मेरे मन वाला हो जा

मेरे मन वाला हो जा

ओ मानव ! तू प्रभु के मन वाला हो जा। यही तो परम की इच्छा है पर तू तो प्रभुता प्राप्त – गुणयुक्त – मानव को भी अपने हिसाब से ही चलाना चाहता है। प्रभुता को अपने मन या अपनी ही युक्ति-युक्त बुद्धि से चलाने वाले या पकड़ने वाले मानव के जीवन से प्रभु फिसल जाते हैं, निकल जाते हैं।

गीता में श्रीकृष्ण का वचन है, ‘तू मेरे मन वाला हो जा’। यह तो मीन – मछली – जैसा खेल है। मछली को ढीला पकड़ो तो भी हाथ से फिसल जाएगी, कसके पकड़ो तो भी रपट जाएगी। पकड़ एकदम सही दबाव वाली व सटीक हो तो ही बात बनती है। प्रभु के या उस परम सत्ता के मन वाला होने के लिए यह जानना ही ज्ञान है कि प्रभु के मन में क्या है। उसकी सृष्टि, सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ अनुपम कृति मानव के अस्तित्व व मानव जीवन का प्रयोजन क्या है। मानव को अपना ही स्वरूप या मूर्तरूप बनाकर परम सत्ता ने उससे क्या प्रमाणित करना चाहा।

पर मानव अपने मन वाली बुद्धि के फेर मेंं पड़ कर ऐसा रम गया संसारी खेलों में कि प्रभु के सभी प्रयोजन भूल गया। जिनको कुछ याद भी रहा या कुछ ज्ञान और आभास भी हुआ वो भी अन्तत: अपने ही ज्ञान के अहंकार और कर्तापन के अहम् के चक्करों में ऐसे घिरे कि बाहर निकलने का उद्यम या पुरुषार्थ करने की अपेक्षा इन्हीं चक्रव्यूहों को अपना बनाया स्वर्ग या घर समझ उसी मेें मस्त चक्कर काटने लगे। यहाँ तक कि अपने ज्ञान, अपनी वाक्पटुता, अपनी महिमामंडित छवियों, पदवियों और वर्चस्व विस्तार की महत्वाकांक्षाओं के बल पर औरों को भी इन्हीं चक्रव्यूहों में घसीटने का प्रयत्न करने लगे।

चक्रव्यूहों का ही विस्तार होता चला गया, मानव संकीर्ण होता गया। सत्य मानव और सत्य मानवता धर्म इनमें फँसकर ज्ञानी धुरन्धरों से घिरा हुआ दम तोड़ने की कगार पर है। पर यही सकारात्मकता, positivity, भी है और सम्बन्धता का विज्ञान, science of relativity, भी है।

जितना अवसान उतना ही उत्थान अवश्यम्भावी होता है। अब समय आ पहुँचा है परम सत्ता – प्रभु – ने जिन्हें अपनी समय विशेष परीक्षाओं में उतीर्ण होने पर ”परमसत्य” का ज्ञान कराया है, अपने बनाए चक्रव्यूहों को भेद कर बाहर निकलना सिखाया है, उन्हीं का मार्गदर्शन समय व कलियुग की मांग का उत्तर है। यह ज्ञान गीता सुनाने, बाँचने या रटने वालों को नहीं, जीने वालों को कृष्ण चेतना – सर्वोन्नत युगचेतना – स्वत: ही प्रदान करती है।

परम सत्ता केवल सत्य है और सच्चे युगदृष्टा ऋषि वैज्ञानिक इनका ज्ञान विज्ञान अपने अपने समयानुसार प्रसारित करते ही रहते हैं। तभी तो कड़ी से कड़ी जुड़कर सत्य सदा प्रवाहित होता ही रहता है। इन संदेशों संकेतों व निर्देशों को वो ही समझकर कर्म कर पाता है जो वास्तविक रूप से सत्यमय कर्ममय व प्रेममय जीवन जीता हो, परम सत्ता केसत्य प्रकाश से आलोकित हो। जो स्वयं ही सत्त्ता व वर्चस्व विस्तार के द्वन्द्वों में घिरा हो, दिखावे व स्पर्धा में लिप्त हो, व्यापारियों जैसे जोड़-तोड़ में लगा हो, मन-वचन-कर्म तीनों में ही विरोधाभास हो वो कैसे सत्य से साक्षात्कार कर सत् चित्त आनन्द की अनुभूति कर पाएगा। मानव अपनी ओढ़ी हुई छवि का इतना गुलाम हो जाता है कि उसे लगता है कि कोई छवि न होने पर उसका अस्तित्व ही भरभरा कर गिर जाएगा।

तो हे मानव, याद रख! मानव अस्तित्व की पूर्णता की साधना में वो शक्ति है जो शाश्वत सनातन सत्य स्थापन कर सके।

झूठ का युक्तियों से प्रचार होता है चाहे जल्दी ही हो जाए
सत्य का स्वत: ही प्रसार होता है चाहे देर ही हो जाए


पर अन्तत: सत्य ही जीतता है तो यह जानकर, हो जाने दे सभी ओढ़ी हुई छवियों को लुप्त। सारे झूठ को नकार, बन एक उत्कृष्टï मानव जो हो सत्य प्रेम कर्म व प्रकाश से आलोकित। यही प्रणाम का सत्य है।

यही सत्य है
यहीं सत्य है
!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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