ज्ञान करे जीवन को जीवंत

ज्ञान करे जीवन को जीवंत

हे मानव! ज्ञान सीप में छुपा मोती बीनना सीख। जीवन सिर्फ जीकर ही बिता देना नहीं है जीवंत हो जीना है। ज्ञान मार्ग है उस महानतम सत्य सच्चिदानंद, सत् चित् आनन्दस्वरूप को पाने का जो न खुशी है न गम न दुख न सुख न ही अहम् या त्वम्। एक अलौकिक दिव्य अनुभूति सब कुछ जान समझ लेने की, न प्रश्न, न जिज्ञासा, न संशय, न उत्सुकता, बस प्रफुल्लता ही प्रफुल्लता। परा चेतना से जुड़कर नित नवनूतन आनन्द उगने बढ़ने और खिलने का व अनावश्यक तत्वों का सूखे पत्तों की तरह स्वत: ही झड़ने का।

ज्ञान मार्ग कठिनतम मार्ग है इसमें रोज नई नई शाखाएँ फूटती रहती हैं और मानव बुद्धि उनकी ही गुत्थियाँ सुलझाने में फँसी रह जाती है। अहम् के ही नित नए सोपान गढ़ लेती है। सच्चिदानंद के प्रकाशमय स्वरूप को जानने के लिए तन-मन को ज्ञान ज्योति बनाकर जलाना व तपाना होता है। यदि यह न हो पाया तो कोरा ज्ञान ही रह जाएगा जो साथ नहीं जाएगा।

ज्ञान की सार्थकता प्राप्त ज्ञान के द्वारा सत्यफल को चख कर उसका रस औरों को भी अनुभव कराने में है न कि ज्ञान का ढिंढोरा पीटने में या शेखी बघारने में। ज्ञानानुसार कर्म करके उदाहरण बनकर मार्ग सुझाना ही श्रेष्ठï मानव-धर्म है।

ज्ञान बुद्धि का भोजन है। मानव शरीर भोजन पाकर छह से आठ घंटे तक की लंबी प्रक्रिया में उसे मथकर लुग्दी बनाकर जीवनदायिनी आवश्यक तत्व ग्रहण कर बाकी सारहीन पदार्थ शरीर से निष्कासित कर देता है। यदि ऐसा न हो तो मानव कितना व्याकुल हो जाता है बदहज़मी और अनेकों व्याधियों का शिकार हो जाता है। ऐसी ही मस्तिष्क की भी प्रक्रिया है। ज्ञान पाकर यदि उस पर कर्म करके चिंतन व मंथन करके तत्व ज्ञान का मोती बीन जीवन न संवारा तो बदमज़गी होगी ही।

जो ज्ञान अनुभव को प्राप्त नहीं होता वह अवचेतन मन में संग्रहित रहता है। पर पेटदर्द की तरह कोई ऊपरी लक्षण नहीं होते वह वहाँ पर तब तक पड़ा रहता है जब तक कोई घटना उसे छू कर चेतना में नहीं ले आती। पर तब मानव बुद्धि उस अनुभवरहित रटे हुए ज्ञान की उल्टी तो कर सकती है मगर उससे कोई लाभ नहीं उठा पाती तभी तो विक्षिप्तता, उन्माद, विषाद सताते तड़पाते हैं। उपयोग बिना ज्ञान वैसे ही सड़ांध देगा जैसे बिना पचा भोजन।

कभी सोचा कि क्यों सारा ज्ञान सब तक एक सा नहीं पहुंचता क्योंकि सबकी व्यक्तिगत क्षमताएँ गुण व कर्मगति भिन्न-भिन्न व प्रकृति प्रदत्त हैं। प्रकृति की परमबोधि (सुप्रीम इंटेलीजेंस) यह सत्य पूर्णतया जानती है कि किस मानव के किस प्रकार के ज्ञान से कर्म कटेंगे और उद्धार होगा। भोजन पचाना तो पशुत्व का भी गुण है जो मानव भी उसी की भांति जन्म से ही पा लेता है। पर ज्ञान की पाचन प्रणाली मानव को स्वयं ही विकसित करनी होती है।

ज्ञान की पाचन क्रिया सुचारु रूप से चलाने को चैतन्यता, तत्बुद्धि व कर्मठता ये तीनों पाचक रस चाहिए। इसे मानव को अपने ही पुरुषार्थ से साधकर उस स्तर पर लाना होता है जहाँ वह एक से तीन मिनट में ही उस ज्ञान का प्रयोजन जान ले क्योंकि ज्ञान के प्रयोजन को जानकर संसार धर्म निबाहते हुए भी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करने का कर्म ही सत्य धर्म है।

तो जो मानव इस ज्ञान-प्रणाली को समझ कर इसकी उपयोगिता जान जाता है वह ही जीवंत हो जीवन सार्थक करता है।

  • प्रणाम मीना ऊँ

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