ढोंग-पाखंड

किसी को प्रभावित करना या करने की चेष्टï करना, पाखंड, ढोंग दिखावट व झूठ है। शायद कोई आपसे प्रभावित हो भी जाए पर ऐसे प्रभावित कर देना अधिक देर नहीं ठहरता, तो यह भी एक प्रकार का ऊर्जा का हनन व प्रदूषण है। जब हम दूसरों को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं अपने व्यक्तित्व बुद्धि चातुर्य या किसी अन्य उपाय से ताकि प्रभावकारी छाप छोड़ें तो हम अपने ही बनाए मकड़जाल में उलझ जाते हैं जो कि उत्थान के लिए बहुत ही विनाशकारी है। जब हम प्रभाव डालने का प्रयत्न करते हैं तो हमारी ऊर्जा व्यय होती है सारी शक्ति मनोनुकूल प्रभाव उत्पन्न करने में लग जाती है। हम एक कृत्रिम व्यक्तित्व बना लेते हैं अपने आभामंडल में जो कि हमारा सत्यरूप नहीं होता, ओढ़ा हुआ ऐसा बनावटी स्वरूप, व्यक्तित्व जिसे बुद्धि भी नहीं जानती। जब हमारी सारी शक्ति इस प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व को बनाने में लग जाती…

समेटना

वैदिक प्रथाओं में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु की दया मांगने की अपेक्षा उसकी दया पाने योग्य बनना होगा। सुपात्र बनना ही होता है। बाद के जितने धर्म आए उनमें इसे, सुयोग्य व सुपात्र बनने के कर्म को इतना महत्व नहीं दिया गया। धार्मिक स्थलों पर सामूहिक प्रार्थनाओं की या अन्य और किन्हीं बाहरी तरीकों से पाप धोने की विधियां अधिक पनप गईं। कर्मकाण्डों व किताबी ज्ञान का इतना विस्तार कर दिया कि सत्य उस भूल भुल्लैया में खो ही गया। अब वापिस सत्य तक पहुंचने के लिए, इतना विस्तार जो हो गया है उसे तो समेटना ही होगा। यही हो रहा है मनु नामधारी जीव के माध्यम से। मैं तो बस एक शून्य हूँ खोज में एक पूर्ण की, जिसमें लगकर एक से दस हो पाऊँ। एक ही एक, अब होने हैं दस, फिर वही एक ही रह जाना है। जय सत्येश्वर !! प्रणाम मीना ऊँ

ज्ञानोदय, ज्ञान क्या है…?

ज्ञान भी एक रास्ता है सत्य को पाने का सत्य क्या है- सत् चित् आनन्द, सच्चिदानन्द सच्चिदानन्द क्या है- ऐसा सत्य पूरित चित्त जिसमें आनन्द ही आनन्द है वो आनन्द जो ना खुशी है न ग़म, ना सुख ना दुख ना अहम् ना त्वम् एक आलौकिक अनुभूति सब कुछ जान समझ लेने की, न कोई प्रश्न ना जिज्ञासा ना भागदौड न उत्सुकता, बस परा चेतना से जुड़कर नित नव नूतन आनन्दमयी स्थिति, सदा उगने की, सदा खिलने की आत्मानुभूति। ज्ञान बहुत ही कठिन मार्ग है जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है, रोज नई-नई शाखाएं फूटती रहती हैं और मानव उन्हीं की गुत्थियां सुलझाता रहता है। कर्म बना-बना भोगता है भागदौड में रमता है, अहम् के नित नए सोपान बना लेता है। ज्ञान साधन है, सर्वोत्तम साधन है- सच्चिदानन्द को जानकर वैसे ही होने का। यदि यह न हो पाया तो ज्ञान सिर्फ ज्ञान ही रह जायेगा जो कभी भी उच्चतम सत्य…

