ऊर्जा के खेल का सत्य ज्ञान

हे मानव ! तू बहुत ही चतुर हो गया है।
ऊर्जा कैसे ली जाए खूब जान गया है पर उसका समुचित व्यय और उसका हिसाब-किताब रखना एकदम भूल ही गया है। धन-दौलत केहिसाब में खूब पक्का होता जा रहा है वो दौलत जो शान्ति व सन्तुष्टि कभी नहीं खरीद सकती।

संसार से बुद्धि से कमाया धन बुद्धि के अनुसार व्यय किया जा सकता है। पर प्रकृति से स्वत: प्राप्त ऊर्जा या जो प्रेम सहयोग व सहायता प्रभु कृपा स्वरूप अन्य मानवों से प्राप्त हो जाती है उसका प्रयोग बुद्धि के स्वार्थी खेलों या अपनी कुप्रवृत्तियों के हिसाब से व्यय करना ही दुखों का कारण बनता है। किसी ने प्रेम दिया ज्ञान दिया या सही मार्ग सुझाया तो उसकी ऊर्जा लेकर अपनी ही मन बुद्धि के रास्ते पर चलने से उस पवित्र प्रेममयी ऊर्जा का अपमान होता है। जो कि प्रकृति को कभी भी मान्य नहीं होता क्योंकि प्रकृति सदा अपने अनेकों माध्यमों द्वारा संकेत सुझाव संदेश निर्देश व सहायता भेजती ही रहती है और यही उसकी परम ऊर्जा के स्रोत होते हैं। जिन्हें ग्रहण कर सही दिशा में प्रवाहित करना ही सच्चा सनातन धर्म है।

इसका अर्थ समझाने के लिए एक बहुत ही साधारण सा जमीनी उदाहरण है- एक स्वस्थ, सुचारु रूप से चलने वाली बसी बसाई गृहस्थी से ऊर्जा लेकर मानव, धन अर्जित करने की ऊर्जा व शक्ति प्राप्त करता है। अगर उस धन को गृहस्थी को सुव्यवस्थित रूप से चलाने में ही व्यय करे तो ही सुखमय व कल्याणकारी होता है। यदि वो उस धन को बाहर व्यसनों में व्यय करे या कहीं और अपनी ऊर्जा हनन कर दे तो तनाव खिंचाव अशान्ति आदि तो उत्पन्न होगी ही, बाहर जहाँ कहीं से भी यदि क्षणिक ऊर्जा प्राप्त कर भी ली तो उसके लिए ऊर्जा का प्रतिदान तो करना ही पड़ेगा। यह ऊर्जाओं की खींचातानी या संघर्ष कभी भी सुखकारी या शान्तिदायी हो ही नहीं सकता। जिन माँ-बाप ने बड़ा किया सभी ऊर्जाओं को तेरी ओर ही प्रवाहित किया, उन्हीं को भूलकर कहीं और ज्यादा ध्यान लगा देना। जहाँ से रोजी-रोटी चलती है वहीं के काम में कामचोरी करना। जिन्होंने आगे बढ़ाया, सहायता की, प्रेरणा दी उन्हीं सद्मानवों के सिर पर पैर रखकर आगे बढ़ जाना। अरे ओ कृतघ्न मानव! कहाँ पहुँचना चाह रहा है तू और कहाँ पहुँचेगा ऐसे दूसरों की दी हुई ऊर्जाओं, उधार की ऊर्जाओं को गलत दिशा में बहाकर उनका अनादर कर अपना स्वार्थ सिद्ध कर।

यह तो संसारी उदाहरण है, पर यही व्यवस्था ब्रह्माण्डीय परिवार की भी है। हम सब उसी के अंश ही तो हैं। यदि प्रकृति से प्राण ऊर्जा और ब्रह्माण्ड से महती तत्व लेते हैं तो कुछ तो प्रतिदान का ध्यान करना ही होगा। यही सच्चा ध्यान है। प्रकृति की सर्वोत्कृष्ट कृति मानव को ब्रह्माण्ड के सभी तत्व प्रेम करते हैं, सभी ऊर्जाएँ देते हैं, उनके बदले में मानव उनके प्रति क्या धर्म-कर्म निभाता है! यही चिन्तन-मनन का विषय है।
हे मानव ! तू अपने ऊर्जा स्रोतों को भुलाकर अपने ही बनाए हुए चक्रव्यूहों में ही घूमता रहता है। व्यथित पीड़ित या रुग्ण होने पर उस कमाए धन से ही सब कुछ ठीक करने की सोचकर और भी दलदल में धँसता जाता है। झूठा आदर पाखंड ढोंग नम्रता धन या और कोई लालच दिखाकर कोई गुरु चिकित्सक या साथी ही खरीद लूँ यही मानसिकता रहती है। जब तक मानव अपने अस्तित्व का और ऊर्जा के खेल का सीधा-सटीक वैज्ञानिक सत्य जानकर उसके अनुरूप जीवन जीने के लिए ध्यान नहीं करेगा, जीवन की सभी विषमताएँ जो उसने स्वयं ही आकर्षित की हैं उसे सताएँगी ही।

आज चारों ओर व्याप्त अनाचार, अशान्ति, कुव्यवस्था आदि सभी कुछ इसी स्वार्थी व व्यापारिकता का परिणाम है। सम्भल ओ मानव! अब अति हो गई कब तक तू उधार की अप्राकृतिक रूप से हथियाई हुई ऊर्जा से काम चलाएगा, बिजली चोरी हुक डालकर करता रहेगा? एक दिन तो शनिदेव अपनी सर्वोपरि न्याय-व्यवस्था का न्याय सुना ही देंगे। शनिदेव तेरी बुद्धि की चालों की दी हुई रिश्वतों से, धार्मिकता के नाम पर किए कर्मकाण्डों से या मंत्र-तंत्र से रीझने वाले कोई देवी-देवता नहीं हैं वो तो प्रकृति की सटीक ब्रह्माण्डीय न्याय प्रक्रिया के प्रतीक स्वरूप हैं जो केवल सत्य उत्थान के दृष्टा हैं और उसके लिए किए गए सत्य पुरुषार्थ से ही रीझते हैं।

ऊर्जाओं का सदुपयोग प्रकृति के सनातन शाश्वत नियमों, सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश की स्थापना के लिए करना ही सर्वोत्तम उद्यम है। यही प्रणाम का ‘माना मार्ग’ है। प्रकृति की सत्यमयी गति और शनिदेव की न्यायपूर्ण मति एक दिन मानव को सत्यमय माना मार्ग सुझा ही देगी। यही प्रणाम की आस्था और विश्वास है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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