युगदृष्टा दोहराए नहीं जाते

सच्चे और वास्तविक युगदृष्टा या युग प्रवर्तक जो पूर्णता उत्थान व रूपांतरण की गति को दिशा व दशा देने आते हैं वो कभी भी एक जैसे नहीं होते न ही दोहराए जाते हैं।

उनके शरीर छोड़ने के बाद उनका ‘भाव’ और अधिक उन्नत होकर नया रूप लेकर अवतरित होता है जिसे मानव फिर नहीं समझ पाते क्योंकि वो बीत गई छवि को या मन में बनाई किसी छवि विशेष को ही चिपके रहते हैं और उसी की पूजा-अर्चना प्रचार व प्रसार करने में ही अपने को धन्य मानते रहते हैं। क्योंकि वो जीवित नहीं है उनसे प्रश्न नहीं कर सकता, न ही कह सकता है कि ‘तूने अपने पर मेरे मार्गदर्शन अनुसार काम तो किया नहीं इसीलिए भटक रहा है’ और वो उसको जो अब मूर्ति या तस्वीर रूप में है उसे सब कुछ सुना सकते हैं। शिकायत मनुहार अपेक्षा आदि कर सकते हैं।

हे मानव!
यह सत्य समझ ले जो अपनी पारी खेल चुके जो समय बीत गया उसमें क्या सत्य ढूंढ़ना। जिस रास्ते को पहले अपना कर साधना नहीं की उस रास्ते से अब प्राप्ति कैसी। क्योंकि समय और युगचेतना आगे बढ़ जाती है और समय की मांग के अनुसार उस साधना में कुछ छोड़ना और कुछ नया जोड़ना होता है। यदि पुराने या बीते हुए सत्य के मार्गदर्शन से कुछ सीखना होता तो कब का सीख चुका होता और आगे बढ़ गया होता वहीं का वहीं अटका न रहता। कलियुग में तो वैसे ही व्यवसायिक मानसिकता छाई रहती है। वर्चस्व मनवाने का अहम व कर्ताभाव हावी रहता है।

श्री रविशंकर को जब सिद्धि आई ‘सुदर्शन क्रिया’ की तो उन्होंने उसे पूरा का पूरा भुना लिया और गुरुपद की प्राप्ति भी कर ली। तब से एक परम्परा सी प्रारम्भ हो गई जिसने जरा सी भी कोई सिद्धि पाई, बोलने की कला-वाक् सिद्धि पाई गुरु हो गया, गुरुओं की बाढ़ सी आ गई। जिसे देखो मंच सजाकर कथा प्रवचन कर मज़मा लगा रहा है। अपनी-अपनी सिद्धि के बल पर खूब धन बटोर-बटोर कर पांच सितारा आश्रमों का निर्माण कर रहा है और कुछ हो न हो गुरु बनकर अपना वर्चस्व बढ़ाने की कला जो श्री महेश योगी, ओशो आदि ने प्रारम्भ कर दी उसी परंपरा को चला दिया।

जब मानव का उत्थान होता है कोई सिद्धि पाने तक, तो तब तक उसका सम्बन्ध सम्पर्क या तारतम्य युग चेतना से जुड़ा रहता है पर जब सिद्धि के प्रचार में उसे मनवाने या भुनाने के फेर में लग जाता है तो उसका परम चेतना से सम्पर्क क्षीण पड़ने लग जाता है और अंतत: टूट जाता है। अपने गुणों में रमने और खेलने के कारण जैसे पुण्य क्षीण होते जाते हैं। तब फिर से पूरी तरह से संयुक्त होना अत्यंत कठिन है, असम्भव ही है जब तक युग चेतना से पूर्णतया संयुक्त मानव या मार्गदर्शक चाहे तो गुरु कह लो न मिले। पर तब विडंबना यह हो जाती है कि गुरुपद पर प्रतिष्ठित छवि के कैदी किसी और को गुरु कैसे माने या समझें। क्योंकि इतनी मेहनत से जो इतना बड़ा साम्राज्य बनाया, करोड़ों शिष्य बनाए जो उन्हें ही सर्वोपरि मानते हैं उनके सामने उनकी छवि खंडित न हो जाए।

श्री रविशंकर के गुरु महेश योगी रहे उनसे ज्ञान पाकर अलग हो गए यही श्री दीपक चोपड़ा ने भी किया। श्री महेश योगी ने अमीरों और सम्भ्रांत वर्ग, Classes, को पकड़ा वही इन दोनों ने भी किया। आचार्य रजनीश भी धनवानों और सम्भ्रांतों के होकर रह गए। यह सब उस समय तक उन्नत चेतना का परिणाम था। युगचेना तो सभी उन्नत मानवों को माध्यम बना लेती है पर वो मानव जब थोड़ा सा भी, बुद्धि के प्रभाव में आकर, अहम् या कर्ताभाव में आ जाता है तो अपने गुणों के अनुसार खेलने लगता है। युगचेतना तो उत्तरोत्तर विकसित होती ही रहती है।

संभ्रांतों का तमाशा देखने के बाद श्री रविशंकर ने थोड़ा ध्यान जनता, Masses, पर भी दिया पर दीक्षा तो, Classes, वाली ही रही। यही हाल ईशायोग वाले सद्गुरु श्री जग्गी का है। श्री रजनीश तो स्वयं निर्मित असली, Original, स्वयंभू थे। श्री रजनीश अपने समय की चेतना से जुड़ उत्कृष्ट हुए और आडम्बर रहित थे पर शब्दों का मायाजाल-बिछा मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र का खेल खिला-खिलाकर बुद्धिजीवियों को तर्क की घुट्टी खूब पिलाई।

