ऊँ हृीं श्री सर्वगुरु समूह अत्रावतरावतर संवौषट्
ऊँ हृीं श्री सर्वगुरु समूह अत्र तिष्ठï तिष्ठï ठ: ठ:
ऊँ हृीं श्री सर्वगुरु समूह अत्र ममसन्निहितो
भवभव वषट्
रोम रोम कृतज्ञता से भरे मेरा मन अंजान
प्रभु कैसे करूँ अपनी छोटी-सी बुद्धि तुच्छ जुबान
औ’ कमजोर कलम से
तेरी कृपा बखान
सभी कुछ तो पूर्ण ब्रह्माण्ड ही
भर दिया मेरे अन्दर
इससे ज्यादा पूर्णता क्या होगी
मुझे अपने में समा
खुद मुझमें समा मुझे पूर्ण कर दिया
कृष्ण हैं अब राधा स्वरूप
नर को होना होगा नारी रूप
तभी जानेगा दर्द राधा का
होगा पूर्ण तब रूप
अर्धनारीश्वर का
जगद्गुरु का
यही सत्य है !!
यहीं सत्य है !!