अर्पण

अर्पण

रे मानव! कुछ भी रचनात्मक कर आत्मतुष्टि के लिए
व्यापारिक दृष्टिकोण से कुछ रचा गया पूजा नहीं है
कुछ भी करो संगीत कला मूर्तिकला चित्रकला
सब नित्य नया सौन्दर्यमय
कुछ कर और अर्पण कर
उस परम को
श्रीकृष्ण सम्पूर्ण पुरुष कहाए
जगत गुरु कहाए
16 कला सम्पूर्ण हुए
कुछ कर ना, रचना शुरू तो कर रे मानव!
प्रभु को अर्पण कर अपनी कृति को
नित्य उत्कृष्टïता की ओर ले जा।
अपना आलोचक स्वयं बन।
जरा-सा कुछ करके प्रशंसा का मुँह न तक।
जो कुछ कर प्रभु को अर्पण कर! तेरे सब पापों का तर्पण हो जाएगा।

  • प्रणाम मीना ऊँ

प्रातिक्रिया दे