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हम स्वयं उत्तरदायी हमारे साथ होने वाली प्रत्येक घटना सुघटना या दुर्घटना के हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। हमारे शत्रु या मित्र हमारे अन्दर ही तो हैं। जो कुछ हम मनसा वाचा कर्मणा करेंगे उसी का फल हमें मिलता है। सब कुछ वापस घूमकर वार करता है। बाहर से कुछ नहीं होता, किसी के करने से कुछ नहीं होता। किस्मत को दोष देना या किसी और को दोष देना, अपने किए का उत्तरदायित्व ना लेना है। अपने पर काम न करने का बहाना है। अपना सच देखने का प्रयत्न न करने का आलस्य है। अपने अंदर झांकने से बचने का ही बहाना है। यह सच नहीं जानता कि जितना जल्दी झांक लेगा उतना ही शीघ्र सत्य से साक्षात्कार कर लेगा। जय सत्येश्वर प्रणाम मीना ऊँ

संसार बहुत सुंदर है आओ इसे और सुंदर बनाएं

प्रणाम सभी शास्त्रों व वेदों के सार-गीता को जीना सिखाता है ताकि सब गीता का सही संदेश व अर्थ वैसा ही समझ सकें जैसा जगद्गुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया। जो मार्गदर्शन हमें महापुरुषों युगदृष्टाओं व महात्माओं ने दिया उस पर कैसे चला जाए कैसे समझा जाए और कैसे जीवन में उतारा जाए बिना संसार को छोड़े नकारे और विरक्त वह मार्ग… जो सत्य है सुगम है आनन्ददायी है आज तक जितने भी धर्म हुए वो सब व्यक्ति विशेष या पंथ विशेष पर आधारित रहे हैं। मगर प्रणाम इन सबके लक्ष्यों पर आधारित है कि वो क्या प्राप्त करना चाहते थे। प्रणाम का धर्म मानवता है जो प्रकृति के नियमों की सत्यता पर आधारित है। मानव जीवन का लक्ष्य क्या है कैसे मानव अपने अन्दर छुपी दिव्य शक्तियों को उजागर कर विश्व में सत्य प्रेम व प्रकाश का प्रसार कर सकता है इसी का मार्गदर्शन प्रणाम में उदाहरण बनकर मिलता है।…

सत्यव्रती

सत्य जानने वाला ही सत्य बोल सकता है सत्य जानने वाला विज्ञान जानता है जो चिन्तन मनन आत्ममंथन से जानना है सत्य अविनाशी है इसी अविनाशी में पूर्ण निष्ठा अटूट श्रद्धा ही प्रेरणा है जो सर्वत्र वही, वो ही, वो ही वो समझ आता है सुझाई देता है सब जगह सब प्रकारों में आकारों में सब जड़ चेतन सभी में वही है कुछ और है ही नहीं। ऐसा आत्मा में रमने वाला चिन्तन वाला स्वतंत्र है सब कुछ उसी का प्रसार व संचार होता है। पूर्ण विस्तार होता है। सबमेंं विलय होकर लीन होकर एकाकार हो ब्रह्माण्डीय सोच वाला होता है। सत्य जानने वाला यही हो जाता है यह हो जाने वाले के संकल्प मात्र से कामना पूर्ण होती है। संकल्प से भी निवृत, कामना पूर्ण होने के भाव से भी, सुख दुख से भी परे। कामनाओं से भी परे हृदयस्थ आत्मतत्व में आत्मलीन हो अमृत पाता है। उसी अमृत…

सुपात्र को ज्ञान

हे अर्जुन ! तुम मुझसे कभी भी ईर्ष्या नहीं करते हो तभी तो तुम्हें सब गुह्यतम ज्ञान, विज्ञान सहित कहूँगा और तुम इसी संसार में रहकर इसी संसार के सब बंधनों से मुक्त हो जाओगे। प्रभु भी ईर्ष्यारहित पर ही कृपालु होते हैं। जब सारे रहस्य ज्ञात हो जाएंगे तो अंधकार स्वत: ही कट जायेगा। ईर्ष्या मोह का कारण है। ईर्ष्या अपनी व्यक्तिगत क्षमता को ना पहचानना है और यदि पहचाना भी तो उसके लिए कार्य करने का सतत प्रयत्न नहीं है। आलस्य या प्रमाद हावी है। निरन्तर तपस्या नहीं है, बार-बार तपस्या भंग होती रहती है सांसारिक भोगों में रुचि व लिप्तता मेरे पास वही आकर टिक पायेगा जिसके कर्म कट चुके हैं जिसके कर्म कटने बाकी हैं वह खुद ही कट जायेगा वही टिक पायेगा जो पूर्ण समर्पण में आकर इसी आस्था में स्थित रहेगा कि कर्म तो स्वत: ही धुल जाएंगे जब प्रणाम की शरण में हूँ…

