जो आत्मिक उत्थान चाहता है ‘एक निश्चय वाली बुद्धि से’ वह कोई बिरला ही होता है, प्रकृति का चुनाव होता है। वरना तो सब अर्जुन की भांति अपने-अपने संसारी लक्ष्यों पर ध्यान लगाए किसी ऐसे गुरु की खोज में रहते हैं जो उनका दिल भी बहलाया करे खूब मनोरंजन करे और शान्ति भी दे। उससे कुछ विशेष अपेक्षा भी न रखे वो ही अपने गुरु से सब अपेक्षाएँ रखें।
पहला, पुराना दिया हुआ गुण, पाठ जीकर याद न करने पर भी उन्हें उनके सारे प्रश्नों के उत्तर देता जाए उनका ज्ञानकोष बढ़ता जाए साथ-साथ ज्ञानी होने का दम्भ भी बढ़ता जाए । अर्जुन भी प्रश्न पर प्रश्न पूछता ही गया जब तक श्रीकृष्ण ने समस्त जीवन का सार न दे दिया। उसने भी बाद में गीता के अनुसार जीवन कहाँ जीया। जीत जाने के बाद न तो गीता को आत्मसात् कर जीवन में उतारा और न ही गीता के सत्य ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। यही है जमाने की रीति। प्रणाम में लोग आते हैं अपने दुख भुलाने दुखों का कारण खोजकर उन्हें मिटाने।
जिसका उत्तर कहीं और न मिला जो ज्ञान कहीं और से प्राप्त न हो पाया उस सबको यहाँ पर पाकर अपने को औरों से बेहतर साबित करने के लिए अहम् का एक और कारण उत्पन्न करने का मार्ग ढूँढ़ लेते हैं। पहला पाठ-कि अपने को प्यार करो, पढ़ कर उसी में अटके-भटके रहते हैं। हर समय ‘मैं’ का राग, मुझे क्या मिलेगा मुझे ही पूछा जाए मेरी पूछ हो मैं सबकुछ खरीद सकता हूं, गुरु स्वामी ज्ञान सब कुछ। किसी उन्नत आत्मा के समक्ष आते ही एक गुप्त सी महान शर्त या शक्ति-परीक्षण गुरु के पहुँचेपन का होना शुरू हो जाता है। मेरे चारों ओर सब ठीक हो जाए, पैसा-धन-दौलत सब कुछ बच्चे ठीक से व्यवस्थित हो जाएँ, पत्नी या पति मेरी ही मर्जी से चलें, माँ-बाप अनुकूल हो जाएँ, मकान-दुकान कारोबार एकदम बढ़िया हो जाए, मजा ही मजा हो जाए तब बदलने की सोच सकते हैं। यही सोच और एक अनकही शर्त-सी रहती है अच्छे गुरु की खोज वालों को ।
यही बात प्रणाम के साथ भी है। ऊर्जा लेकर उपरोक्त बातों में ही व्यय कर देना और बार-बार यही कहना कि आपका आशीर्वाद मिल जाए, दर्शन हो जाए, कृपा हो जाए आदि-आदि चापलूसी भरे वाक्य केवल इसलिए कि केवल अपने लिए ही कुछ न कुछ तो मिल जाए, भला हो जाए।
अरे मानव ! जिसका धर्म एक ही, निश्चय एक ही है, आत्मिक उत्थान वो कभी भी ऐसा हो तो वैसा हो ऐसा सोचता ही नहीं है वो तो बस हर हाल, हर परिस्थिति में बढ़ता ही जाता है सीखता ही रहता है। प्रत्येक स्थिति सम्बन्ध या सोच में क्यों कैसे कहाँ लेकिन किन्तु परन्तु आदि कोई दुविधा या संशय होता ही नहीं है। केवल रूपान्तरित होने का आनन्द होता है। रूपान्तरण अपने आप में पूर्ण ज्ञान-ध्यान है, ध्यान की तारतम्यता है।
