल्लता। परा चेतना से जुड़कर नित नवनूतन आनन्द उगने बढ़ने और खिलने का व अनावश्यक तत्वों का सूखे पत्तों की तरह स्वत: ही झड़ने का। ज्ञान मार्ग कठिनतम मार्ग है इसमें रोज नई नई शाखाएँ फूटती रहती हैं और मानव बुद्धि उनकी ही गुत्थियाँ सुलझाने में फँसी रह जाती है। अहम् के ही नित नए सोपान गढ़ लेती है। सच्चिदानंद के प्रकाशमय स्वरूप को जानने के लिए तन-मन को ज्ञान ज्योति बनाकर जलाना व तपाना होता है। यदि यह न…

जीकर जान गीता का ज्ञान

हे मानव! जान ले कि अब समय आ गया है गीता में कुछ और भी नया जुड़ने का और तूने तो अभी तक गीता को ही पूरा जानकर जीकर उसके अनुभव को नहीं जाना है तो आगे कैसे बढ़ेगी तेरी प्रगति। युग चेतना की वाणी है गीता, न प्रवचन न उदाहरण स्वरूप रोचक कथाएँ। प्रश्नों के सटीक सीधे उत्तर जो श्री कृष्ण ने वेद व शास्त्रानुसार जीवन जीकर उसी के अनुभव के आधार पर दिए हैं। गीता के अनुसार जीवन जीकर ही तो कुछ और नए प्रश्न बनेंगे जिनके उत्तर प्रकृति का तैयार किया कलियुग का उन्नत माध्यम अवश्य ही देगा और गीता में नए आयाम जुड़ेंगे। गीता भी उसी को पूरी तरह समझ में आ पाएगी जिसने श्री कृष्ण के जीवन के दर्द व मर्म को पूर्णतया आत्मसात् कर समझा हो कि कितनी वैराग्य और कर्म की तपस्या के बाद वाणी गीता हो जाती है। गीता कहनी भी सुपात्र…

आस्था से हो सब मंगलमय

ऐसा हो बदन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे, ऐसा हो मन कि कृष्ण ही कृष्ण सुझाई दे हे मानव! आस्था की मान्यता का रहस्य जान। जीवन में आस्था ही सब कुछ है। आस्था अंध-भक्ति का नाम नहीं। आस्था से सदा सब कुछ मंगलमय हो इसके लिए सुपात्र होना ही होगा। सत्य-कर्म व प्रेम के मार्ग पर चलकर ही प्रभु का कृपा पात्र बना जा सकेगा। आस्था रखने के बाद भी बहुतों को प्रभु से शिकवा-शिकायत होने लगती है। ऐसा वैसा क्यों हुआ यह भाव आने लगता है। क्योंकि वे सब कुछ अपनी आस्था व प्रभु पर छोड़कर अपने ही हिसाब से कर्ताभाव में जीते रहते हैं कि हमारी आस्था है तुम पर प्रभो तुम्हें सब ठीक रखना है। मानव यह ज्ञान नहीं जानता कि जब प्रभु-कृपा बरसेगी तो दरवाजा खुला होता है या बंद। झूठ, अहंकार, स्वार्थ, मोह, अहम् आदि के अंधकार से कपाट बंद रहते हैं उसे खोल…

श्री सद्गुरु की विडंबना

हे मानव! समझ सच्चे गुरुओं के मन की बात जो सदा कल्याणकारी मार्ग बताने को प्रयत्नशील रहते हैं मनु कहे वही कथा- कंघे बेचूँ गंजों को, आईने बेचूं अंधों को ज्ञान बेचूँ अक्ल मंदों को, प्यार बाँटू कृतघ्नों को मान दूँ अहम् वालों को, कर्म पढ़ाऊँ कर्महीनों को कभी-कभी सोचूँ वंदनीय गुरुओं की बाबत क्या होती होगी उनके मन की हालत आज शिष्य हो गया चतुर महान जरा सा कर दिया गुरु जी का सम्मान भोले गुरु बाँटें आशीर्वाद भर-भर झोली बोलें भावभीनी मधुर-मधुर बोली शिष्य हो धन्य पाते प्रसाद आ जाएंगे फिर कभी जब होगा विषाद। आशीर्वाद ले चंपत हो जाते अपने दुनियावी खेलों में रम जाते गुरु देवें दिव्य प्रवचन, शिष्य देवें ताली जिसे न लुभाया वही घर जा देवें गाली बाकी सब बहुत ही व्यस्त गुरु जैसे सबसे खाली सामने आकर खूब मान-सम्मान, गुणगान ताकि गुरु जी प्रेम से करें उनका मनोरंजन जैसे बेच रहे हों दंतमंजन…

