जीवन्त पटाखे रंग-बिरंगे
रोज छोड़े रोज तोड़े धूमकेतु पुच्छल तारे
छोटे मोटे ग्रह न्यारे-न्यारे
यहाँ से वहाँ तक ब्रह्माण्ड के अनन्त छोर तक
अपनी मर्जी के मालिक स्वच्छन्द नटखट
पूर्णता के खेल में रमे न थके न बुझे
यह तो केवल मानव ही है जो कहे
धरती की दीवाली पर
पटाखे उड़े मिटे चले जले बुझे-अनबुझे
जो करते रहते हमारी ही मानसिकता को तृप्त
उस अनन्त रचयिता के पटाखे करते
अपने को ही संतुष्ट
अपना ही गुन गुनें अपने में ही जलें-बुझें
कोई निहारे या न निहारे कोई पुकारे या न पुकारे
कोई छुटाए या न छुटाए कोई जलाए या न जलाए
अपनी मन की मौज से ही
जलते तड़पते दौड़ते डूबते
सरकते घूमते चमकते रगड़ते
बने सृष्टि का हिस्सा
कह रहे उसी का किस्सा
फिर क्यों मानव मन चाहे
उसे कोई जलाए बुझाए घुमाए रिझाए
क्यों नहीं जलता अपनी ही आग से
बुझता अपनी ही प्यास से
क्यों नहीं घूमता
अपनी ही रास से
रीझता अपने ही प्रयास से
सृष्टि की आस से
उसी के मन के अहसास से
यही है सत्य !!
- प्रणाम मीना ऊँ