आज के युग की समस्याओं से जूझने वाले जुझारू मानवों का नितान्त अभाव। सब ओर आरामतलबी और उदासीनता-सी छाई है कि हमें क्या हमारा काम हो जाए भाड़ में। केवल बौद्धिकता से उछाले शब्दों व वाद-विवाद से प्रत्येक विसंगति को उचित ठहराने में ही कुशलता मानी जा रही है।
कलियुग में सबकी बुद्धियों का इतना विकास हो गया है कि समस्याएँ तो खूब गिना सकते हैं। स्वयंसेवी संस्थान, NGO, बनाकर सेमीनार, Seminar, गोष्ठियाँ प्रदर्शन आदि कर धन समय और कागज तो खूब बरबाद कर सकते हैं पर सही समाधान जानकर उसे सही ढंग से लागू कर उचित मार्गदर्शन देने वाले न के बराबर हैं। और जो हैं भी उनकी सहायता को ना तो कोई आगे आता है और ना ही उनकी पूरी बात को कोई प्रचार माध्यम ही प्रसारित करता है। केवल चटपटी मसालेदार बातों का प्रचार ही प्रचार और उसमें भी व्यक्तिगत लाभ ही प्रमुख हो गया है। प्रत्येक घटना से हमें क्या लाभ मिलेगा, यही व्यापारिक मानसिकता छाई है।
जिम्मेदारियों से कैसे बचा जाए। जैसे भी हो अपने ही मन व शरीर का सुख ढूँढ लिया जाए, इसी जोड़-तोड़ में सारी बुद्धि व तकनीकी ज्ञान लगाया जा रहा है। कर्मठता, उद्यम या पुरुषार्थ जैसेाए बस। राष्ट्र व उसकी उत्कृष्ट संस्कृति का आदर व सम्मान शब्द अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। घर-गृहस्थी की, बच्चों की, समाज की नाते सम्बन्धों की उनकी मर्यादाओं की जिम्मेदारी न उठानी पड़े किसी से तथाकथित भावनात्मक उत्पीड़न न हो सहनशीलता-त्याग आदि का पाठ न पढ़ना पड़े आदि-आदि। इन सबसे बचने के लिए और भरपूर शारीरिक तुष्टि पाने के लिए मानव जाति के एक तबके ने अपना रास्ता खोज लिया है। अप्राकृतिक शारीरिक सम्बन्ध इसी का परिणाम है।
मनचाही शारीरिक तुष्टियों में लिप्तता भोग विकृतियों की पराकाष्ठा है। यह विकृत मानसिकता का परिणाम है। यह सही है कि प्रत्येक को अपना जीवन मज़ीर् से जीने का अधिकार है चाहे बिगाड़े या सँवारे। जो सामाजिक मूल्यों और उसकी व्यवस्थाओं को नकार कर उससे परे जाकर स्वच्छन्द जीवन जीना चाहते हैं उन्हें सज़ा न मिले, यह तो स्वीकार्य है। क्योंकि जो इस प्रकार का असामान्य जीवन जीते हैं वो नफरत के नहीं, दया के पात्र हैं।
पर इनके अप्राकृतिक व्यवहार को मान्यता देना मानवीय मूल्यों का हनन होगा। इस प्रकार का जीवन जीने वालों का विश्व कल्याण व मानव उत्थान की दिशा में क्या योगदान है, यह तो वो ही जाने। क्योंकि प्रकृति तो सदा उत्थान चाहती है, पतन कदापि नहीं। प्रकृति विपरीतों का पुंज है। रात-दिन चाँद-सूरज कड़वा-मीठा नर-नारी पूर्णता-अपूर्णता आदि-आदि पर प्रकृति इन सबका कितना सुन्दर सन्तुलन सामञ्जस्य और समन्वय बनाकर सृष्टि को सौन्दर्यमय, रसमय और प्रगतिशील बना ही लेती है। इस ब्रह्माण्डीय, Universal, व्यवस्था का एक शाश्वत नियम है जिसको अपनाकर मानव उत्कृष्टïता को प्राप्त होता है। युगचेतना ऊर्ध्वगति की परिचायक है, अधोगति तो पतन और विनाश की गति है। असामान्य शरीर कर्म कुकर्म है।
एक ओर अनेकों आध्यात्मिक गुरु वासना रहित पवित्र प्रेम की, संयमित हो दिव्यता जगाने की, मानव उत्थान हेतु रूपान्तरण की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर कामांधता की विकृतियों को स्वीकृति दी जा रही है। सभी समस्याओं को सुलझाकर सुन्दर स्वस्थ शोभनीय सहअस्तित्व की स्थापना का कर्म कोई नहीं करता। कारण एक ही है, मानव अपनी ऊर्जाओं को अपने उत्थान या सबके कल्याण की ओर लगाने की अपेक्षा, अपनी ही स्वार्थी भोगी अहम केन्द्रित मनोवृत्तियों में नष्ट कर रहा है। एक ओर ‘ऊर्जा बचाओ’ का नारा, दूसरी ओर ऊर्जा का हनन घिनौने कृत्यों में हो रहा है। एक ओर ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम् संसार बनाओ’ का नारा दूसरी ओर विद्रूपताओं कुरूपताओं और कुत्सित वासनाओं को प्रोत्साहन। यह तो भारत की गौरवशाली संस्कृति की परम्परा नहीं।
