मन की शक्ति अपरम्पार चले प्रकाश गति से भी तेज। प्रकाश से अधिक प्रकाशवान। करे तन-मन प्रकाशित। क्षणांश में तय कर आए भूत और भविष्य का अन्तहीन सफर। सृष्टि के प्रारम्भ से सृष्टि के अंत तक पहुंच जाए पलक झपकते ही।
सदा गतिवान मन को यदि मिल जाए सही दिशा तो कुछ भी असम्भव नहीं। मन की शक्तियों का महत्व वही समझ सकता है जिसने यह अनुभव पाया हो, मन की शक्ति को पहचाना हो। उन्नत मन क्या-क्या नहीं कर सकता इसकी कल्पना भी साधारण व्यक्ति धारणा शक्ति की समझ के बाहर है। असाधारण धारणा, असाधारण स्मृति, धारणा शक्ति, ध्यान से ही संभव है वरना हाथ से डोर खिसकती मालूम होती है। सिर्फ असाधारण स्मृति धारणा व ध्यान से ही यह शक्ति पाई जाती है, यह भी सत्य नहीं है।
मन-मस्तिष्क का इस स्तर तक विकास कि वह अपूर्व शक्तियाँ प्राप्त कर ले, यह तभी संभव है जब मन का आधार सिर्फ सत्य हो सत्य-मनसा वाचा कर्मणा।
सत्याचार और प्रकृति से संतुलन स्वस्थ मन-मस्तिष्क व शरीर- 1. सत्याचार 2. प्रकृति से संतुलन 3. स्वस्थ मन-मस्तिष्क स्वरूप में 4. शुद्ध ज्ञान प्राप्त करने की लगन ज्ञान-पिपासा बढ़ने की, जानने की तीव्र अभिलाषा। जब यह आधारभूत गुण मानव या मानवी में हों तभी 1. स्मृति 2. धारणा व 3. ध्यान पूर्णतया विकसित हो मन की असीम शक्तियों को पहचानने का माध्यम बन जाते हैं। तब लगता है मन ही सर्वशक्तिमान है, सर्वव्याप्त है जो विश्व में व्याप्त समस्त विचारों से सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और विश्व ही क्यों देखे-अनदेखे ब्रह्माण्ड में व्याप्त सभी ग्रहों से विचारों से और अपूर्व मन-मस्तिष्कों से सम्बन्ध बना सकता है। इससे अलौकिक अनुभव कुछ हो ही नहीं सकता।
आज का मानव सत्यता को विज्ञान की कसौटी पर कस कर ही खरा मानता है। यह भी एक सत्य ही है। जो ज्ञान-विज्ञान वेदों ने कहा वही पवित्र शुद्ध गंगाजल है जिसमें समय की मैली धाराएँ मिलती चली गईं और उन दूषित धाराओं में सत्य का पवित्र गंगाजल कहीं लोप हो गया। अब विज्ञान अपने आप खोज करते-करते उस परम सत्य तक पहुँच रहा है।
वेदों के ज्ञान और आज के विज्ञान का संगम तो होना ही है आज नहीं तो कल। वेदों में मानव के सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी होने को ही आधार माना है। मन की शक्तियों के द्वारा ही नवीन आविष्कार होते हैं, मानवता उन्नति की ओर अग्रसर होती है। स्मृति धारणा ध्यान से प्राप्त शक्तियों और इन शक्तियों द्वारा अपने अनुकूल उन्नत विचार वाले मन-मस्तिष्कों से सम्पर्क बनाकर ही ज्ञानवान प्राणी वैज्ञानिक बनता है। वैज्ञानिक सिर्फ वो नहीं जो भौतिक पदार्थों के स्वरूप को निखार कर नित नए आविष्कार करता है। भूगोल की, ब्रह्माण्ड की अनदेखी दुनिया से सम्पर्क करता है, नित नए-नए आविष्कार करता है। यह तो अपरा ज्ञान है, भौतिक ज्ञान।
एक वैज्ञानिक वो भी है जो मन मस्तिष्क की अनछुई परतों, अनदेखी दुनिया की गहराइयों में झाँकता है, खोजता है और पाता है एक और शक्तिमान एक और शक्ति स्रोत जो सब भौतिक विद्याओं का गुरु है। इस अपूर्व शक्तिस्रोत को जो कि मानव व्यवहार व क्रियाओं का मूल स्रोत है जानना-समझना ही पराज्ञान है। जो मानव दोनों ज्ञानों अपराज्ञान और पराज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर संतुलन कर सही निष्कर्ष पर पहुँचता है वही मानव उन्नत है, वही मानव को सही दिशा दे सकता है वही जानता है सम्पूर्ण मानव होना क्या है और उसके मन की शक्ति ज्ञान के उन नए सोपानों का निर्माण करती है जिसका जवाब वैज्ञानिकों को खोजने में वर्षों लग जाते हैं।
मन की गति की रचनात्मकता को मन की गति की असीमित गति के अदृश्य संसार को जब तक वैज्ञानिक अपने प्रयोगों व परीक्षाओं द्वारा कुछ समझ पाते हैं तब तक वो और आगे बढ़ जाता है। मन की गति को समय की पकड़ नहीं बाँध सकती। क्योंकि वह सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक है। मन की शक्ति के प्रमाण समय-समय पर मनुष्य को और वैज्ञानिकों को भी मिलते रहते हैं। पर वह उसे पूर्ण वैज्ञानिक तथ्य के रूप में स्वीकारना नहीं चाहते। इसके कई उदाहरण हैं। क्यों कोई ही वैज्ञानिक दार्शनिक लेखक संत महात्मा या अवतारी होता है बन जाता है, सभी क्यों नहीं, क्यों कुछ जानलेवा बीमारियाँ अद्भुत चमत्कारिक रूप से ठीक हो जाती हैं, क्यों मनोगति, द्बठ्ठह्लह्वह्लद्बशठ्ठ, से कुछ लोग दिखाई देते हैं क्यों क्यों क्यों ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनका जवाब अपराज्ञान, भौतिक ज्ञान वाले वैज्ञानिकों के पास नहीं है।
जवाब इसलिए नहीं है कि वह पराज्ञान जो वेदों का ज्ञान है उसे साथ लेकर नहीं चलते। जब तक सिर्फ अपरा ज्ञान वाले वैज्ञानिक इन प्रश्नों के सत्य तक पहुँचेंगे तब तक मन की शक्ति वाले मानव का और उत्थान हो चुका होगा और यह दौड़ जारी रहेगी जब तक वैज्ञानिक मानवता और मानव मन की शक्तियों और मानव मन के अदृश्य मगर सर्वशक्तिमान स्वरूप को नहीं मानेंगे। इस स्वरूप को मानते तो सभी डाक्टर वैज्ञानिक भी हैं पर स्वीकारते नहीं। कई बार ऐसा होता है कि लाइलाज मरीजों को ठीक करने का पूर्ण प्रयत्न तो डाक्टर करते हैं पर फैसला छोड़ते हैं सर्वशक्तिमान पर यह कहकर कि अब भगवान की मर्जी है।
चिन्तकों दार्शनिकों कवियों संतों-महात्माओं और अवतारों के समाज के योगदान को नकारा नहीं जा सकता पर उनकी गलती यही थी कि भौतिक ज्ञान को, भौतिकवाद को आध्यात्मज्ञान से भिन्न माना। जैसे कि वैज्ञानिकों ने भौतिक ज्ञान को आध्यात्मिक ज्ञान पर प्राथमिकता दी।
विज्ञान धर्म बिना अपूर्ण है
धर्म विज्ञान बिना अधूरा है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