दिव्यता में रहना

व्यक्तिगत सारी दुविधाओं से ऊपर उठकर कुछ भी मेरा अपना है ही नहीं दिव्य चेतना ही मूर्तरूप में परिलक्षित हो रही है… मेरा या तेरा कुछ भी नहीं योग है दिव्यता से एकत्व मैं परम का यंत्र हूँ, माध्यम हूँ अपने आत्म तत्व आत्मिक ऊर्जा और मूल प्रकृति में स्थित सिर्फ वो ही देख पाएंगे जिनके लिए आत्मानुभूति समय व्यतीत करने का एक साधन नहीं आत्मानुभूति कोई फैशन या मनोरंजन की वस्तु नहीं जिसमें तुम अपनी रुचियों और कल्पनाओं के आधार पर अपनी मनोवांछित भावनाओं के हिसाब से रमो दिव्यता में रहना है तो सदा सुमिरन में रहो। प्रणाम मीना ऊँ

आत्मज्ञान – पूर्वीय पक्ष

चेतना को जानना व अनुभव करना इसके लिए ब्रह्माण्डीय सोच वाला होना ही होता है। यह पूर्वीय पक्ष है, पूर्व का विश्वास है। भारत में लोग आत्मज्ञानी होने की आकांक्षा करते हैं। ब्रह्माण्डीय जीवन शक्ति जो सर्व विद्यमान, सर्व ज्ञानवान व सर्व शक्तिमान है उसे जानकर उसी में विलय होना ही मानव जीवन को पूर्णता देना है। यही पूर्वीय पक्ष है।पाश्चात्य देशों में मस्तिष्क को जीतने की आकांक्षा है। मस्तिष्क को जानना मानसिक शक्ति और उसके खेलों में रमना जो कि सीमित है व भ्रमित भी करता है। कुछ सीमा तक सांसारिक जीवन को सफलता भी देता है। आध्यात्मिक व आत्मिक उत्थान हेतु, मन मस्तिष्क को सेवक बनाना होता है। उसे मानव अस्तित्व व सृष्टि के रहस्य, उजागर हेतु ध्यान में लगाना होता है।जय सत्येश्वरप्रणाम मीना ऊँ

तन्हाई मन भाई

मैं मेरा मन मेरा खुदा मेरी आत्मा और मेरी तन्हाई एक ही तो हैं खुदा और खुदाई सारी खुदाई में मैं और मेरी तन्हाई यही तन्हाई मन भाई कन्हाई यही है सच्चाई यहीं है सच्चाई मैं मेरा मन मेरा खुदा मेरी आत्मा और मेरी तन्हाई मैं पाँच ही हूँ मैं अकेली अकेली कहाँ हूँ सारी खुदाई में मैं और मेरी तन्हाई यही तन्हाई मन भाई यही है सच्चाई - यहीं है सच्चाई प्रणाम मीना ऊँ

ऊर्जा का खेल

जब तक इंसान दूसरे इंसानों से ऊर्जा लेकर काम चलाएगा, शक्ति लेगा उसके दुखों का अन्त नहीं होगा क्योंकि इंसान से ऊर्जा लेने पर उसके कर्मों का बोझा भी ढोना पड़ता है। जब मनुष्य दूसरे से ऊर्जा लेता है तो बंधता है जब अपने आप ब्रह्माण्ड से ऊर्जा लेता है किसी और पर निर्भर नहीं होता ऊर्जा के लिए, तो मुक्त होता है स्वतंत्र होता है। स्वतंत्र होना बंधन मुक्त होना ही मानव की नियति है। मानव ही इसके विरुद्ध जाता है और कर्मफल बंधन में बंधकर कष्ट भोगता है। अपने बंधन ही खोल खोलकर समाप्त करना इतना कठिन है कि पूरा का पूरा जीवन लग जाता है इसी में तो और इंसानों से भी ऊर्जा लेकर भोगना तो अन्याय ही है इस मानव तन मन के साथ। हाँ! यदि आपने अपने सब कर्म भोग लिए हैं काट लिए हैं हिसाब किताब बराबर कर लिया है और आप शक्तिमान हो…