जीव उत्थान के सात सोपान

जीव उत्थान के सात सोपान

हे मानव! अपने को जान। सृष्टि की उत्पत्ति व संहार का क्रम निरंतर चलता ही रहता है। पर सब कुछ प्रकृति के अटल नियमों में लयात्मक रूप से निबद्ध होकर ही होता है। उत्पत्ति पूर्णता व संहार तीनों का प्रतीकात्मक स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही तो हैं। ब्रह्माण्डीय ऊर्जाएँ तो सदा ही प्रवाहित होती रहती हैं सृजन करने को। यदि परिणाम सत्यमय है और उसमें आगे उत्थान की संभावनाएँ हैं तो पूर्णता की ओर अग्रसर होता है अन्यथा समय आने पर विनष्ट हो जाता है।
जीवात्मा के विकास के सात सोपान हैं- 1. जानवर, 2. मानव, 3. देवता, 4. संत 5. गुरु, स्वामी परमहंस आदि, 6. अवतार स्वरूप, 7. प्रकृति परमेय।

जानवर का स्तर ऊर्जा के ऊपर की ओर प्रवाहित होने का आधार है। यहीं से मानव का विकास प्रारम्भ होता है। मानव जीव विकास की सर्वोत्तम कृति है। क्योंकि इसी में दिव्यता के प्रस्फुटन की क्षमता है। मानव सभी चौरासी लाख जीवों के गुणों के तत्व को धारण किए हुए है। देवता होने व उससे भी ऊपर के सोपानों की ओर उन्नत होने के लिए इन्हीं गुणों को निखारने व अनुशासित करने की तपस्या करनी होती है इसकी क्षमता प्रकृति ने सबको दी है।

देवता स्वरूप में प्रसन्नता ऐश्वर्य व दूसरों की सहायता की सामर्थ्य होती है पर इन सोपान पर पद व संपत्ति छिन जाने का भय व असुरक्षा की भावना बनी रहती है। इससे ऊपर संत अवस्था में कुछ भी छिनने व खोने का भय नहीं। सदा आनन्द व अकेलेपन की फकीरी मस्ती छाई रहती है। संत जब अपनी इस मस्ती से उठकर जनजागरण का संकल्प लेकर कार्यरत होते हैं तो गुरु, आचार्य आदि विशेषणों से अलंकृत हो अपने ज्ञान और विवेक से मानव विकास हेतु मार्गदर्शन करते हैं।

अवतार सारी पदवियों व छवियों से परे, ऐसा मानव होता है जो सर्वकला सम्पूर्ण पूर्णता की पराकाष्ठा की परिणति होता है। उसे प्रेम के सभी भावों से पुकारा जा सकता है। सखा भाव प्रमुख है। हे राम! ओ श्याम! कहाँ हो तुम! वह तू या तुम सम्बोधन के सच्चे भाव से ही रीझ जाता है। जब-जब मानव जाति दुविधा में होती है तो उनके समाधान को अवतार अवश्य ही विद्यमान रहता है। गुरु स्वामी के सोपान पर पहुँचे लोगों के बड़ी संख्या में अनुयायी व जानने मानने वाले होते हैं पर अवतार को तो कोई विरला अर्जुन जैसा निद्राजयी दृढ़निश्चयी पूर्ण समर्पण में आकर ही पहचान पाता है।

अवतार का प्रत्येक वचन क्रिया व सम्बन्ध गीता का कर्मयोग व प्रेम योग होता है। उसका जीवन ही इसका उदाहरण होता है कि कैसे सच्चा व खरा इंसान-मानव बना जाए। पूर्णता व सच्चिदानंद वाला परम पद पाकर भी अपने ज़मीर व ज़मीन से जुड़े रहना पूरी बंदगी में रहना और सबके बीच सबके जैसा होकर रहना, पर पूर्णतया निर्लिप्त व दृष्टा भाव से सभी लीलाएँ करना। तभी तो गीता में कृष्ण ने कहा कि लोग मुझे इस तरह विचरण करने वाला साधारण प्राणी मात्र समझते हैं।

सभी उन्नत मानवों, गुरुओं, अवतारों आदि के सद्विचार व भाव ब्रह्माण्ड में चेतना रूप में व्याप्त हैं। प्रकृति सर्वोपरि गुरु है। सृष्टि की उत्पत्ति से प्रलय तक का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान अपने में समाए है। उस तक पहुँचने व जानने के लिए और अपने दिव्य रूपांतरण के लिए पहले अपने आपको जानो।
यही सत्य है

  • प्रणाम मीना ऊँ

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