मानव होने का गौरव

हे मानव! अपने मानव होने की महत्ता जान, यदि मानव होने के आनन्द की अनुभूति इसी जीवन में एक बार भी न कर पाया तो मानव जन्म व्यर्थ ही गंवाया, जानवर की तरह चुक गया। मानव को प्रकृति ने तीन गुण अपने से अधिक दिए हैं क्योंकि प्रकृति किसी के लिए रुकती नहीं। मानव रुक सकता है इसीलिए मानव को बुद्धि दी ताकि इन तीनों गुणों को विकसित कर चारों ओर मधुरता बिखेरे। पहला है कंसीडरेशन-दूसरों का पक्ष समझना तथा सामने वाले की बात सुनना तथा समझना। दूसरा -भावमयी करुणा-दया-कंपैशन है और तीसरा है-दूसरों की भलाई व अच्छाई के लिए चिंतन-मनन करना, चैतन्य रहना-कंसर्न। इसके लिए पहले अपने चारों ओर रहने वालों के लिए संवेदनशील होना पड़ता है। उनके प्रति अपना दायित्व व कर्त्तव्य निभाकर फिर दायरा बड़ा कर समाज, देश व विश्व के प्रति अपना दायित्व समझकर कर्म करना है। मानव होने का अर्थ है मानव धर्म निबाहना तभी…

मानव से मानव का व्यवहार

हे मानव! तू कब का भूल चुका है यह। सदियों से कब का ये माँ बाप के निश्छल प्रेम-व्यवहार से बढ़कर भाई-बहिन आदि खून के रिश्तों में बंधकर अपना जाल फैलाता ही गया। धीरे-धीरे सामाजिक व आर्थिक सम्बन्धों को भी अपने मकड़जाल में लपेटता गया फिर जो मनभायी कहें चाटुकारिता व मनोरंजन करें उनको भी अपने दायरे में समेटता चला गया, पता ही न चला। सारे सम्बन्धों, नातों व सम्पर्कों में आते लोग बनी बनाई छवियों के अनुसार बंधे बंधाए व्यवहार में ढल गए। किसी का स्वागत सत्कार कम, किसी का अधिक सब आवश्यकतानुसार औपचारिकता व अभिनय ही बनकर रह गया। इतना पाखंड, बनावटीपन व झूठ कि सत्य व्यवहार लुप्त ही हो गया। सब मन बुद्धि का खेल बन गया, नौटंकी जैसा। आत्मा वाला आत्मीयता का प्रेममय व्यवहार खो ही गया। मानव मानव से व्यवहार नहीं करता बल्कि व्यक्ति विशेष से स्वार्थपूर्ण मनोस्थिति के अधीन हो अपना पार्ट अदा करता…

अब युद्ध नहीं करेगा अर्जुन

हे मानव! सत्य, प्रेम व प्रकाश का प्रसार होता है झूठ, अंधकार व अपूर्णता का प्रचार होता है सत्य का धर्म स्थापित करने को मैं हर युग में प्रकट होता हूँ पर पहचानेगा तो कोई अर्जुन ही। प्रत्येक अवतार अपने से पहले वाले अवतार से भिन्न होता है और अपने युग की आवश्यकतानुसार कुछ नया करता है। जैसे महात्मा बुद्ध ने संसार त्यागकर अहिंसा और वैराग्य का कुछ और ही रूप समझाया जो श्रीकृष्ण की सांसारिक लीलाओं से सर्वथा भिन्न था। पर सब अपने समय के उन्नत सार्थक सशक्त व अनुकरणीय युगदृष्टा मानव हुए। सतयुग में पूर्णता-अपूर्णता, त्रेता युग में पाप-पुण्य, द्वापर में धर्म-अधर्म का युद्ध होता है। बुद्ध के समय अशोक ने अहंकारयुक्त सत्ता विस्तार का युद्ध किया, जीता मगर अंतर्मन के सच से हार गया। अब कलियुग में समय है सच और झूठ के संघर्ष का। विज्ञान के तथ्य ने वेद के सत्य से कटकर अपनी सारी शक्ति…

