हे मानव! तू असफलता के भय से त्रस्त होकर पहले से ही पक्का इन्तजाम कर सफलता ही चाहता है। किताबी तकनीकी ज्ञान, प्रचुर मात्रा में धन व अन्य प्रकार के साधनों की इच्छा रखता है। शारीरिक स्वास्थ्य व बनावटी और दिखावटी, बढ़ा हुआ ऊँचा जीवन स्तर कायम रखने के लिए। वो जीवन स्तर जिसकी कोई सीमा रेखा है ही नहीं नित नया मापदण्ड। इसी उधेड़बुन के तनाव व समय के साथ भाग न पाने के भय में जीवन का स्वरूप व आनन्द खो ही गया है।
विज्ञान पर अत्यधिक निर्भरता व आरामतलबी के उपकरणों ने मानव की, संघर्ष से जूझने की सोच को पंगु बना दिया है। बालक जब खड़ा होकर चलने की प्रक्रिया में बार-बार गिरता है इससे वो सीखता है कैसे हाथों पैरों व घुटनों का तालमेल बिठा कर खड़ा होना है अपने आप सम्भल कर खड़े होने पर उसे आनन्द की अनुभूति होती है। सोच व कर्मेंद्रियों का तारतम्य जानने समझने की क्षमता का विकास होता है। पर आजकल उसे गिरने के भय से बचाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के वाकर आदि पकड़ा दिए जाते हैं चाहे वो सदा के लिए गिरने के भय से भयभीत ही क्यों न होता रहे।
बड़े होने पर भी सब सुख-सुविधा के साधन उपलब्ध कराने की होड़, असफलता में आने वाले कष्टों से बचाने के लिए। आर्थिक उन्नति की युक्तियों में व जीवन की दौड़ में आगे बढ़ने की विधियों में पारंगत करवाने के लिए हर जोड़-तोड़ व सम्पर्क सूत्रों का प्रयोग करने को ही सन्तान के प्रति अपने प्रेम व कर्त्तव्य को निभाना मान लेना। आन्तरिक शक्ति व मानवीय गुणों के विकास के लिए जो प्राकृतिक संघर्ष अपेक्षित है उसे नकारते हुए और वही संतान जब वयोवृद्ध माता-पिता को समय नहीं दे पाती तो कुंठाग्रस्त होता है।
अरे जिसको तूने कीमती वाकर दिया वो ही तुम्हें कीमती छड़ी तो पकड़ा देगा आराम के साधन भी देगा मगर वो कंधा जो कमजोर सिर को टिकाए सहलाए प्रेम पगे पल कैसे दे पाएगा क्योंकि वो कंधा व्यस्त है धन कमाने में और अभ्यस्त है केवल औपचारिक दुनियादारी में, रमा है अपने ही राग रंग में।
जब संतान को गिरने पर स्वयं ही सम्भलने के अवसर न दिए सम्भल जाने पर आँïखों से प्रेरणा व प्रशंसा की दृष्टि न डाली तो उनकी आँखों में क्यों प्रशंसा व प्रेम ढूंढ़ता है तू। ओ मानव क्या आरामतलबी के साधन मानवीय संवेदनाओं वाली प्राकृतिकता दे पाएंगे कृत्रिमता से तो केवल कृत्रिमता ही उपजेगी। तो यह सत्य जान कि सच्चा विकास व आनन्द गिरकर सम्भलने में ही है इसी से आत्मविश्वास और विवेक जागृत होता है। मानव होने का गौरव और श्रम की गरिमा की अनुभूति होती है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