अब सबको यह समझना ही होगा कि ‘प्राप्ति’ परम चेतना से योग होने के उपरांत यदि साधना को पूर्णता तक नहीं ले जाया गया तो मानव अपने गुणों में ही खेल जाता है जिसको गुरुपन झाड़ने का शौक या इच्छा मन में होगी वो वही करेगा। इसलिए यह अतिआवश्यक है कि प्राप्ति के बाद अपनी आदतों व इच्छाओं पर कठिन परिश्रम और साधना है। अपने वास्तविक व सत्य अस्तित्व में पूर्णतया स्थापित रहना होता है, दृढ़ प्रतिज्ञ व स्थिर प्रज्ञ होना होता है।

महात्मा गांधी की भांति उस महानतम व पवित्रतम ऊर्जा का उपयोग समय की मांग के अनुसार करने में अपना जीवन लगा देने पर ही मानव सही रूप में महान आत्मा होता है। रूपांतरण या क्रांति कभी भी संभ्रांत व ऐश्वर्यवान धनवान वर्गों से नहीं आती क्योंकि ये तथाकथित गुरु विशेष वर्गों का उपयोग अपने साम्राज्य को बढ़ाने में करते हैं और वो वर्ग इन्हें अपनी व्यवसायिक बुद्धि व रुचि अनुसार उपयोग करते हैं।

यदि वास्तविक रूपान्तरण लाना है तो साधारण मानव होकर उन्हीं के जैसा होकर घुलना-मिलना होता है। संभ्राँत वर्गों की सामर्थ्य और जनता जनार्दन, Masses, के उद्यम व परिश्रम का मिलन अति आवश्यक है। साधारण सरल सहज व प्राकृतिक मानव बनने की कोई तकनीक नहीं होती। जो सब प्रकार की सिद्धियां और प्राप्तियों के होते हुए भी ज़मीन से जुड़ा रहे। अपनी सच्चाई और वास्तविकता न भूले और न ही किसी छवि पद पदवी का कैदी हो।

मानवता की सेवा मानवता का अदना सा सेवक बनकर ही हो सकती है। तुम गुरु बने बैठे हो तो तुम्हारे शिष्य भी गुरु बनकर गद्दी पर बैठने वाली दीक्षा से प्रभावित होकर विशेष वेषभूषा और विशेष भावभंगिमा वाला व्यवहार अपना कर तुम्हारे साम्राज्य के व आश्रमों के अधिकारी बनना चाहेंगे।

तो हे मानव!
किसी भ्रम में न रह। प्रकृति तो सबको समय और अवसर देती है। युग चेतना भी उसी समय तक संदेश व निर्देश देती है जब तक तू सिद्धियों और छवियों की नौटंकियों में नहीं रमता उसके बाद सात या दस साल बाद, सिद्धियों की आयु इतनी ही होती है तेरे पास केवल तकनीक बच जाती है और बचता है अपनी छवि और पद पदवी को बचाने का हताश प्रयत्न! छवि को थोपने वाली वस्तु न बना। स्वार्थी और अपना ही वर्चस्व बढ़ाने वाली व्यापारिक बुद्धि वालों से घिरे रहने पर यही विचार दबाव डालता रहता है कि कोई भी चीज तकनीक बनाकर बेची क्यों नहीं जा सकती चाहे वो भगवान के नाम पर ही क्यों न हो। प्रत्येक सफलता की कोई तो तकनीक होगी यही भ्रम होता है।

सही संतुलन तो तभी बनता है जब उच्च वर्गों के हाथ का खिलौना न बनकर उनके शक्ति स्रोतों का सदुपयोग जनसमूह परिश्रम की व भाव प्रवाह की शक्ति को सदा मानव उत्थान की ओर गतिमान रखने में किया जाए। जैसा महात्मा गांधी जी ने किया। यदि रामदेव जी अपूर्णता से भ्रमित न हुए तो शायद यह कार्य आगे ले जा पाएं। प्रणाम का उद्भव तो हुआ ही इसीलिए है और परम आत्मा व परम चेतना की यह परम अनुकम्पा ही है कि प्रणाम के सत्य को तथाकथित संभ्रान्त वर्ग ने पूर्णतया जानकर भी अनदेखा कर दिया। वो उनके हत्थे नहीं चढ़ा बिकाऊ पदार्थ नहीं बना अपनी ऊर्जाओं व शक्तियों का प्रयोग उनके मनचाहे खेलों में नहीं किया।

हे मानव!
यह शाश्वत सत्य है कि वेग को भी शान्ति ठहराव दिशा व संतुलन चाहिए तो सिद्धियों के वेग को संभालकर पूर्णता की ओर अग्रसर रखना भी योग की सच्ची साधना है। वेग और शान्ति, गति और इति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गति की इति किस प्रकार होगी उसकी तैयारी करनी होती है उसी के अनुसार बहना होता है।

मानव यहां प्रकृति के कर्म में व्यवधान या बाधा उत्पन्न करने हेतु नहीं आया है। प्रकृति की उत्थान की गति व काल की सटीक गणना की अनुसार ही उर्ध्वगति व अधोगति होती है पर उसमें पूर्ण गरिमा व शोभा बनाए रखना ही पूर्ण विवेक है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
!!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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