आत्मिक शक्ति ही शान्ति का आधार है, सतत् साधना ही मुक्ति का द्वार है।
एक सत्यमय आत्मवान अपनी युगानुसार प्राप्त दूरदृष्टि Vision, हेतु ही जीवन जीता है और समयानुसार मृत्यु का भी वरण कर लेता है। पर उसकी उस सत्यमयी दूरदृष्टि के उद्यम व पुरुषार्थ का उसके शरीर केसाथ अन्त नहीं हो जाता। उसके शरीरान्त के उपरांत वह दूरदृष्टि हज़ारों आकारों में अवतरित होती है और उसके द्वारा धारण ध्येय को आगे बढ़ाने हेतु यह क्रम चलता रहता है जब तक उसको पूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती। यही है सृष्टि का शाश्वत नियम कि उत्थान प्रक्रिया को सदा सत्य व पूर्णता की ओर उन्मुख करना और उसकी पूर्णता हेतु समयानुसार संयोग जुटाते रहना।
सारे सांसारिक कर्मों का हिसाब-किताब तो शरीर केसाथ ही समाप्त हो जाता है। बचता है केवल, मानव ने जहाँ तक उन कर्मों के साथ अन्त तक प्रगति उन्नति या उत्थान किया, वही उत्थान वाला भाव बीज या बिन्दु, Nucleus, आगे ले जाने केलिए शरीर से मुक्त आत्मा वाहन बनती है। उत्थान के बिन्दु के भाव बीज को उसके सही धाम में पहुँचाकर अनन्त में विलय और विलीन हो जाती है। उस सही धाम, Frequency plane, zone or belt, में जहाँ वो जन्म की अगली कड़ी के उस गुरुत्वाकर्षण की प्रतीक्षा में रहती है जो उसी भाव के अनुरूप होता है।
भविष्य काल के कर्मों व कर्मफलों के प्रति अनासक्ति व निर्लिप्तता भूतकाल के कर्मों व कर्मफलों का परमात्मा को अर्पण वर्तमान काल के सत्य का चिन्तन-मनन और पूर्ण समर्पण में पूर्ण मनोयोग व पूर्ण पुरुषार्थ से कर्म ही मुक्ति का मर्म है। वर्तमान में प्राप्त कर्मों को करने के लिए उपयुक्त मानसिक स्थिति अपेक्षित है। इस शान्त स्थिर व धीर मति प्राप्ति हेतु सदा ध्यान रहे कि-प्रत्येक समस्या में एक शक्तिशाली सुअवसर छुपा होता है। प्रभु कभी भी ऐसी परीक्षा नहीं देते जो मानव क्षमताओं से परे हो। सभी समस्याएँ दिव्यता की ओर ले जाने वाली परीक्षाएँ होती ही हैं। आत्मानुभूति केसत्य मार्ग पर जितनी ऊँचाई तक प्रगति होती जाती है उतनी ही लुढ़कने या सिद्धियों के गड्ढों में गिरने की संभावनाएँ बढ़ती जाती हैं। कर्ताभाव व सिद्धियों का अहम् लिप्तता उत्पन्न कर दिव्यता के मार्ग से भटकाव ही कराता है। जितनी बड़ी रुकावट या परीक्षा आती है समझो उतनी ही बड़ी प्रगति की संभावना होती है। सम्बन्धता की सत्यता, truth of relativity,, प्रकृति का नियम है।
आलोचना को सकारात्मकता की शक्ति जानो। समस्याओं, आलोचनाओं और रुकावटों से कैसे गुज़रा जाए, इन्हें कैसे पार किया जाए, यही ध्यान रखना है न कि इन्हें कैसे समाप्त किया जाए। इन्हें टालने या हटाने की युक्तियाँ ढूँढ़ने में समय नष्ट करने की अपेक्षा कैसे पूर्ण पुरु षार्थ व तत्पर उद्यम से इनका सामना किया जाए। यही मार्ग- ‘माना मार्ग’ प्रणाम बताता-सुझाता और सिखाता है।
स्वत: प्राप्त, जीवन में आई इन तपस्याओं से उबरकर तपकर ही मानव खरा सोना बनता है। इसी से वो विवेक जागृत होता है जो मानव को उसको जीवन का ध्येय बता देता है। सत्यकर्म की प्रेरणा देता है। इससे मानव अपना अनावश्यक फैलाव समेटकर मुक्ति केमार्ग की ओर ले जाने वाला भाव बीज, संकल्प रूप में धारण कर, एक चित्त व एक बुद्धि होकर स्थितप्रज्ञ योगी की भांति इस संसार में तो अपना मानव जीवन सफल कर ही लेता है साथ ही साथ आगे सृष्टि के उत्थान कर्म की प्रक्रिया में भी सही भाव बीज रोपण करने का सर्वश्रेष्ठ कर्म भी सम्पन्न कर पाता है।
यही है आत्मज्ञान से मुक्ति का मर्म।
यही है सत्य
यहीं है सत्य
- प्रणाम मीना ऊँ