बदलाव की घड़ी सिर पे खड़ी

जाग अब तो जगाए प्रणाम, युगचेतना का संकेत जान चंचल मन की छोड़ दासता, अंतर्मन का सत्य पहचानहे मानव! कालचक्र घूमा है, समय करवट ले रहा है, सब प्रबुद्ध मानवों के दिलों में कुछ खालीपन कुछ अजीब-सी तटस्थता छाई है। खोल दो दिलों के ताले, उड़ने दो अंतरात्मा के पंछी को आज़ाद। अपने-अपने सत्य को स्वीकार कर लो। मुक्त हो जाओ दुविधाओं और संशयों से। तू बदलेगा मानव, बदलना ही होगा। यही बात जानने व मानने की है बदलाव की घड़ी आ ही पहुँची है अब तू चाहे या न चाहे तेरी मानसिकता सत्य की ओर आकर्षित होगी ही। क्योंकि तू ही तो सदियों से सत्य को खोज रहा है। अब तो सत्य जीने की बारी है नहीं तो व्याधियां, विषाद, विक्षिप्तताएं आदि नियति के थपेड़े सताएँगे। जो कुछ भी चारों ओर घट रहा है उनका संदेश समझने में अपना ध्यान व ज्ञान लगा और बह चल समय की पुकार…

सात चक्रों का उत्थान ज्ञान

हे मानव! अपने सत्य को जान, अपनी ही तराजू पर नाप-तोल कर। सूक्ष्मतम ज्ञान के तत्व सात हैं और गुण तीन। सात रंग, चक्र, स्वर, दिन, ग्रह, युगचेतना, मानव चेतना के सोपान, समुद्र, सूक्ष्म आकाशीय तल आदि सब सात। सप्तऋषि तारों के भी भिन्न-भिन्न सात ऋषि हर युग के अधिष्ठाता गुरु होते हैं जो सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को संजोए रहते हैं। सातों चक्रों का उत्थान कर इनसे संकेत संदेश व सूचनाएँ पाने के लिए सुपात्र होना होता है। सविता मंत्र के भी सात ही शब्द हैं- ऊँ भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्यम्इन सबका मानव उत्थान से गूढ़ अन्तरंग व सनातन सम्बन्ध है। इसलिए इन सबका महत्व व वेद-विज्ञान जानकर जीकर अनुभव कर अपने आपको ध्यान-योग द्वारा परखना होता है। प्रत्येक उत्थान के सोपान पर मानव में क्या शारीरिक, मानसिक व आत्मिक परिवर्तन व लक्षण परिलक्षित होते हैं, यह वही बता सकता है जिसने यह सब जीया हो। चक्र ऊर्जा…

जीव उत्थान के सात सोपान

हे मानव! अपने को जान। सृष्टि की उत्पत्ति व संहार का क्रम निरंतर चलता ही रहता है। पर सब कुछ प्रकृति के अटल नियमों में लयात्मक रूप से निबद्ध होकर ही होता है। उत्पत्ति पूर्णता व संहार तीनों का प्रतीकात्मक स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही तो हैं। ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ तो सदा ही प्रवाहित होती रहती हैं सृजन करने को। यदि परिणाम सत्यमय है और उसमें आगे उत्थान की संभावनाएँ हैं तो पूर्णता की ओर अग्रसर होता है अन्यथा समय आने पर विनष्ट हो जाता है। जीवात्मा के विकास के सात सोपान हैं- 1. जानवर, 2. मानव, 3. देवता, 4. संत 5. गुरु, स्वामी परमहंस आदि, 6. अवतार स्वरूप, 7. प्रकृति परमेय। जानवर का स्तर ऊर्जा के ऊपर की ओर प्रवाहित होने का आधार है। यहीं से मानव का विकास प्रारम्भ होता है। मानव जीव विकास की सर्वोत्तम कृति है। क्योंकि इसी में दिव्यता के प्रस्फुटन की क्षमता है। मानव सभी…