आज विज्ञान ने इतनी उन्नति की है मगर अभी तक वो मानव की अदृश्य आन्तरिक संरचना और उनके ज्ञान-विज्ञान से एकदम अनभिज्ञ है। इसका ज्ञान हमारे ऋषि वैज्ञानिकों को था और उसी के अनुसार मानव आचार-विचार व व्यवहार संहिता का निर्माण हुआ।
खजुराहो व कोणार्क मन्दिरों का उदाहरण देने वालों के अधकचरे ज्ञान ने तो इसे न्यायसंगत बताकर भारतीय संस्कृति पर सीधा कुठाराघात किया है। जो लोग इन सबका उदाहरण दे रहे हैं वो सब इन मन्दिरों की सत्यता से कोसों दूर हैं। वो लोग जो देखना चाहते हैं उनको वही दिखाई देता है। जबकि सच्चाई तो यह है कि वो सब मानव की कुवृत्तियों का ही चित्रण हैं। सभी मूर्तियाँ बाहरी दीवारों पर ही हैं। मन्दिरों के अन्दर खाली प्रकोष्ठ हैं। सबसे ऊपरी प्रकोष्ठ में सभी छवियों से होकर एकदम खाली स्थल, खाली दिल और दिमाग का प्रतीक है। इसका अर्थ है सभी विसंगतियों को बाहर ही छोड़कर अपने सत्य, शून्यता में समाधिस्थ होना होता है।
मानव के अवचेतन मन में काम की पाशविक वृत्तियाँ रहती हैं, यह बहुत बाद में पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने भी माना। पर यह सत्य हमारे ऋषियों ने सदियों पहले ही जान लिया था। ये मूर्तियाँ साधक की अपनी साधना को मापने का भी मापदण्ड थी कि यदि इनको देखकर अभी भी मन विचलित हो रहा है तो मन्दिर के अन्दर के प्रकोष्ठों में जाने की सुपात्रता नहीं हुई। मन्दिरों के सात तल सात चक्रों के प्रतीक हैं। मानव अपने नीचे के चक्रों में सभी वृत्तियों की कल्पना भी करता है और रमता भी है। जैसे-जैसे आत्मिक उत्थान होता है, निम्र कोटि की वृत्तियों का छूटना अवश्यंभावी हो जाता है।
मन्दिर के सबसे निचले चबूतरे की बाहरी दीवारों पर मानव के पशुओं के साथ अमानुषिक सम्बन्ध भी दर्शाए गए हैं जो केवल मानव की कुत्सित प्रवृत्तियों के वीभत्स चित्रण हैं। कल को अगर मानव ऐसा भी करने लगे और खजुराहो की दुहाई देकर इसे भी उचित ठहराया जाए तो क्या वो भी भारत को स्वीकार्य होगा। क्या संदेश दे रहे हैं हम विश्व को या हमारी युवापीढ़ी को – भारतीय वेद-संस्कृति, जो आत्म-उत्थान की ओर उन्मुख करती हैं, उसकी खिल्ली उड़ाकर। इन सबकी सही व्याख्या अत्यन्त आवश्यक है।
मन्दिरों की वास्तु कलाओं में छुपे प्रतीकात्मक ज्ञान को यदि पूरी तरह समझ नहीं सकते तो कम-से-कम उसका दुष्प्रयोग अपने स्वार्थ के लिए तो न किया जाए। सबसे बड़ा धर्मग्रन्थ गीता है जिसकी कसम न्यायालयों में खाई जाती है। उसका उदाहरण व्यवस्था को नकारने को अपनी मर्जी से जीने का नाम देकर न्यायसंगत ठहराने की जो लहर उठी है वह समय आने पर अपनी नियति व गति को अवश्य ही प्राप्त होगी। प्रकृति सबकी अम्मा है, देर-सबेर सबक सिखा ही देगी। अप्राकृतिक तत्व असत्य व अपूर्णता का संहार ही शिवत्व है। यही चिरन्तन सत्य है।
प्रणाम यह संदेश भावावेश में नहीं दे रहा। मानव अस्तित्व उसकी संरचना व ऊर्जाओं का पूर्ण ज्ञान-विज्ञान, भारतीय शास्त्रों, वेदों मूर्तियों देवी-देवताओं आदि की प्रतीकात्मकताओं की सत्यता का ज्ञान व संदेश पूर्ण तथ्यों सहित उजागर कर लिपिबद्ध किया जा चुका है जो समयानुसार उपलब्ध होगा। युगचेतना जानती है कि कलियुग में ऐसा समय भी अवश्य आता है जब सारा ज्ञान बुद्धि व मन की सारी शक्तियाँ अपूर्णता व झूठ को भी न्यायसंगत ठहराने में ही लगती हैं इसलिए उस परम चेतना ने पूरी तैयारी करा दी है सत्य उजागर कर सत्य स्थापना हेतु।
यही प्रणाम का धर्म-कर्म व ध्येय है।
यही सत्य है
यहीं सत्य है
- प्रणाम मीना ऊँ