गुरु स्वामियों का महत्व

हे मानव ! ध्यान से जान यह ज्ञान कि मानव क्या से क्या हो गया है। हर पल यही ध्यान कर रहा है कि मुझे क्या मिल सकता है और मुझे क्या नहीं मिला। जो भी स्थिति या व्यक्ति जीवन में आ जाए तो उससे क्या-क्या लाभ उठाया जा सकता है। यहां तक कि गुरुओं और स्वामियों से भी क्या मिलेगा यही मानसिकता रहती है। आशीर्वाद मिल जाए, मकान दूकान ठीक हो जाए, सम्बन्ध ठीक हो जाए, आराम मिल जाए, कुछ विशेष परिश्रम न करना पड़े सभी सुख सुविधाएं जुट जाएँ आदि-आदि।

जहां किसी गुरु का बड़ा नाम सुना बड़ी भीड़ देखी बड़ा आश्रम देखा समझ लिया कि बहुत बड़े या सही गुरु हैं। कभी किसी से महानता का नाम सुना तो पहुंच जाते हैं एक तरह से गुरु की परीक्षा लेने के लिए। यह स्थिति क्यों बन गई कलियुग तक आते-आते, कि मानव को पुरुषार्थ की और सत्यधर्म की ïराह सुझाने वाले उदाहरण स्वरूप गुरुओं की और गुरु की आज्ञा पर कठिन से कठिन परीक्षा से भी न हिचकने वाले दृढ़ निश्चयी शिष्यों की परंपरा दिखाई ही नहीं देती, समाप्त सी हो गई है।

त्रेतायुग तक संत गुरु महात्मा सब जगह घूम-घूम कर सुपात्रों तक पहुंचते। प्रत्येक सत्यनिष्ठ शिष्य की क्षमताओं को समझकर उन्हें व्यक्तिगत रूप से ध्यान देकर परिष्कृत करके और तेजवान बनाने का कठिन परिश्रम, यज्ञ जैसे करते। उन्हें समाज देश व विश्व कल्याण को उद्यत करने और प्रेरणा देने का कर्म करते।

उन्हें आसुरिक व दैवीय शक्तियों का पूरा ज्ञान व आभास होता। समय की मांग को पहचान संतुलन लाने का ही ध्यान और विधान करने का धर्म निबाहते रहते। शक्ति के नशे में चूर असुरों का घमंड और आतंक न बढ़ पाए और वैभव व ऐश्वर्यवान भोगी देवताओं की मनमानी परवान न चढ़े उनका चारित्रिक पतन न हो इसका पूरा-पूरा ध्यान रखकर ही मानवों व स्थितियों का अवलोकन कर उसी के अनुसार वातावरण बनाने हेतु मंत्र जप यज्ञादि का विधान करते व मानव तैयार करते।

मानवता के कल्याण हेतु ध्यानावस्थित हो सही मार्ग पर चलने चलाने के लिए युग चेतना से संदेश व निर्देश प्राप्त कर उसी के अनुसार कर्मरत होते। अपनी सभी विधाओं और सिद्धियों का उपयोग सत्य सनातन धर्म निबाहने के लिए करते। ऐसे गुरुओं के वंशज द्वापर तक आते-आते आश्रम छोड़ राजसभा में ऊंचे-ऊंचे आसनों पर बैठ अधर्म का तांडव देखते रहे। अपना सत्य धर्म-कर्म भूलने पर क्या गति हुई सर्वविदित है। महाभारत में स्वार्थयुक्त होकर अधर्म का पक्ष लेने के कारण सभी गुरु आचार्य महान विद्याओं के ज्ञाता, युग चेतना, कृष्ण रूप में की बात न सुनने पर विनष्ट हुए।

तो हे मानव!
तू बन अर्जुन, सत्यमयी युग चेतना का संदेश जानकर अपने पूरे अस्तित्व पर काम कर अज्ञान मिटा भ्रमरहित हो अपना महत्व जान। श्रीराम के समय पाप पुण्य का युद्ध था द्वापर में धर्म-अधर्म का और अब कलियुग में झूठ और सच का। तुझे केवल सच्चा होना है पहले आंतरिक रूप से बाह्य रूप में इसका विस्तार स्वत: ही होगा। पहले स्वयं पर काम करने की साधना कर सत्य प्रेम व कर्म का सही अर्थ जानकर प्रकाशित हो जा, स्वत: ही प्रकाश फैलेगा। अन्य लोगों को या दुनिया को कोई नहीं बदल सकता। मानवता को बचाने का दंभ कोई न पाले।

हे मानव! तू पहले सच्चा खरा इंसान बन मानवता खुद बच जाएगी। युगचेतना सबका न्याय कर ही देगी। प्रकृति सबकी अम्मा है सबक सिखा ही देगी। परमचेतन तत्व जिसे बचाना चाहता है स्वत: ही बचाएगा। सबसे बड़ा सत्य तो यह है कि एक सत्यमय मानव का भाव ही रूपान्तरण के लिए काफी होता है। वह वो भाव बीज बो देने में सक्षम है जो प्रकृति के निरंतर उत्थान की अगली कड़ी बन जाए।

यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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