कर्मठता ही दे सुबुद्धि और ज्ञान

कर्मठता ही दे सुबुद्धि और ज्ञान

हे मानव ! एक बात ध्यान रख कि आलसी वह ही नहीं है जो काम करना ही नहीं चाहता। आलसी वह भी है जो बेहतर कर सकता है फिर भी न करता है, न करना चाहता है। अपने दिल से पूछ जब तू प्रार्थना करता है तो उसमें भी प्रभु से कुछ अपेक्षा का भाव ही छुपा होता है।

कोई और तेरे लिए कुछ कर देगा इस मानसिकता से तू सदियों से ग्रस्त है इसी भाव ने तुझे असहिष्णु व अकर्मण्य बना दिया है। अब सुन वरदानों का हाल-एक अधेड़ दंपत्ति युवावस्था में अपने लिए सुखमय जीवन की व्यवस्था नहीं कर सके। एक इकलौते पुत्र पर ही आस लगाए बैठे रहे कि वह तो उनके बुढ़ापे का सहारा है ही। पर ऐसा कुछ न हुआ पुत्र भी छोटी-मोटी नौकरी कर मुश्किल से गुजारा चलाने लगा। बुढ़ापा आ पहुँचा,न मकान न दुकान। परेशानहाल इधर-उधर भाग-दौड़कर हल ढूँढ़ने लगे। तब किसी ने उन्हें एक खोपड़ी देकर कहा – इसकी लगन से पूजा-पाठ करो तो तुम्हारी तीन इच्छाएँ अवश्य पूरी होंगी। तीन वरदान तो बहुत होते हैं। दंपत्ति बहुत खुश।

खूब मनोयोग से, खोपड़ी स्थापित कर पूजा-पाठ शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद रात्रि को खोपड़ी में कंपन हुआ वरदान मांगने का समय आया जान उन्होंने मकान मांगा। सुबह ही एक आदमी आया बताया एक बड़ी धनराशि तुम्हारे नाम आई है। पूछने पर कि कहाँ से आई है तो पता लगा उनका इकलौता पुत्र भयानक दुर्घटना में मारा गया उसी की इंश्योरेंस है। उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, होश- हवास गुम। थोड़ा होश आया तो खोपड़ी की याद आई फिर वही पूजा- पाठ। खोपड़ी में स्पंदन हुआ तो बेटा वापिस मांगा। लो जी, बेटा आ पहुँचा मगर बुरी तरह जख्मी, क्षत-विक्षत शरीर। रात-दिन का रोना-धोना, हाय हाय, दवा-दारू, खानपान। पागल हो गए बूढ़े शरीर से देखभाल करते-करते। क्या करें? माथा पीट लिया। फिर खोपड़ी की याद आई। वही पूजा-पाठ मंत्र-तंत्र शुरू। जब खोपड़ी हिली तो बेटे की आत्मा की मुक्ति व शान्ति मांग ली। तीनों मांगें भी निष्फल गईं। बात वहीं की वहीं बल्कि जिस पर आस थी वह भी गया। बैठे-बैठे कोसते रहो भाग्य को। यही कहानी है कर्मचक्र की नियति की।

हिरण्यकश्यप से रावण तक कईयों ने अहंकार से चूर, मंत्र-तंत्र की साधना की शक्ति के आधार पर प्रभु से वरदान तो प्राप्त कर लिए पर विधि का विधान किसी प्रकार माध्यम तैयार कर सीमित बुद्धि से मांगे गए वरदानों की काट निकाल ही लेता है। तो हे मानव ! फलेच्छा रहित पुरुषार्थ से स्वाभाविक प्रकृति के नियमानुसार प्राप्ति ही कल्याणकारी होती है। यह संसार तो बहुत ही सुंदर तथा पूर्णतया उपयुक्त अभ्यास-स्थली है अपना स्वरूप निखारने की तथा दिव्य गुणों के विस्तार की।
यही सत्य है !!

  • प्रणाम मीना ऊँ

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