रूपान्तरण में बढ़ने उगने फैलने उन्नत होने का उत्साह है। नित नए अदृश्य चमत्कारों से और प्रकृति की अनोखी व्यवस्था से साक्षात्कार है। धीरे-धीरे सहजता से सरलता से आनन्द से सब कुछ अपने आप घटित होता जाता है। मानव जीवन के रहस्यों की पर्तें खुलने लगती हैं, पूरी सृष्टि से एकात्म की अनुभूति होने लगती है। प्रणाम में भी लोग आते तो हैं बड़ी-बड़ी बातें बनाते हैं। सत्य की खोज आत्मा को जानना मानव जीवन का रहस्य ब्रह्माण्ड की गति आदि-आदि पर थोड़े समय बाद फिर वही ढूँढ़ने लगते हैं जो और गुरु स्वामियों से पाना चाहते हैं। आशीर्वाद और कृपा केवल अपने सुख के लिए जिसमें उन्हें कुछ कष्ट न करना पड़े अपना सत्य न देखना पड़े। जब अन्य गुरु स्वामियों से प्रश्नों के उत्तर अपने मन के हिसाब से नहीं मिल पाते तो प्रणाम में आकर प्रेमपूर्ण वातावरण में सहानुभूति ध्यान-ज्ञान इत्यादि लेकर भी कुछ समय पश्चात् धन्यवाद रहित होकर प्रणाम को ही दोष देने लगते हैं। कमियाँ निकालकर अपने प्रमाद को सही ठहरा लेते हैं।
यही सत्य है सबका, शर्तें ही शर्तें ऐसा होगा तो वैसा करेंगे। खुश या सुखी होंगे तभी तो कुछ कर पाएँगे। पर सत्य तो यह है कि किसी और की वजह से उत्थान या प्रगति में रुकावट या व्यवधान आया यह धारणा निराधार है।
यह दोषारोपण अपने ही आलस्य व परिश्रम की कमी का द्योतक है। आपकी आकांक्षा क्या है, आप क्या प्राप्त करना चाहते हैं प्रणाम इसी का मार्ग दिखाता है। आपकी आकंक्षा सदा पूरी मानवता की भलाई हेतु होनी चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि आप धर्मगुरु, समाजसेवी का बाना ओढ़ लें या भगवद् प्राप्ति या सत्य हेतु संसार त्याग दें। आप जहाँ कहीं भी हैं अपना कर्म सत्य प्रेम व प्रकाश ज्ञान रूप से करने पर भी मानवता की सेवा कर सकते हैं ।
अपने कर्मों की असफलता या कठिन परिस्थितियों का कारण बाहर ढूँढ़ने वाले उपाय भी बाहर से ही चाहते हैं। कुछ तो यही समझते हैं कि आशीर्वाद से, दर्शनों से ही सब सही हो जाएगा। कुछ हद तक होता भी है पर वो कभी भी स्थाई नहीं हो सकता यदि साथ-साथ रूपान्तरण हेतु अपने पर काम न किया जाए तो। लोग सोचते हैं ज़रा-सा प्रणाम किया, महान अहसान जताया-औपचारिक-कुछ भेंट-पूजा भी दे दी तो सब ठीक हो जाएगा। जब तक ठीक चलता है तो ठीक, जहाँ जरा समस्या आई तो बेहूदगी भरा व्यवहार कर दिया या कड़वा बोल ही बोल दिया।
अरे, कहाँ बदले तुम ! मेरा समय भी सालों साल व्यय किया। खैर, मेरा इतना समय व्यय करना एक बात तो सिखा ही गया रूपान्तरण कहने और करने से नहीं होता, प्रकृति स्वयं ही सुपात्र तैयार भी करती है और समय आने पर मिलाती भी है। मेरी चेतना को यह सत्य अनुभव कर पाना भी परमेच्छा है। यूँ ही चिपकने वालों को, पैसा या प्रचार का चारा डालने वालों को, दिमाग चाटने के लिए घुस आने वालों को पहचानकर उन्हें दूर से ही प्रणाम कर लो।
जो अपना विकास, उत्थान व प्रसार-प्रचार न कर पाए वो प्रणाम का क्या करेंगे। ये सब अपनी ही चाल चलेंगे तुम अपनी चाल इनके लिए न ही बदलो न ही रुको न ही इन पर ऊर्जा व्यय करो। अब प्रणाम की अनन्य ऊर्जा उधर नहीं बहेगी जहाँ प्रणाम की सत्यमति नहीं है। हमारे वास्तविक शत्रु हमें चारों ओर से घेरे हुए बाह्यï शक्तियाँ नहीं हैं न ही परिस्थितियाँ या वातावरण वस्तुत: सभी शुत्र हमारे अन्दर ही हैं। हमारी ही कुंठाएँ भय स्वार्थीपन पाखंड व मूर्खतापूर्ण भावनात्मक राग जुड़ाव।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