सौंदर्य दिव्यता का ही गुण है

उत्कृष्टता और सौंदर्य एक दूसरे के पूरक हैं। सम्पूर्ण सौंदर्यमय व्यक्तित्व के सभी अंग तन मन बुद्धि त्रुटि रहित, सौंदर्योत्पत्ति करते हैं। दिव्य स्वरूप दिव्यात्मा आदि शब्द इसी स्वरूप की व्याख्या करते हैं। सौंदर्य जैसी दिव्यता का भी व्यापार बना दिया- भोगी संस्कारहीन पथभ्रष्ट मानवता ने। पुरुष के अहंकार ने, अहम् ने नारी के सौन्दर्य का मापदण्ड ही बदल के रख दिया। प्रसाधनों तक सीमित कर दिया उसकी सौंदर्य की दौड़ को। सौंदर्यशालाओं को कृत्रिम व ऊपरी सौंदर्य बढ़ाने की फैक्टरियाँ बना दिया। नित नए सौंदर्य प्रसाधन लाकर और बढ़ा दी उसकी दासता। मूर्ख बनती है ज्ञानहीन अज्ञानी नारी, ऊपरी तामझाम रख रखाव, बनावटी रूप से सुंदर हो किसे रिझाना है मूर्ख बनाना है। सम्पूर्ण व्यक्तित्व जब सत्यम् शिवम् सुन्दरम् हो तभी बात बनती है। अपना आत्म विश्वास जगाना है ज्ञान ज्योति प्रज्जवलित करके ना कि तरह-तरह की केशसज्जा और विवेकहीन लीपा-पोती से। श्रृंगार का भी महत्व है, उसे नकारा…

कर्मयोग की ओर

प्रत्येक कर्म में उन्नति, उत्थान व सर्व कल्याण का ध्यान। प्रत्येक कर्म जैसे पूजा अर्चना अर्पण व तपस्या के भाव में करना।पूर्णता प्राप्त करना है उत्कृष्टता से प्रत्येक कर्म करना है यही धारणा सदा बनी रहे। कुछ प्राप्ति हो इस फल की इच्छा से रहित होकर।कर्मों में स्वच्छता सुन्दरता, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, व्यवस्था व संतुलन लाना सीखना होता है।क्या तुम क्षुद्र वस्तुएं भगवान को चढ़ाते हो। मंदिर में ऊट पटांग कपड़े जूते या श्रृंगार कर जा सकते हो? नहीं ना, या तो मंदिर जाओ ही ना कभी भी, क्योंकि मजे लेने के लिए और भी बहुत स्थान हैं और अगर मंदिर जाना भी है तो सुपात्र बनो, पावन भाव, पवित्र काया और निश्च्छल आत्मा से प्रवेश करो।अपनी पूरी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं से कर्म करना ही सबसे अच्छा कर्म है।प्रत्येक कर्म में और अधिक श्रेष्ठता की संभावना सदा ही रहती है। बोर होना या पूरा कर लिया का कोई चक्कर…

साधना योग संस्कृति

सुबह- ध्यान : जो साधोगे वही सधेगा- शान्ति तो शान्ति, अशान्ति तो अशान्ति, सत्य तो सत्य, असत्य तो असत्य, प्रेम तो प्रेम, कटुता तो कटुता, भक्ति तो भक्ति, विद्रूपता तो विद्रूपता आदि-आदि। जहां जाए ध्यान वहीं बने भगवान। दोपहर- योग : जो करोगे वही योग बनेगा कर्म पूर्ण कर्म - राग द्वेष रहित फलेच्छा रहित कर्म ही योग बनेगा कर्म योग की साधना। कर्म बंधन काटने का मर्म। संध्या-संस्कृति : संध्या संस्कृति का समय मेल मिलाप- गीत संगीत जो करोगे वही संस्कृति बन जाएगा। अपनी अपनी संस्कृति अनुसार या विशेष गुणवत्ता अनुसार समय व्यतीत करना उत्तम है। संस्कृति संस्कार साधना। भावी पीढ़ी मेंं संस्कार बोने का धर्म। रात्रि : प्रार्थना स्तुति कृतज्ञता, शुक्राना : भक्ति योग, साधना, सुबह दोपहर संध्या रात्रि इन चारों प्रहरों में ध्यान योग संस्कृति व प्रार्थना का ध्यान रखने से मानव का आंतरिक समय चक्र, घड़ी, सुनियोजित होती है और यह सुव्यवस्था ऊध्र्वगति का कारण बनती…