कर्म व प्रेम-लीला की
क्यों कभी-कभी बहुत शरारतें हो जाती हैं
शायद यही है कृष्ण-लीला
जानती हूँ
कभी-कभी कर्म बनाने ही पड़ते हैं
बनाने ही पड़ते हैं
बहुत ज़रूरी हैं
वरना कैसे टिकूँगी धरती पर तेरा कर्म करने को?
कुछ कर्म बनाती हूँ जानबूझ कर
तुम्हीं तो बनवाते हो कर्म
क्योंकि कर्मों का हिसाब-किताब तो
इसी धरती पर पूरा करना होता है
कर्मों की गुत्थी खोलने को
धरती चाहिए
यह संसार चाहिए
तो तुम मुझसे कर्म करा ही लेते हो
इस बहाने धरती पर रहूँगी
धरती पर रहूँगी और जानते हो कि
कर्म तो तुम्हारा ही करना होगा
इसके अलावा मेरा और कोई कर्म है ही नहीं
नहीं है न, बिल्कुल खाली हूँ
थोड़ा कर्म बनाया
हाथ के हाथ वह भी औरों के
कुछ कर्म धुलवाने को
धुलवाने को
धोने को भुगतवाने को
हो जाऊँ फिर हल्की-हल्की
महकी महकी
बहकी बहकी
चहकी चहकी
तेरी सोन चिरैया
ओ, कन्हैया बंसी बजैया
और कर्म कहाँ से लाऊँ
मैं तो बस तुझे रिझाऊँ
मैं तो बस तुझे रिझाऊँ
तुझे मनाऊँ
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!
- प्रणाम मीना ऊँ